ओशो वाणी जानिए क्या होता है ढाई आखर के प्रेम का मर्म

छोटा सा ‘प्रेम’ शब्द है–ढ़ाई आखर प्रेम के… कोई बड़ा शब्द नहीं है, छोटा सा। ‘इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है!’ उसकी छोटी सी कहानी है, मगर उससे बड़ी और कोई कहानी नहीं। उस छोटे से शब्द में सब समा गया है–सारे शास्त्र! कबीर ने कहाः ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय। सारे वेद, कुरान, पुरान, सब उसमें समा गए हैं। ‘सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो जमाना है।’ बस इस प्रेम का ही सारा खेल है। अगर सिमट गया तो आशिक का दिल बन जाता है। और अगर फैल गया, तो परमात्मा बन जाता है।

सिकोड़ो मत अपने प्रेम को, फैलने दो! इतना फैल जाए कि सारा अस्तित्व तुम्हारे प्रेम का आंगन बन जाए। इतना फैल जाए कि तुम बचो ही न। तुम धड़को जगत के प्राणों में, बहो वृक्षों की हरियाली में, खिलो फूलों में, चांद-तारों में, पहाड़ों में, पर्वतों में! इतने फैलो… फैलते जाओ कि यह जो छोटी सी गांठ तुमने सिकोड़ कर अहंकार की बना ली है, यह गल जाए। इसे इतना फैला दो कि यह मिट जाए। इतना विरल कर दो कि यह खो जाए। बस फिर पहली झलक।
मगर ख्याल रखना, पहली झलक का मतलब यह नहीं कि तुम्हें झलक मिलेगी। तुम नहीं रहोगे, तब पहली झलक। यह विरोधाभास है।

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जब तक भक्त रहता है तब तक भगवान नहीं है। और जब भगवान है; तब भक्त कहां? भक्त का कभी भगवान से मिलन नहीं हुआ। भक्त मिटा तो मिलन हुआ, भक्त न रहा तो मिलन हुआ। इसीलिए तो ‘अनलहक’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उदघोष उठा। ऐसी घड़ी आती है जब भक्त तो बचता नहीं, भगवान ही शेष रह जाता है। उसी घड़ी में उदघोष उठता है ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का। मैं ही ब्रह्म हूं!
जब तक तुम्हें भगवान अलग दिखाई पड़े, तब तक समझना अभी मन के जाल के बाहर नहीं गए हो। अगर भगवान तुम्हें वहां दिखाई पड़े, दूर खड़ा, तो समझना कि अभी तुम्हारा अहंकार मौजूद है। अभी देखने वाला मौजूद है तो दिखाई पड़ने वाला भगवान कल्पना होगा। जब तक द्रष्टा मौजूद है, तब तक दृश्य तुम्हारा कल्पना-जाल है। एक ही बचना चाहिए। द्रष्टा और दृश्य एक हो जाने चाहिए।

उस घड़ी में पहली झलक, और पहली झलक मिलती है तो पता चलता है कि हमने जो किया–वही जगजीवन कल कहते थे–कि हमने जो किया, उससे पाने का कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है। हमारा किया ना-कुछ है। हमारा किया व्यर्थ था। हमारे किए से, जो हुआ है उसका कुछ लेना-देना नहीं है। हमारा किया ऐसा है जैसा मैंने सुना है एक छिपकली एक महल में रहती थी। छिपकलियों में कहीं शादी-विवाह था। बैंडबाजे बजे, शहनाई बजी, निमंत्रण आया। लेकिन उस छिपकली ने कहा, मैं आ न सकूंगी। देखते हो मेरा काम? अगर मैं जाऊं तो यह पूरा महल गिर जाए। इसे मैं सम्हाले रखती हूं। मुझ पर बड़ा दायित्व है। तुम जो घास-फूस की झोपड़ियों में रहते हो, ठीक है; तुम चले भी जाओ तो कुछ हर्ज नहीं है।

लेकिन यह बड़ा महल है… भारी हानि हो जाएगी मेरे जाने से। मेरा आना संभव नहीं। अब छिपकली ऐसा सोचे तो आश्चर्य नहीं है! क्योंकि सभी छिपकलियां ऐसा सोचती हैं; आदमी भी ऐसा ही सोचता है। मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। मैं न रहूंगा तो दुनिया का क्या होगा? महल गिर जाएंगे, जिंदगी का तारतम्य टूट जाएगा। यह जो ‘मैं-भाव’ है, यह बड़े-बड़े सूक्ष्म रास्तों से लौट आता है। यह धर्म के नाम पर तपश्चर्या बन जाता है, योग बन जाता है। फिर तुम सोचते हो कि मेरे योग से परमात्मा करीब आएगा। मेरी साधना से सिद्धि होगी। मगर तुम्हारी साधना और तुम्हारी सिद्धि में उतना ही संबंध है जितना छिपकली में और महल के सम्हलने में; इससे ज्यादा नहीं।

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जिस दिन झलक पहली बार उतरती है उस दिन पता चलता है कि मैं भी खूब पागल था! मैं सोचता था, ऐसा करूंगा, ऐसा भोजन करूंगा, इतनी बार भोजन करूंगा, रात पानी न पीऊंगा, पानी छान कर पीऊंगा, इतने कपड़े पहनूंगा, इतने देर सोऊंगा, ब्रह्ममुहूर्त में उठूंगा, ऐसा करूंगा ऐसा करूंगा… इस सबके जोड़ में मुझे परमात्मा मिलेगा। जब परमात्मा मिलेगा, तब तुम्हें हंसी आएगी कि मैं भी खूब पागल था! क्या जोड़ बिठा रहा था! क्या खाया, क्या पिया; कितने कपड़े पहने, कितने नहीं पहने; कहां रहा, कैसे नहीं रहा; कितने उपवास किए, कितने व्रत, कितने नियम–सब ऐसे व्यर्थ हो जाते हैं! कुछ तारतम्य ही नहीं है। जो मिलता है इतना विराट है कि अगर तुम्हारे उपवासों से मिला हो तो दो कौड़ी का हो जाएगा। तुमने जो कीमत चुकाई है, अगर वही परमात्मा की कीमत है तो परमात्मा पाने योग्य भी नहीं रह जाएगा। क्योंकि तुम शीर्षासन पर खड़े रहे रोज एक घंटा, इसलिए परमात्मा मिला, तो यही परमात्मा की कीमत हो गई–सिर के बल खड़े रहना एक घंटा। यह कोई बात हुई! कि तुम कांटों पर लेटे रहे; तो यह परमात्मा की कीमत हो गई! कार्य-कारण का कोई संबंध नहीं है। जिस दिन प्रसाद बरसता है उस दिन सब प्रयास बह जाते हैं; जैसे बाढ़ आ गई और सब झाड़-झंखाड़ किनारों के बह गए; कुछ पता न चला, सब गया। ऐसे ही तुम्हारी सारी साधना चली जाती है सिद्धि की बाढ़ में।

इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि हमने जो किया, उससे मिलने का कोई संबंध नहीं है। यद्यपि जब तक नहीं मिला था तब तक हम यही सोचते थे कि न करेंगे तो कैसे मिलेगा?
अहंकार हमेशा करने की भाषा में सोचता है। इस संसार में और सब चीजें करने से मिलती भी हैं। अगर कुछ न करोगे, तो धन नहीं मिलेगा, पद नहीं मिलेगा। कुछ नहीं करोगे, हाथ पर हाथ रखे बैठे रहोगे तो बुद्धू बने रहोगे, दूसरे लोग मार ले जाएंगे हाथ तुमसे पहले। यहां तो आपा-धापी करनी होगी, मार-धाड़ करनी होगी, गलाघोंट प्रतियोगिता है, झूम-झटक करनी होगी। ऐसे थोड़े ही बस तुम बैठे रहे, और लोग आ गए और कहा कि आप प्रधानमंत्री हो जाइए! कि नहीं, आपको तो होना ही पड़ेगा!! नहीं, यहां तो बहुत झंझटें हैं। यहां तो काफी सिर-फुड़ौवल होगी, तब अगर घुस पाए भीड़ में तो घुस पाए! फिर भी कुछ पक्का नहीं है, पहुंचते-पहुंचते लोग चूक जाते हैं। बिल्कुल हाथ पहुंचते-पहुंचते छिटक जाता है। भारी संघर्ष है!

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तो यहां तो सब कर्म से मिलता है। इसलिए हमारे भीतर एक गणित का जन्म हो जाता है कि सभी कुछ कर्म से मिलता है तो परमात्मा भी कर्म से मिलेगा। बस वहीं भूल हो जाती है। परमात्मा इस जगत के गणित के बाहर है। कर्म से नहीं मिलता, समर्पण से मिलता है। अकर्म से मिलता है, झुक जाने से मिलता है। संघर्ष से नहीं मिलता, आक्रमण से नहीं मिलता, मिट जाने से मिलता है। जो बैठ रहा, चुप होकर, शांत होकर–इतना शांत होकर कि भीतर कोई तरंग भी न रही–किस अनायास घड़ी में उसका आगमन हो जाता है, पता भी नहीं चलता। और इसलिए बड़े से बड़ा चमत्कार यही है कि जो नहीं करते उनको मिलता है। जो अकर्म की गहराइयों में उतर जाते हैं, उनको मिलता है। जो शून्य की अतल तलहटियों में डूब जाते हैं, उनको मिलता है।

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