रावण को उसी के ‘मैं’ ने था मारा

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

तुम्हें लगता है मैंने अहंकारवश
श्रीराम से युद्ध किया, लक्ष्मण,
मृत्युशैया पर पड़े नाभि में रामबाण
लिए कष्ट के साथ बोला रावण।

हाँ रावण अहंकार ने ही तुझे ये गति दी,
श्रीराम भैया ने ही मुझे आदेश दिया,
आपसे शिक्षा प्राप्त करने का वरना,
मैं अंत समय में आपके पास न आता।

रावण ने हँसते हुए कहा, जिसने नौ
ग्रहों को अपने वश में कर रखा था,
एक सहस्त्र वर्ष तक इस धरा, आकाश
और पाताल पर मैने राज किया था।

जिसने श्रीहरि विष्णु को अवतार लेने पर
विवश कर दिया वो रावण अहंकारी है,
तो क्या मेरे पुत्र इंद्रजीत के नागपाश से
पराजित आपको इतना गर्व शोभा देता है?

रावण की बात से लक्ष्मण लज्जित
हुए, पर अपना धैर्य भी बनाये रक्खा,
राम के वचनों को याद करके उन्होंने
कुछ भी कहना उचित नही समझा।

मेरी रचनायें मेरी कवितायें,मन की पुकार

चरणों की ओर खड़े लक्ष्मण को देख,
रावण बोला, जीवन में ये याद रखना,
कि अपने भेद यदि किसी को दिए हैं,
तो उसे कभी अपने से दूर मत करना।

कभी ग्रहों को साधने का प्रयास मत करो,
यदि नौ ग्रह साध रखे हैं तब कोई प्रचंड
दैवीय शक्ति तुम पर आक्रमण करेगी,
तब कोई शस्त्र विद्या उसे काट न सकेगी।

इसलिए हे लक्ष्मण! काल के परे
जाना है तो काल के साथ ही बहो,
अपने शत्रु को सदैव अपने से बड़ा
मानकर उसे अपने से छोटा बनाओ।

यह अपने भ्राता श्री राम से सीखो,
लक्ष्मण कभी स्त्री का अपमान न करो,
क्योंकि गाय की तरह स्त्री में समस्त
दैवीय शक्तियाँ भी निवास करती हैं।

ऐसे सामाजिक व राजनीतिक नीति
वचन सुन, लक्ष्मण ने रावण से कहा,
इतने ज्ञानी होने पर भी आपने श्रीराम
से युद्ध करके मृत्यु गले क्यों लगाया।

रावण बोला, मैंने श्रीराम से युद्ध किया,
क्योंकि मैं तो अमर होना चाहता था,
रहस्यमयी स्वर में अपना अंतिम भेद
लंकापति ने लक्ष्मण पर प्रकट किया।

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इतने वर्षों से संसार पर शासन करते
हुए मैंने जीवन के समस्त सुख भोगे हैं,
अपने सामने ही कितने पुत्र पुत्रियों,भ्राताओं को मृत्यु प्राप्त होते देखे हैं।

धरती, स्वर्ग व पाताल में न था कोई,
जो रावण को पराजित कर सकता था,
मैंने जगत के पालनहार से बैर लिया,
इसीलिये अहंकार का स्वांग किया था।

उन्हें मेरा अहंकार तोड़ने आना ही था,
परन्तु मैं रावण चाहकर भी अपनी
अमरता को खोना नहीं चाहता था,
लंकापति रावण ने कराहते कहा था।

लक्ष्मण ने उत्सुक होकर पूछा, कि
अमर होते हुए भी अमर होने के लिए
मृत्यु का आलिंगन समझ नहीं आया,
इस रहस्य से पर्दा आपने नहीं उठाया।

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लक्ष्मण इतने वर्षों में शिव साधना से
मैं जान चुका था कि मेरी ये अमरता
कभी न कभी अवश्य समाप्त होगी,
और मुझे मृत्यु अवश्य वरण करेगी।

मेरी नाभि का ये अमृत मुझे सदा
के लिए तो अमर नहीं रख सकेगा,
पर मेरी नाभि में उतरा हुआ रामबाण
मुझे सदैव के लिए अमर कर देगा।

श्री राम के साथ अब रावण भी अमर है,
रामचर्चा रावण बिन कभी पूर्ण नहीं होगी,
मैंने विभीषण को दिए अपने भेद के
प्रकट होने के भय से मुक्ति पा ली है।

लक्ष्मण ने उसको प्रणाम करते हुए कहा,
हे महाज्ञानी आप अब सर्वोच्च परम विश्राम अर्थात मोक्ष को प्राप्त हुये हैं,
आप श्रीहरि के हाथों पुरस्कृत हुए हैं।

लक्ष्मण जानते हो मेरे अंतिम समय
में राम ने मेरे अनुज विभीषण को न
भेजकर अपने अनुज को मेरे समीप
भेजा और इसी में ये रहस्य छुपा है।

कि मुझे कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा, विभीषण पश्चाताप न कर सकेगा,
“घर का भेदी लंका ढाए” की कहावत
जब तक है रावण को मोक्ष नहीं मिलेगा।

घरों में जब तक आपसी फूट रहेगी,
अहंकार को कभी मोक्ष नहीं मिलेगा,
यही रावण का अंतिम अट्टहास था,
जो हर दशहरा पर गूँजने वाला था।

अयोध्या आकर श्रीराम ने माता
कौशल्या को बताया, “महाज्ञानी,
प्रतापी, महाबलशाली, प्रकाण्ड
पंडित, रावण महान शिवभक्त था।

तीनों लोकों पर विजयी था दशानन,
चारो वेदो का ज्ञाता था, शिवताण्डव
स्त्रोत रचयिता लंकेश को मैंने नहीं मारा,
आदित्य उसे तो उसी के “मैं” ने था मारा।

 

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