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- अब तीन दिन से नहीं लग रहा नारा, सत्तापक्ष के लोगों की बढ़ने लगी धुकधुकी
- हर बार गिरते मतदान प्रतिशत का लाभ उठाती रही विपक्ष, कोई नहीं आ रहा काम
राजेश श्रीवास्तव
लोकसभा चुनाव 2024 के चक्रव्यूह के लिए तैयार किये गये सात द्बारों में से दो द्बार तोड़े जा चुके हैं। देश की लगभग 14 राज्यों की 190 सीटों पर मतदान पूरा होने के बाद मतदान प्रतिशत 2019 की तुलना में कम रहना चौंकाने वाला है। लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान शुक्रवार को खत्म हो गया। पहले चरण की तरह दूसरे चरण में मतदान का प्रतिशत कम रहा। लगातार दूसरे चरण में मतदान प्रतिशत कम रहने से तमाम पार्टियां अपने-अपने दावे कर रही हैं। मतदान के कम प्रतिशत के क्या मायने हैं? चुनाव को लेकर मतदाताओं में उदासीनता क्यों है? आखिर क्या कारण है कि बूथ अध्यक्ष लोगों को इस बार बूथ तक लाने में अक्षम साबित हो रहे हैं? क्या तेजपत्ता वाली कहावत जमीनी कार्यकर्ताओं तक पहुंच गई। बीजेपी कार्यकर्ताओं के बारे में कहा जाता है कि ये तेजपत्ता हैं, जिन्हें सबसे पहले तड़का में डाला जाता है और खाने से पहले निकाल दिया जाता है।
साल 2019 के मुकाबले इस बार इन सीटों पर छह फीसद कम मतदान हुआ है, यानी कि एक बड़ा अंतर हुआ है। 2019 में 70 फीसद मतदान हुआ तो इस बार केवल 64 फीसद पर टिक गया है। अगर सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो दूसरे चरण में जिन आठ सीटों पर मतदान हुआ है उसमें अमरोहा में पिछले बार की तुलना में सात फीसद कम, मेरठ में पांच प्रतिशत, बागपत में नौ परसेंट, गौतमबुद्ध नगर में आठ फीसद, गाजियाबाद में छह प्रतिशत, बुलंदशहर में सात परसेंट, अलीगढ़ में पांच फीसद और मथुरा में आठ प्रतिशत की गिरावट हुई है।
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सभी राजनीतिक दलों को यह चिंता करनी चाहिए कि आखिर मतदान का प्रतिशत कम क्यों हो रहा है? ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान ज्यादा हुआ है। शहरी इलाकों में यह कम हुआ है। यह विश्लेषण का विषय है कि चुनाव का प्रतिशत क्यों कम हो रहा है? चुनाव आयोग ने बहुत से कदम उठाए। इन सबके बीच कुछ नई चीजें हुई हैं। कुछ लोग विदेश से भी वोट डालने के लिए आए। फर्स्ट टाइम वोटर्स भी दिखाई दिए। महिलाएं भी कतारों में नजर आईं। इन सबके बाद भी मतदान प्रतिशत क्यों गिर रहा है, यह हमें देखना पड़ेगा। हम जिस उदासीनता की बात कर रहे हैं, पार्टियों ने शायद ऐसे उम्मीदवार नहीं दिए, जिससे मतदाता बाहर आएं। जहां तक भाजपा की बात है तो वहां चेहरा प्रधानमंत्री मोदी हैं। उनके सामने बाकी उम्मीदवार शून्य हो जाते हैं। कम वोटिंग हो या ज्यादा, किसे फायदा होगा, किसे नुकसान होगा? इसका कोई निश्चित फॉर्मूला नहीं है। एक तरफ का वोटर जिसे लगता है कि 400 सीट तो आ ही रही है तो हम क्यों गर्मी में परेशान हों, चार तारीख को घर में बैठकर नतीजे देख लेंगे। वहीं, दूसरी तरफ का वोटर जो बदलाव चाह रहा है, उसकी उम्मीद घटती जा रही है तो उसने भी दूरी बना ली। मुझे लगता है कि पूरे हिन्दुस्तान में कोई मुद्दा है तो वो उदासीनता का है। डाटा कहता है कि पहली बार के मतदाताओं में से 62 फीसदी ने अपना पंजीकरण तक नहीं कराया है। यह राजनीतिक दलों के लिए सोचने का विषय है। यह पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए चिंता का विषय है। 2019 और 2024 में फर्क यह भी है कि 2024 में राहुल गांधी वैसे मुद्दा नहीं हैं, जैसे 2019 में थे। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग चेहरे पर विपक्ष लड़ रहा है। वोटिग कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि मतदाताओं में न तो पक्ष के प्रति, न ही विपक्ष के प्रति कोई उत्साह है।
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इस बार युवा वोटरों की बेरुखी के कारण कई हो सकते हैं। एक तो यही कि नतीजों को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया है। सरकार और सत्तारूढ़ दल का प्रचार अभियान इतना तगड़ा और विपक्ष का इतना फीका है कि सब कुछ तय माना जा रहा है। दूसरे वह भी हो सकता है, जो लगातार भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक और बेरोजगारी, महंगाई की बेपनाह बढ़ती दर संकेत देती है। फिर, दूसरे सत्ता-विरोधी कारक भी हो सकते हैं। दोनों तरफ का घोषणा पत्र भी किसी को लुभाने के लिए काफी नहीं है। यह पहला चुनाव है जिसमें जनता ने अपने आप को चुनाव से अलग कर लिया है। ऐसा नहीं कि कम मतदान का असर BJP पर नहीं पड़ रहा है, आप पिछले तीन दिनों की BJP नेताओं की सभाएं देख-सुन लीजिये और भाजपा नेता नारा नहीं लगवाते ‘अबकी बार 400 पार’। जबकि पहले शुरुआत इसी से होती थी । लेकिन भाजपा अब इससे बच रही है।
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इस चुनाव में मंगलसूत्र छीनने की बात भी हुई जबकि इसका जिक्र कांग्रेस के घोषणा पत्र में है ही नहीं। विरासत टैक्स आया, मुसलमान भी आये लेकिन भाजपा संगठन के कार्यकर्ता न इस बार खुद बूथ तक पहुंच रहा है और न ही वोटर को खींच पा रहा है। मेरठ में अरुण गोविल और मथुरा में हेमामालिनी के यहां भी गिरता मतदान प्रतिशत इसी की बानगी कह रहा है। अगर अब तक की सारे सीटों का आकलन करें तो साफ होता है कि इस बार चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है।
मुद्दा विहीन चुनाव मतदाता को उदासीन कर रहा है। न राष्ट्रवाद, न मंदिर, न सर्जिकल स्ट्राइक न नौकरी, न योजनाएं बस 2047 के विकसित भारत का सपना और विपक्ष की ओर से अबकी बार मोदी हटाओ। शायद इसीलिए जनता ने इस बार नेताओं को सबक सिखाने की ठान ली है । अगर देखा जाये तो 2019 में 75 सीटें ऐसी थी जिनमें जीत का अंतर बेहद कम था, ऐसे में कम मतदान प्रतिशत ऐसी सीटों पर किसी भी दल को पीछे धकेल सकता है। सत्तारूढ़ दल के 400 पार के नारे पर पलीता लग सकता है। विपक्ष तो जीत के किनारे ही खड़ा है। दूसरी तरफ अब तक चार चुनाव ऐसे हुए हैं जिनमें कम मतदान के चलते सरकारें बदली गयी हैं। 1980 में जनता पार्टी की सरकार गिरी। 1989 में कांग्रेस की सरकार गिरी। 1991 में वीपी सिंह की सरकार गिरी। 2004 में भी गिरावट का लाभ विपक्ष को मिला।
दो टूक : देश की 19 फीसद सीटों पर हो चुके मतदान में गिरते प्रतिशत से भाजपा हलकान