ओशोवाणी: आस्तिक और नास्तिक के बीच में बस यही अंतर

साधक के जीवन का एक ही लक्ष्य है: इस बात को खोज लेना कि मेरे भीतर दो हैं। एक जो सकारण है, वही संसार है। और एक जो अकारण है, वही परमात्मा है। सकारण का अर्थ होता है कि कारण हट जायें तो वह मिट जायेगा। अकारण का अर्थ होता है, कुछ भी हो, कोई भेद न पड़ेगा।  नास्तिक और आस्तिक में इसी सकारण और अकारण का उपद्रव है। चार्वाक और उनके धाराओं को मानने वाले नास्तिकों का कहना है कि आदमी भी वस्तुओं का एक जोड़ है। वस्तुओं को अलग कर लो, आदमी समाप्त हो जायेगा–एक संघात है। जैसे आप पान खाते हैं, तो मुंह लाल हो जाता है। वह लाली पान में जो तीन, चार, पांच चीजें मिलकर पान बना है, उनसे आती है। एक-एक चीज को अलग कर लें, वह लाली खो जायेगी; वह अलग नहीं है। चार्वाक कहते हैं कि आदमी की जो चेतना है, वह भी बस पान की लाली की तरह है। उसके शरीर के तत्वों को अलग कर लो, वह चेतना भी खो जायेगी। यही माक्र्स भी कहता है, ‘कॉन्शियसनेस इज़ ए बायप्राडक्ट।’–कि चेतना जो है, वह पदार्थ की उपपत्ति है। शरीर से पदार्थ अलग कर लो, आत्मा नहीं पाई जायेगी।

महावीर उपवास करके यही कोशिश कर रहे हैं जीते जी, कि शरीर से सारे तत्व अलग कर लिये जायें, सारा भोजन-ईंधन अलग कर लिया जाये, और देखा जाये कि इससे मुझमें कोई कमी पड़ती है या नहीं? अगर रत्ती भर भी इससे कमी नहीं पड़ती और शरीर तीन महीने से भूखा है, सब ईंधन करीब-करीब चुक गया है; और शरीर की ज्योति इतनी मंदी जल रही है, कि कोई भी हवा का झोंका–और शरीर बुझ जायेगा, और मेरी चेतना में फर्क ही नहीं पड़ा बल्कि मेरी चेतना और प्रगाढ़ होकर जल रही है तो निश्चित ही यह चेतना शरीर के जोड़ से पैदा नहीं हुई; अकारण है! अकारण चेतना का अनुभव परमात्मा का अनुभव है।

भीतर इसका अनुभव हो तो बाहर भी इसका अनुभव होगा। और एक बार व्यक्ति इसकी प्रतीति को पा ले, इसे पहचान ले, यह उसे दिखाई पड़ जाये, तो इसी प्रतीति का विस्तार सब तरफ दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। फिर तुम नहीं हो, तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वही दिखाई पड़ता है। देखने का गेस्टाल्ट बदल जाता है।

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मैं तुम्हें देख रहा हूं, तुम्हें दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो तुम्हारा रूप है, एक आकृति है: तुम्हारा चेहरा है, नाक है, आंख, कान, शरीर, वजन है, ऊंचाई है, दुबले हो, मोटे हो–एक तुम्हारा रूप है। पर रूप तुम्हारी परिधि है। वह परिधि तुम नहीं हो। रूप तुम्हारी खोल है, वह तुम्हारा वस्त्र है, तुम्हारा घर है, वह घर-मालिक नहीं है। तुम्हारे वस्त्र तुम नहीं हो।

एक तो देखने का ढंग है: तुम्हारे रूप को देखना, आकृति को देखना; वही आमतौर से हमारा देखने का उपाय है। वह रहेगा, क्योंकि जिसने अपने भीतर अरूप को नहीं पहचाना, वह कैसे दूसरे के भीतर अरूप को देख सकेगा? अगर मुझे लगता है कि मैं शरीर हूं तो मैं तुम्हारे शरीर को ही देख सकता हूं। मेरी आंख उतनी ही गहरी जायेगी तुममें, जितनी मेरे भीतर गहरी गई है।

लेकिन अगर मैंने अपने भीतर उस ज्योति को देख लिया, जो अगम की है, अगोचर की है, अदृश्य की है…बस, तुम्हारा रूप सिर्फ एक खोल रह जाता है। फिर तुम पारदर्शी हो जाते हो, फिर मैं तुम्हें सीधा देख पाता हूं। फिर रूप तुम्हें घेरे है लेकिन वह तुम नहीं हो। तुमने वस्त्र पहने हैं शरीर के, लेकिन वह तुम नहीं हो। तब चारों तरफ ज्योति जलती दिखाई पड़ने लगती है।

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