जल की एक बूंद

बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

जल की एक बूंद
करती है सृजन
रचती है विश्व को ।

जल की एक बूंद
बनती वंश लोचन
सीप मे मोती
गजमुक्ता
चमकाती आनन ।

जल की एक बूंद
करती है प्राणदान
बनती चरणामृत
विष्णु पदनख की
सुरसरिता
पालती विश्व को।

जल की एक बूंद
ऋषियों का अस्त्र थी
नयनो की भाषा
बच्चों की आशा
बेटी का दर्द बन
उतरती अंतःकरण
बनती बड़ी परिभाषा।

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जल की एक बूंद
नेत्रों से छलक
गिरी कृष्ण की गोद में
द्रोपदी की लाज बची
मचा महाभारत
करोड़ों भए रण मे आहत।

जल की एक बूंद
आसमान से गिरी
धरती पर लुढ़की
खेत मे पड़ी
निकला बीजांकुर
छिटकी हरियाली
गदबदाई फसल
हुई धरती
गद गद।

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ऐसे जल बूंद का
किया न मान
कितना रहा अज्ञान
समुद्र से आकाश तक
आकाश से धरती तक
करती निरंतर यात्रा
पार करती दुर्गम पथ
सदा रही तुम्हारी
कंठ के प्यास की आस
पर न हुआ
तुम्हें विश्वास
और तुम यूं ही
गिराते रहे
व्यर्थ करते रहे अपना जीवन
किया न मान?
अरे ! जल की बूंद को ही
करुणा की देवी
महाशक्ति
देवी दुर्गा
ममता की मूरत
जान ।

जिसने एक घूंट
से पाली तुम्हारी जिंदगी
उसे ही करुणा मयी
मां मान।

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