बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के संविधान का शब्दार्थ

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

लखनऊ। भारत आज़ाद होने के बाद अपनी आज़ादी की सभ्यता और संस्कृति के 75 वर्ष पूर्ण कर लिया। हमें अपने संविधान पर गर्व इसलिए होना चाहिए क्योंकि हमारा लोकतन्त्र बहुत समृद्ध है। दुनिया की दूसरी जनसंख्या के हिसाब से बड़ी आबादी इस लोकतन्त्र में आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाकर अपने शताब्दी वर्ष की ओर प्रस्थान कर चुकी है। हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए की सनातन सभ्यता के वाहक भारतवासी सबसे बड़े लोकतन्त्र के सबसे शानदार इतिहास के साक्षी हैं और उसके संवाहक बनकर विश्व में अपनी मिसाल स्थापित कर रहे हैं वरना हमारे साथ और हमारे बाद जिन देशों को आज़ादी मिली उनमें से अधिकांश ने अपने लोकतन्त्र के सौंदर्यबोध को बार-बार खोया और इसका परिणाम यह हुआ कि उस सीमा में रह रहे नागरिकों ने नानाप्रकार के दुर्दिन सहे। अनिश्चितता सही। अपमान सहा। अपनी स्वतंत्रता को खंडित होते देखा।

अगर यह कहा जाए की भारत ने सच में दुनिया को लोकतंत्र की ताकत का एहसास कराया है और उसे जीवंत बनाए रखने के लिए समृद्ध संदेश भी दिया है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस संविधान को सौपते हुए बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था, यह कारगर है, यह लचीला है तथा शांतिकाल और युद्धकाल दोनों में देश को एकजुट रखने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने इस महान दस्तावेज़ को भारत की आत्मा कहा था और उनका यह विश्वास था कि इससे हमारे आने वाले भारत का भविष्य यशष्वी बना रहेगा। उनकी यह मानिता थी कि वास्तव में, मेरे विचार से, यदि नए संविधान के तहत गलत कार्य हो जाएं, तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था। तब हमें यही कहना पड़ेगा कि व्यक्ति बुरा है।

अब तक हमने भारत के संविधान में सैकड़ों बदलाव कर चुके हैं और हमें इसे समय-समय पर और अधिकार-संरक्षण के लिए मजबूत बनाया है। इस पर से आम आदमी को भी यह समझ आता है कि यह सत्य है की अपनी काबिलियत पर इतिहास गढ़ने का हुनर तो हमने दुनिया को सिखाया लेकिन हमारे सामने अब जो चुनौतियाँ हैं उन्हें कैसे ठीक करें अपने संविधान का सम्मान करते हुए इस पर तो विचार करना ही पड़ेगा। संसार की सभी उपलब्धियां बेकार होती हैं जब एक नागरिक का हम अपमानित जिंदगी देखते हैं। भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों को यदि जीवन की सुरक्षा की गारंटी सरकार नहीं दे पा रही है। तो इसके पीछे कहीं न कहीं हमारी योजनाओं के क्रियान्वयन की विफलता है। उन्हें सरकारें नहीं चिन्हित कर पाईं जो अभी भी अपनी बुनियादी चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो यह हमारे संविधान की विफलता है क्योंकि तब तो यह कहा जाएगा कि हमारा संविधान अंधेरे में रह रहे और गुमनाम से गरिमा से दूर जीवन जी रहे लोगों के जीवन की सुरक्षा, स्वतन्त्रता और गरिमा की रक्षा करने में विफल हुआ है। यह वास्तव में संविधान का शब्दार्थ है ही नहीं जिसे लेकर डॉ. राजेंद्र बाबू, अयंगर, बाबासाहेब, हरीसिंह गौर जैसे सैकड़ों विशेषज्ञों ने मंथन किया था और संविधान को इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया था कि भारत कि सीमा में रहने वाले सभी नागरिकों के जीवन को भारत एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगा और सबको सम्मानजनक जीवन प्रदान करेगा।

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यदि गरीबी के कारण मौतें हो रही हैं तो यह तो किसी भी राष्ट्र के लिए अपमानजनक है। असल में संविधान की प्रतिष्ठा इस बात में है कि चिकित्सा-स्वास्थ्य, जीवन सुरक्षा, जीवन-सम्मान सभी नागरिकों को प्राप्त हों चाहे वह देश के किसी भी कोने में रह रहे हों। कम से कम उनकी बुनियादी जरूरत की चीजें और प्रतिष्ठापूर्ण जीवन तो मिलना ही चाहिए लेकिन गरीबी, भुखमरी, चिकित्सा सेवा और चिकित्सकों का अभाव, खाद्य अनुपलब्धता और जीवन रौशन करने के लिए आर्थिक गैर-बराबरी यदि है तो हम आज यह नहीं कह सकते कि भारत ने संविधान के असली शब्दार्थ को हमने समझा भी है। हमारा देश कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता हासिल किया है, इससे मना नहीं किया जा सकता। हमारी अंतरराष्ट्रीय ख्याति बढ़ी है।

लेकिन बहुतेरे ऐसे अवसर आते हैं जब हमें लज्जित होना पड़ा है। मसलन, स्त्रियों के साथ बलात्कार और उनकी निर्मम हत्या जैसे घटनाओं में वृद्धि यह बताती है कि स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। हमारी न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका और चौथे स्तम्भ पत्रकारिता से सवाल आज स्त्री पूछ रही है तो इसका अर्थ है कि हमारी व्यवस्था में कहीं न कहीं खामी है और इसे दुरुस्त करना जरूरी है। स्त्रियों की गरिमा को यदि हम सम्मानित तरीके से सुरक्षित नहीं कर सकेंगे तो हमारा हैपीनेस-इंडेक्स कभी भी मजबूत नहीं होगा। हम विकास के सूचकांक में भले अपनी पीठ ठोक लेंगे। लेकिन खुशहाली के सूचकांक में बहुत पीछे रह जाएंगे। आज़ादी के इतने वर्षों बाद स्त्रियों के सुरक्षा और उनकी प्रतिभागिता को सुनिश्चित करना भारत के लिए चुनौतीपूर्ण नहीं है बल्कि इच्छाशक्ति को और मजबूत करने की मांग करता है।

धारा 370 के बदलाव से हमारे संविधान की प्रभुसत्ता मजबूत हुई है। अब तक हम अपने ही भूभाग पर कश्मीर के बारे में चिंतित हो रहे थे लेकिन संविधान के माध्यम से इस परिक्षेत्र की चुनौतियों को सरकार ने समझकर जो धारा 370 में बदलाव किया उससे हम पीओके को अब विवाद के दायरे में ला सकेंगे वरना हमारी लड़ाई तो जम्मू और कश्मीर तक सिमट जाती थी पीओके एक लग मुद्दा बना रहा जाता था। संविधान की हमारी ताकत को और संप्रभु बनाने वाली नरेंद्र मोदी सरकार इस करी के लिए निःसन्देह बधाई की पात्र है और हमारी संप्रभुता को इससे बहुत बल मिला है। संविधान में समय-समय पर जो हमारी जरूरी बदलाव की अपेक्षाएँ हैं वह निश्चित रूप से सम्मान की नज़र से देखी जानी चाहिए। हमारे संविधान की ताकत में अभिवृद्धि हो और लोकतंत्र हमारा और समृद्ध हो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?

भारत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जी थे। मुझे भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जी के विशेष कार्य अधिकारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला। उन्होने डॉ. आंबेडकर मेमोरियल लेक्चर के दौरान बाबासाहेब के उन मंसूबों को प्रकट किया था जिससे हमारे भारत का संविधान और सशक्त होगा, ऐसा मैं महसूस करता हूँ। प्रणब मुखर्जी ने बाबासाहेब के शब्दों को कुछ इस प्रकार उद्धृत किया था कि हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना होगा। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, एक जीवन पद्धति जो यह मानती है कि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा जीवन के सिद्धांत हैं। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के इन सिद्धांतों को इन तीन तत्त्वों से अलग चीज मानकर नहीं चलना होगा।

ये इस अर्थ में एक सूत्रता अथवा त्रितत्व की रचना करते हैं कि इनमें से एक को दूसरे से पृथक करना लोकतंत्र के अत्यावश्यक उद्देश्य को विफल करना है…समानता के बिना, स्वतंत्रता से कुछ लोगों का प्रभुत्व बहुत से लोगों पर हो जाएगा। स्वतंत्रता हीन समानता व्यक्तिगत प्रयास को समाप्त कर देगी। भाईचारे के बिना,स्वतंत्रता और समानता सहज परिघटना नहीं बन पाएगी। इन्हें लागू करने के लिए एक सिपाही की आवश्यकता होगी। आज क्या हम सिपाही बनकर देश के लिए समर्पित हो जाने के लिए तैयार हैं, सवाल यह है। सवाल यह है कि क्या हम अपनी लालच को दूर कर राष्ट्र में समता के सिद्धान्त को लाने के लिए सच्चे मन से दृढ़-संकल्पित हैं? क्या भ्रष्टाचार जैसी जोंक से भारत को दूर करने के लिए तैयार हैं? दूसरी बात यह बाबासाहेब ने कहा कि बहुसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को नकारना गलत है। अल्पसंख्यकों के लिए स्वयं को ऐसा ही बनाए रखना भी उतना ही गलत है।

हमारी सोच में इस प्रकार बुनियादी बदलाव की आज मांग है जिसे स्वीकार करना पड़ेगा और ऐसा न करना बाबासाहेब का अपमान है। आज अनेकों चुनौतियाँ हैं जिसे ठीक करने की आवश्यकता है लेकिन यदि हम भारत को सम्पूर्ण स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ने के आग्रही हैं तो हमें अपने भारत को ताकतवर बनाना होगा और इसमें अपने-अपने हिस्से की सबकी इच्छाशक्ति मजबूत होने की आवश्यकता है। संविधान हमें यह बताता है कि हम गैर-राजनीतिक होकर बिना किसी द्वेष-भाव से सबका सम्मान करें और सबके सम्मान हेतु सह-अस्तित्व की कामना करें। हमारे लिए संविधान दिवस एक अवसर है कि हम जो खो रहे हैं उसे सजो लें और जो अभी तक अप्राप्य है उसे संविधान के दायरे में रहकर प्राप्त कर लें। भविष्य में जब कभी भी भारत दुनिया के मानचित्र पर अपनी अहम भूमिका सुनिश्चित करेगा तो एक बात मानकर चलें कि भारत के लिए उसका संविधान और लोकतंत्र ही सबसे ज्यादा सहयोगी साबित होने वाले है।


पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 मध्य प्रदेश
मो. 9818759757 इमेल: [email protected]


 

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