सच बोलना मूलभूत प्रकृति व संवेदनशील सहज प्रवृत्ति है,
झूठ सुनकर यदि हमें दुख होता है,
ऐसे झूठ से ग़ैर को भी दुख होता है।
जिस प्रकार झूठ सुनकर हमारी
ख़ुद की भावना आहत होती है,
वैसे ही हमारा झूठ सुनकर औरों
की भावना अत्यंत कष्ट पाती है।
बचपन में हम झूठ नहीं बोलते हैं,
पर जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं,
लोभ, मोह से घिरने लग जाते हैं,
स्वार्थवश झूठ बोलना सीख लेते हैं।
किसी भले के लिए बोला झूठ,
प्रिय झूठ की श्रेणी में आता है,
लालच के वश में नुकसान पहुँचाने
वाले झूठ से बहुत पछतावा होता है।
“भेड़िया आया-भेड़िया आया” की
झूठी कहानी बचपन से सुनते आये हैं,
आदित्य ऐसा करने वाले औरों का
व अपनों का भी विश्वास खो देते हैं।