अहंकार के जाने के बाद ही मन में प्रेम के भाव उपजते हैं: ओशो

अहंकार और प्रेम एक साथ नहीं हो सकते। अहंकार भी अंधकार की भांति है। वह प्रेम की अनुपस्थिति है, वह प्रेम की एब्‍सेंस है। वह प्रेम की मौजूदगी नहीं है। हमारे भीतर प्रेम अनुपस्थित है इसलिए हमारे भीतर ‘मैं’ का स्वर, ‘मैं’ का स्वर बजता चला जाता है, बजता चला जाता है। और हम इस ‘मैं’ के स्वर को उठा कर कहते हैं कि ‘मैं’ प्रेम करना चाहता हूं मैं प्रेम देना चाहता हूं मैं प्रेम पाना चाहता हूं।’ आप पागल हो गए हैं! ‘मैं’ का और प्रेम का कोई संबंध न कभी हुआ है और न हो सकता है। और यही ‘मैं’ प्रेम की आवाज किए चला जाता है: ‘मैं’ प्रार्थना करना चाहता हूं ‘मैं’ परमात्मा को पाना चाहता हूं ‘मैं’ मोक्ष जाना चाहता हूं।

ये वैसी ही बातें हैं जैसे अंधकार कहे कि मैं सूरज से गले मिलना चाहता हूं मुझे सूरज का आलिंगन करना है। मुझे सूरज से प्रेम करना है। मुझे तो सूरज के घर में मेहमान बनना है। अंधकार जैसी ही ये बातें कहे वैसी ही ‘मैं’ की ये बातें हैं कि मुझे प्रेम करना है, मुझे प्रार्थना करनी है, मुझे परमात्मा से मिलना है।

‘मैं’ के लिए यह द्वार नहीं है, क्योंकि ‘मैं’ प्रेम की ही अनुपस्थिति है।’मैं’ प्रेम का ही अभाव है और जितना हमारा यह ‘मैं’ का स्वर हम मजबूत करते चले जाएंगे, उतना ही हमारे भीतर प्रेम की संभावना क्षीण होती चली जाएगी। अहंकार जितना होगा, उतना ही प्रेम नहीं होगा, अहंकार पूरा हो जाएगा, प्रेम की पूरी मृत्यु हो जाएगी।

हमारे भीतर कोई प्रेम नहीं हो सकता है, क्योंकि हम खोजेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे भीतर ‘मैं’ का स्वर चौबीस घंटे बज रहा है। हम श्वास लेते हैं तो ‘मैं’ के साथ, हम पानी पीते हैं तो ‘मैं’ के साथ। हम रास्ते पर चलते हैं तो ‘मैं’ के साथ। हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तो ‘मैं’ के साथ। मैं के अतिरिक्त हमारे जीवन में और क्या है?

हमारे वस्त्र, हमारे ‘मैं’ के वस्त्र हैं। हमारे पद, हमारे ‘मैं’ के पद हैं। हमारा ज्ञान, हमारे ‘मैं’ का ज्ञान है। हमारी तपश्चर्या, हमारी सेवा, हमारे ‘मैं’ की सेवा है। हमारा सब—कुछ; हमारा संन्यास भी हमारे ‘मैं’ का संन्यास है।’मैं’ संन्यासी हूं ऐसा स्वर भीतर तीव्रता से उठता रहता है।’मैं’ कोई गृहस्थ नहीं हूं ‘मैं’ कोई साधारणजन नहीं हूं; ‘मैं’ संन्यासी हूं ‘मैं’ सेवक हूं ‘मैं’ ज्ञानी हूं ‘मैं’ धनी हूं ‘मैं’ यह हूं ‘मैं’ वह हूं।

लेकिन यह जो ‘मैं’ के आस पास खड़ा किया हुआ भवन है, यह प्रेम से अपरिचित रह जाएगा। और तब हृदय की वीणा पर वह संगीत पैदा नहीं हो सकेगा जो प्राणों को प्राणों के पास ले जाए, जो प्राण के केंद्र में ले जाए, जो जीवन के मध्य में ले जाए, जो जीवन के सत्य से परिचित करा दे, वह द्वार ही नहीं खुलेगा, वह द्वार ही बंद रह जाएगा।

यह बात केंद्रीय रूप से समझ लेने की है कि आपका ‘मैं’ कितना वजनी है, कितना गहरा है! और कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उसको और वजन दिए जाते हैं? और गहरा किए जाते हैं, रोज—रोज उसको मजबूत किए जाते हैं? अगर आप उसको मजबूत किए चले जा रहे हैं अपने ही हाथों से, तो फिर आप यह आशा छोड़ दें कि आपके भीतर प्रेम, प्रेम का आविर्भाव हो सकता है! वह प्रेम की बंद गांठ खुल सकती है, वह प्रेम की संपदा उपलब्ध हो सकती है! फिर यह खयाल ही छोड़ दें। फिर इसमें कोई उपाय नहीं है। 

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