आठ अरब नागरिकों के मानव अधिकार की बात भ्रमपूर्ण

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

भारत सनातन संस्कृति का संवाहक है। हमारे देश में अनेकों ऐसे दृष्टांत शास्त्रों में पहले से अभिकल्पित हैं जो सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों और प्रकृति के भी संरक्षण की एक संवेदनशील संकल्पना रखते हैं। दुनिया में मानवाधिकार की संकल्पना तो आधुनिक संकल्पना है लेकिन हमारे देश भारत में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की बात की गई गई। भारत में गरिमा की सुरक्षा के लिए ही केवल बात नहीं की गई अपितु देखा जाए तो यहाँ अंतस से सबके सम्मान की बात की गई है, ऐसा देश है हमारा भारत। यह भी एक सच है कि भारत राज्य के रूप में जितना आज लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वहन कर रहा है उसकी मिसाल पूरी दुनिया में दी जा रही है। विगत कोविड काल में स्वास्थ्य को लेकर जो पहल भारत की नरेंद्र मोदी सरकार ने कोविड टीके को लेकर की वह भारत के दयालु-राज्य के रूप में सम्मान पाने के लिए काफी है। भारत की दुनिया के तमाम भूभाग पर इस प्रकार स्वास्थ्य मानवाधिकार रक्षा की कोशिश रही है चाहे इसे भारत में जिस भी दृष्टि से देखा जा रहा हो। इसके अलावा, स्वच्छ भारत मिशन के तहत भी रोमांचकारी बदलाव की कोशिश किया है।

जिस देश में नारियों को पूज्य माना गया उस देश में शौचालय के अभाव में भारत की नारियां कितनी दुर्दशा झेल रही थीं, यह बात किसी से छुपी नहीं है। हमारे देश की सरकार ने स्वच्छता और शौचालय के लिए जन-आंदोलन की तरह कार्य किया और आज भारत की नारियां अपने घर में इज्जत के साथ ज़िंदगी जीने में प्रसन्नता की अनुभूति कर रही हैं। हमें हंसा मेहता स्मरण हो आती हैं जिन्होंने नारियों का सम्मान संयुत राष्ट्र सार्वभौम घोषणा पत्र में ही करने के लिए पहल की थी। जब संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों के लिए बनी कमेटी ने सार्वभौम घोषणा पत्र के अनुच्छेद-एक में यह कहा कि सभी पुरुष स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं। तो इस पर हंशा मेहता ने आपत्ति दर्ज़ की और कहा की इसमें सुधार की आवश्यकता है। उन्होंने अपने संशोधन को प्रस्तुत करते हुए कहा की यदि यहाँ सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं लिखा जाए तो कैसा रहेगा? इस पर कमेटी को हंशा मेहता की बात ज्यादा अच्छी व गंभीर लगी और उसे कमेटी ने तत्काल स्वीकृत करते हुए संयुक्त राष्ट्र सार्वभौम घोषणा पत्र का हिस्सा बनाया। इस प्रकार लैंगिक समानता के लिए प्रमुख पैरोकार हंसा मेहता का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। आज भारत की नारियां और दुनिया की नारियां अपने समान अधिकार के लिए कुछ कह पा रही हैं तो निःसंदेह हंसा मेहता जैसी विदुषी की तस्वीर हमारे सामने आ जाती है।

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इन सबके साथ आज हमें अपने भारतीय नागरिकों को और अधिक कैसे मानवाधिकार प्राप्त हों, इस पर गौर करने की आवश्यकता है। मसलन स्वास्थ्य के अधिकार को देना है तो हमारी चिकित्सा प्रणाली और चिकित्सकों की संख्या में अभिवृद्धि आवश्यक है। यदि हम सम्पूर्ण भारतीयों को शैक्षणिक रूप से उन्नत मनुष्य बनाना चाहते हैं तो शैक्षणिक सुधार और शिक्षा के लिए अधिक उपक्रम बनाने और स्थापित करने होंगे। यदि हम भारतीयों को प्रसन्न जीवन देना ही चाहते हैं तो हमारे हैपीनेस इंडेक्स में कैसे अभिवृद्धि हो सकती है इसके मूल्यांकन, योजना और निष्पादन की कारगर रणनीति बनानी होगी। कहने के लिए हम मनुष्य हैं और हमें आपको जीने का अधिकार है तो इसका मतलब यह नहीं होता कि आप जी लो। सवाल यह है की हमारे नागरिक सम्मान के साथ सुरक्षित जीवन  पा रहे हैं कि नहीं यह प्राथमिक विचार का विषय है। यदि जीने के लिए अवसर हैं तो बुनियादी जरूरतें पूरी ही होनी चाहिए। इसके लिए भारत सरकार की ओर भारत की जनता यदि आशा भारी निगाह से देख रही है तो यह तो जायज है, और भारत सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को खुशी के साथ मानव अधिकार प्राप्त करने का सुअवसर प्रदान करे।

कुछ वर्षों से सतत विकास लक्ष्य की बात की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र ने एसडीजी- 2030 के लक्ष्य को मानव अधिकार के अधिकतम संकल्प पूर्ण करने के लिए बनाए हैं। लेकिन आज जब पूरी दुनिया में एसडीजी-2030 के लक्ष्यों की पहुँच और उपलब्धि पर चर्चाएं हो रही हैं तो बार बार यह चेताया जा रहा है कि हमारे लक्ष्य राज्यों की इच्छाशक्ति पर निर्भर हैं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा राज्यों से एसडीजी-2030 के लक्ष्य को हासिल करने की बार-बार अपील किया जा रही है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है की दुनिया सतत विकास लक्ष्य को 2030 तक हासिल कर ही लेगी। युद्ध, संघर्ष, शरणार्थी लोगों के मसले घटने के नाम ही नहीं ले रहे हैं। लगातार हिंसा और रक्तपात के बीच मानवाधिकारों का संरक्षण संभव ही नहीं है। यूक्रेन और रूस के एक वर्ष से चल रहे युद्ध सबकी नींदें उड़ा रखे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया एक नए महायुद्ध जे मोहाने पर खड़ी पाकर खुद का और दूसरों के मानवाधिकारों का संरक्षण कैसे करेगी, यह एक बड़ा सवाल है।

भारत के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि दुनिया में भारत के नेतृत्व का सम्मान बढ़ा है तो उसे इसे बनाए रखने के लिए ज्यादा सहिष्णु और दयालु राज्य बनने की आवश्यकता है। भारत में बीच-बीच में असहिष्णुता की छवि जो देखने की मिलती हैं उसे तो सबसे पहले सुधारने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपनी स्वच्छ छवि के साथ संयुक्त राष्ट्र के वीटो देशों में शामिल हो और अधिकतम मानवाधिकारों के पैरोकार के रूप में, सक्षम शक्ति के रूप में दुनिया के सामने आए। भारत के लिए यह गौरव की बात है कि यह देश कभी दुनिया के लिए विश्व गुरू की भूमिका में था। आज हमारे गौरव और कैसे समृद्ध होकर पुनः पुरानी प्रतिष्ठा को प्राप्त करें इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस पर बात करते हुए हाल ही में हमारे देश की महामहिम राष्ट्रपति ने एक महत्वपूर्ण पहल की, उसे नहीं भूलना चाहिए हमें कि जेलें कम हों और जीवन में मुकदमें में उलझे लोगों की संख्या में कमी की जाए। यह एक शानदार और श्रेष्ठ पहल है। इससे यह तो स्पष्ट हुआ है कि हम कहीं न कहीं मानवाधिकारों के हनन को रोकने में पीछे रह गए हैं। भारत सरकार और न्यायालय दोनों के लिए यह मानवाधिकार दिवस एक चुनौतीपूर्ण सवाल के साथ आया है और जेलों, कैदियों के सवाल को खत्म करना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी बन गई है। इसे निःसंदेह हर मानवाधिकारवादी लोग सजग पहल के रूप में लिए हैं। देखा जाए तो इसकी प्रतिक्रिया भी और संदेश दोनों भारत की अच्छी छवि गढ़ने के लिए एक सीख की तरह है।

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आज यह कहना उचित लगता है की यदि सच में भारत नई पहल करके दुनिया में भारत की छवि गढ़ता है तो भारत अपने सनातन मानवाधिकारवादी छवि के रूप में उभरेगा, इसमें कोई दो मत नहीं है। अब हमारे देश को जी-20 देशों की मेजबानी करने का अवसर मिला है। भारत जी-20 देशों की अध्यक्षता भी करेगा तो यह प्राकृतिक रूप से हमें और हमारे देश को अवसर मिला है कि हम मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए विश्वव्यापी आवाज़ बनें। हम याः पहल करें की दुनिया में प्रेम के नियम पर आधारित सांस्कृतिक समाज की स्थापना की जाए और सभी सबके गरिमा और सह-अस्तित्व के ख्याल के साथ सबके मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संकल्प लें। विश्व में आज जलवायु परिवर्तन, गरीबी, भुखमरी की चुनौतियाँ हैं। विश्व के लोग आर्थिक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रहे नागरिकों के प्रश्न और अ-नागरिकता की समस्या से जूझते देशों और नागरिकों की समस्याएं कुछ कम नहीं हैं। ऐसे समय में हमें पृथ्वी के नागरिकों के मानव अधिकारों को सुरक्षित रखना है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि इसका सही आँकलन हम नहीं कर पा रहे हैं। क्या आपको पता है की यह तभी संभव है जब हमारी इच्छाशक्ति मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्ज़ करेंगी और अपने उत्तरदायित्वों का सम्यक रूप से निर्वहन करेंगी? मिथ गढ़ते राज्य, मिथ समझाते राज्य अपने नागरिकों से ज्यादा समय तक मिथ के साथ नहीं जी सकते। इससे तो मानवाधिकारों का संरक्षण कभी संभव ही नहीं है। सवाल यह है कि बड़े दावों, रिपोर्ट्स और दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया कब विराम पाएगी और कब हमारे पृथ्वी के लोग सच में मानवाधिकारों को जी सकेंगे? आज दुनिया की चुनौतियों को देखकर ऐसा लगता है कि इस सवाल को यदि सवाल बनाकर रखना है तो इसकी आवृत्ति दुहराई जाती रहेगी। आज तो सबसे बड़ा प्रश्न यह भी है कि हम मानवाधिकारों की आड़ में चल रही साम्राज्यशाली ताकतों को परोक्ष रूप से शक्ति देती व्यवस्थाओं को कब तक अनदेखा करते रहेंगे?

सत्य छुपाने से मानवाधिकारों के हनन में अभिवृद्धि होती है। मानवाधिकारों की सुरक्षा भयभीत राष्ट्र कदापि नहीं कर सकते। मानवाधिकारों की सुरक्षा वे राष्ट्र भी नहीं कर सकते जो बड़बोले बनकर केवल समस्या गिनाते हैं, युद्ध करते हैं, और साथ ही तीसरी दुनिया के देशों पर मानवाधिकारों के हनन का आरोप मढ़ते हैं। आज इसलिए मानवाधिकारों के संरक्षण और प्रसार-पहुँच की स्थतियां बहु-समस्याओं और चुनौतियों की शिकार हैं। दुनिया के लोगों का इसलिए आज यह दायित्व है की वे ज्यादा जागरूक होकर अपने अधिकारों के लिए स्वतः पहल करें। लेकिन सवाल यह है की पृथ्वी की आठ अरब आबादी का हर नागरिक इसके लिए तैयार है? क्या हर नागरिक जागरूक है? क्या हर व्यक्ति अपने मानवाधिकारों को जानता भी है? ऐसे में तो यही कहा जाएगा कि आठ अरब नागरिकों के मानवाधिकार की स्थिति भ्रमपूर्ण है।

वस्तुतः आज विश्व मानव अधिकार दिवस पर एक सजग मूल्यांकन का अवसर है। परंतु, हम मनुष्य ऐसे हैं कि मानवाधिकार दिवस जैसे दिवस को  भी उत्सव के रूप में मनाकर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण मान लेते हैं और मानवाधिकार के प्रश्न ज्यों के त्यों बने रहते हैं।


पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 मध्य प्रदेश
मो. 9818759757 इमेल: [email protected]


 

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