“क्या है शिवलिंग का वास्तविक अर्थ और क्यों मनाएँ महाशिवरात्रि?”

कमलेश कमल
कमलेश कमल

सनातन संस्कृति में प्रतीकों का अत्यधिक महत्त्व है। सूर्य की किरणों में सात रंग (VIBGYOR) सन्निहित हैं..इसे समझाने के लिए अनुसंधित्सु ऋषियों ने कहा कि सूरज सात घोड़ों वाले रथ में बैठकर आता है। ठीक इसी तरह हमें सनातन संस्कृति को समझने के लिए सम्यक् रूप से प्रतीकों को समझना होगा, अन्यथा हम अर्थ का अनर्थ निकालते रहेंगे। उदाहरण के लिए, शिवालय (शिव के घर) में शिवलिंग (शिव की पहचान) पर जल, बेलपत्र आदि चढ़ाते समय हमें इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि शिवलिंग क्या है और हम यह क्या कर रहे हैं?

आइए, शिवलिंग को देखते हैं-

संस्कृत में शिव का अर्थ शुभ या कल्याणकारी है और लिंग शब्द का अर्थ है– पहचान!

स्त्रीलिंग कहने से स्त्री की पहचान होती है, क्योंकि उसमें स्त्रियोचित लक्षण होते हैं। पुंलिङ्ग कहने से पुरुष की पहचान होती है,क्योंकि उसमें पुरुषोचित लक्षण पाए जाते हैं। उभयलिंग कहने से ही पता चल जाता है कि उसमें स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण होंगे। इसी तरह, शिवलिंग शिव की पहचान है अथवा इसमें कल्याणकारी लक्षण हैं। अब, कुछ मूढमति लोगों ने इसे ऐसे समझा कि परमब्रह्म शिव निराकार नहीं, कोई साकार व्यक्ति हैं और लिंग उनकी जननेन्द्रिय है…यह तो उनकी सोच की बलिहारी है।

वस्तुत: पुरातन काल से चले आ रहे शब्द (अभिधान) व्युत्पत्तिगत रूप में अपने अर्थ (अभिधेय) को ही व्यंजित करते प्रतीत होते हैं अथवा कम-से-कम ये व्यवहारार्थ कल्पित होते हैं। अस्तु, जब बात गूढ धार्मिक मान्यताओं और प्रतीकों की हो; तो स्थूल आँखों से देखना पर्याप्त नहीं, वहाँ तो ज्ञान की आँखें चाहिए। गीता में तभी तो कहा गया है–
“विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुशः!”

तो, ज्ञानचक्षुओं से देखने पर स्पष्ट परिलक्षित होता है कि शिवलिंग ‘शिव’ यानी परमात्मा का प्रतीक है। उस पर चंदन-लेपित तीन रेखाओं से त्रिदेव ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश) व्यंजित होते हैं। इन तीन रेखाओं के मध्य में जो एक बिंदुनुमा आकृति बनाई जाती है, वह ज्योतिस्वरूप निराकार परमात्मा को व्यंजित करता है। बिंदु से क्यों? बिंदु में कोई लंबाई, चौड़ाई या ऊँचाई नहीं होती तो यह निराकार, ज्योतिस्वरूप ईश्वर को व्यंजित करने का हेतु बना।

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व्रत का शाब्दिक अर्थ संकल्प है अर्थात् कल्याणकारी परमात्मा के साथ का संकल्प, सन्निधि का संकल्प। इसी तरह ‘उपवास’ का अर्थ है– प्रभु के पास बैठना। अब व्रत या उपवास में भोजन नहीं करना तो बस शरीर की शुद्धि का हेतु है। ऐसा इसलिए भी है कि साधना का आहार से अत्यंत गहरा संबंध है। साधना तभी सफलीभूत होगी जब आहार शुद्ध एवं सात्त्विक हो और उसमें आहार के चार दोषों (स्वरूप-दोष, संग- दोष, निमित्त-दोष या अर्थ-दोष) में से कोई दोष न हो। इस तरह हम कह सकते हैं कि व्रत या उपवास में भूखा रहना अनिवार्य नहीं है, बस प्रभु के कल्याणकारी रूप का स्मरण अनिवार्य है। हम समझ सकते हैं कि शिवरात्रि कल्याण की रात्रि है…अपने शिवत्व के जागरण की रात्रि है। इस जागरण के लिए सबसे पहले साधन, व्रत, नियम, उपवास, प्रवचन, संत-सन्निधि आदि से अन्तःकरण की शुद्धि हो जाती है। ऐसा होने से ही तो जागरण होगा।

जब हम अपने शिवत्व का जागरण की बात कहते हैं; तब यह अंतर्निहित है कि हम भी शिव के ही अंश हैं, हम भी अविनाशी (जिसका विनाश न हो) ही हैं। आत्मा चूँकि ऊर्जा है, तो उसका नाश होगा नहीं, इसलिए अविनाशी।

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है– “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:!” अर्थात् वह मेरा ही अंशी है, मुझसे भिन्न नहीं है। वे परम् आत्मा हैं और हम आत्मा हैं। ऐसे में दिव्यगुणों से अनुप्राणित होकर हम देवात्मा तो हो ही सकते हैं। कहा भी गया है कि मनुष्य देवता और राक्षस के बीच का पुल है…ऊपर उठ जाए तो देवता और नीचे गिर जाए तो राक्षस!

अभी तो बस हमारे शरीर में प्राण है, इसलिए हम प्राणी हैं। प्राण निकले, निर्वाण हो उससे पहले दिव्यगुणों से भरकर दिव्यप्राणी या दिव्यता से भरकर ‘देवता’ हो सकते हैं। जब ऐसा हो जाता है, तब जीवन मधुर हो जाता है, क्लेश और संताप मिट जाते हैं..और जब संताप मिट जाते हैं, तो आनंद का उद्रेक आता है। हम नंदित हो जाते हैं, नंदी हो जाते हैं। नंदी को शिव की सवारी जब हम कहते हैं; तो उसका प्रतीकात्मक अर्थ है– शिव अर्थात् सर्वकल्याणकारी सत्ता की सवारी। इसलिए तो शिव को नंदीश्वर अर्थात् ‘आनंद का ईश्वर’ कहा गया है, ‘बैल का ईश्वर’ नहीं। अतः, नंदी बैल को देखकर हमें इस प्रतीक व्यवस्था को समझना चाहिए।

इसी तरह शिव से जुड़े सभी प्रतीकों को समझने की आवश्यकता है। त्रिशूल हमारी त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस, तमस) प्रकृति है जो एक दंड पर साधित रहती है। भूत-गण कुछ नहीं, अपितु काम क्रोध, लोभ, मद और मोह के पंच-भूत हैं जिन्हें उचित ही विकराल रूप दिया गया है। ये पंचभूत प्रतीकों में सौम्य रूप पा ही नहीं सकते। जो धतूरा हम अर्पित करते हैं, वह अपने अंदर के विषैले तत्त्व को अर्पित कर देने का व्यंजक है, जिससे जीवन में मधुरता आए। कहा भी गया है– “मधुरातायते मधुरक्षरन्ति सैंधवा।”

जहाँ तक भाँग का प्रश्न है: तो यह परम्-सत्ता के प्राकट्य का मौज़ है। जब सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान्, अच्युत, अखंड, रसप्रद, सुखरूप, आनंदस्वरूप, विपत्तिभंजक, अघनाशक, दु:खहर्ता, सुखकर्ता, मंगलमूरत, करुनानिधान, पतितपावन भगवान् शिव (आशुतोष) की भक्ति होती है; तो वे जल्द (आशु) ही प्रसन्न (तुष्ट) हो जाते हैं, इसलिए महाशिवरात्रि की इतनी महिमा है। आइए, उस कल्याणकारी परमात्मा (शिव) का स्मरण करें अपने अंदर के शिवत्व का जागरण करें। ॐ नमः शिवाय !

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