कविता :  जब माता पिता नहीं रह जाते हैं

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

किसी की अकस्मात मृत्यु

बहुत ही पीड़ादायक होती है,

एक पुत्र माता पिता के न रह

जाने पर उनको कैसे खोजता है,

उसकी मन:स्थिति उसे कैसे

अविचलित व्यक्त करती है।

स्वप्न बहुत ही अनोखे और

विस्मयकारक भी होते हैं,

अक्सर अपने न रहने के बाद

अपनो को स्वप्न में दिख जाते हैं,

ऐसे ही स्वप्न में अक्सर संतानों

को दिवंगत माता पिता भी आते हैं ।

 

पिता जी कालोनी में हर किसी

के काम से बिना रुके चल देते थे,

चलो कुछ देर उन्ही गलियों में मैं भी

टहल आता हूँ, जैसे वो जाते थे,

सुबह शाम भरी दोपहरी में कॉलोनी

की गलियो में जहाँ पापा ज़ाते थे।

रोज़ का जूनूनी नियम था उनका

सुबह सुबह दूर तक टहलने जाना,

चलो आज पापा को ढूंढ लाता हूँ,

उनसे बिछड़े हुए कई दिन हो गये,

शायद कॉलोनी के किसी मोड़ पर,

किसी गली में घूमते नज़र आ जायँ।

माँ दुर्गा स्तुति

किसी पड़ोसी से गुफ्त्गू में नज़र आयें,

पापा कॉलोनी के एक छोर से लेकर

अंतिम छोर तक टहलने जाया करते थे,

शायद किसी सड़क पर या गली

में धीरे धीरे घूमते नज़र आ जायें,

कॉलोनी के सभी लोग उन्हें जानते थे।

 

उनकी धीरे धीरे टहलने की आदत से,

कालोनी का हर शख़्स परिचित था,

जिस दिन पिता जी नहीं दिखाई देते थे,

फिक्र हो जाती थी कॉलोनी वासियों में,

थक गया हूँ मैं उन्हें ढूंढ़ते ढूंढ़ते अब

पूछूं भी तो किससे पूछूँ उनका पता।

 

आपने देखा क्या अपने मित्र, मेरे

पापा को, यहाँ से आते जाते हुये,

दूर दूर तक कहीं कोई कदमों

के उनके निशाँ भी तो ही नहीं हैं,

वो अब कहीं भी दिखते ही नहीं हैं,

कहीं उनका नामो-निशाँ ही नहीं है।

 

इन सूनी पड़ी सभी गलियों में किसी

अपने को ट्रेन में तलाशने की तरह,

जैसे ट्रेन के हर डिब्बे हर खिड़की में

झांक झाँक कर खंगाला जाता है,

कि वैसे ही पापा कहीं दिख जायें,

मगर केवल निराशा ही हाथ लगी।

 

किसी प्यासे हिरण की तरह

मृगमरीचिका ही हाथ लगी,

पापा नहीं मिले निराशा मिली,

अपने मन को बहुत समझाया,

पर दिल ये मानने को तैयार है नहीं,

कि पापा अब इस दुनिया में हैं नहीं।

कविता : वक्त का बदलता मिज़ाज है

 

जो सड़कें व गलियाँ सुबह शाम

उनकी चहलकदमी की आदी थीं,

अब बिलकुल सूनी जैसी पड़ी हैं,

आदित्य सन्नाटा है अब मोहल्ले में,

वो दुनिया से भी रुखसत कर गये,

शांत स्वभाव वाले सारी रौनक ले गये।

 

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