ग़रीबी में पला था सूखी रोटियाँ खाकर,
बचपन से जवानी तक रहा था औरों का चाकर,
क़िस्मत में लिखा था मेहनत मज़दूरी करना,
ज़िन्दगी बीतती है ग़रीबों की झोपड़ी में रहकर।
कहाँ से लाये वो दौलत जिसका पेट बिन निवाला है,
दो जून की रोटी मात्र भर सपना जिसे उसने पाला है,
नहीं देखा कभी शान से रहने का सपना,
सुबह से शाम तक बस पसीना निकाला है।
भरोसा तो खुद अपनी साँसों का भी नहीं होता है,
पर इंसान दुनिया के इंसान पर भरोसा करता है,
ग़रीबी का तक़ाज़ा है कि खुदी को कर बुलंद इतना,
कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।
कवि इक़बाल के शब्द उर्दू के निसंदेह जोश भरते हैं,
ग़रीबों की उम्मीद में उत्साह का संचार करते हैं,
पर हक़ीक़त में कहाँ कोई इन शब्दों को बदल पाता है,
यही मुद्दा है कि हर इंसान सफलता चाहता है।
यह दीगर है कि सफलता के अर्थ अलग होते हैं,
कोई अथाह धन दौलत कमाना चाहता है,
कोई योग्यता अर्जित कर नाम कमाना चाहता है,
कोई सफल और कोई बिलकुल नहीं हो पाता है ।
जो सफल नहीं हो पाते वह भाग्य को दोष दे देते हैं,
लेकिन क्या भाग्य या साधन को दोष देना सही है,
लिखा परदेस क़िस्मत में वतन की याद क्या करना,
जहाँ बेदर्द हाकिम हो आदित्य वहाँ फ़रियाद क्या करना।