भाजपा को नहीं चाहिए कायस्थ, लेकिन समाज नहीं समझ रहा, पिछलग्गू बनने को तैयार

राजेश श्रीवास्तव


लखनऊ । वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव संपन्न होने हैं और उत्तर प्रदेश में आगामी दिनों में निकाय चुनाव का शंखनाद हो चुका है। इन चुनावी बेला में हर समाज के लोग अपनी-अपनी हिस्सेदारी को लेकर आश्वस्त है और वह जानते भी है कि भारतीय जनता पार्टी उनको तरजीह देगी। बस केवल एक समाज ऐसा है जिसे मालुम है कि उसकी कोई सुनवाई नहीं होनी है। सबसे ज्यादा जातीय संगठन होने के बावजूद कायस्थ राजनीतिक रूप से हाशिये पर पड़ा है।  चाहे MLC चुनाव हों या फिर निकाय चुनाव में मेयर प्रत्याशियों के ऐलान के संबंध में। हर जगह से कायस्थ समाज को सिर्फ मायूसी ही मिलती है। भाजपा को कायस्थ समाज का केवल वोट चाहिए उसे हिस्सेदारी देने से भाजपा कतराती है। क्या कायस्थ भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में फिट नहीं बैठते हैं।

तकरीबन दो साल पहले लखनऊ में भी कायस्थों के प्रतिनिधत्व को लेकर जगह-जगह पोस्टर लगाए गए थे, जिसमें लिखा गया था ‘कायस्थों अब तो जाग जाओ, या फिर हमेशा के लिए सो जाओ’ एक तरह कायस्थ जाति यूपी में अपना खोया स्थान मांग रही है तो दूसरी तरफ केंद्र की राजनीति से कायस्थों का सफाया हो रहा है। गौरतलब है कि कायस्थ लंबे समय से बीजेपी के परंपरागत वोटर माने जाते रहे हैं। यूपी में तकरीबन चार फीसदी कायस्थ वोटर हैं, जो बीजेपी के साथ मजबूती के साथ जुड़े हुए हैं। गोरखपुर, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर और इलाहाबाद सहित तमाम यूपी के बड़ों शहरों में कायस्थ समुदाय का अच्छा खासा दबदबा है। कायस्थों की यह संख्या यूपी में किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है। हाल के भाजपा के राजनीतिक घटनाक्रम देखतें तो पता चलता है कि बीजेपी की सोशल इंजीनियरिग में कायस्थ पॉलिटिक्स फिट नहीं बैठ रहा है। मोदी कैबिनेट से रविशंकर प्रसाद से पहले शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिन्हा, यशवंत सिन्हा की भी पार्टी से विदाई हो चुकी है।

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बीजेपी के पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा पार्टी में हाशिए पर रहने के कई साल बाद खुद ही पार्टी से नाता तोड़ लिया या अन्य दलों का दामन थाम लिया। शत्रुध्न सिन्हा ने जहां कांग्रेस का दामन थामा वहीं, यशवंत सिन्हा आम आदमी पार्टी की विचारधार से प्रभावित होने के बाद बंगाल चुनाव से ठीक पहले टीएमसी में शामिल हो गए। 90 के दशक से ही यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और रविशंकर प्रसाद बीजेपी में कायस्थ समुदाय का प्रतिनिधत्व करते आ रहे थे। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी आलाकमान ने 75 वर्ष उम्र के फार्मूले के कारण यशवंत सिन्हा को टिकट नहीं दिया था। पार्टी ने यशवंत सिन्हा की जगह उनके पुत्र जयंत सिन्हा को झारखंड के हजारीबाग से टिकट दिया। जयंत सिन्हा चुनाव जीते भी और बाद में केंद्र में मंत्री भी बने, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भी जयंत सिन्हा को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिला।

बीजेपी में कायस्थ राजनीति समझने के लिए पीछे जाना होगा। कायस्थ जाति पढ़ाई-लिखाई में आगे रहने के बावजूद यह नहीं समझ पाया कि लोकतंत्र में विद्बता से अधिक महत्वपूर्ण है वोट की ताकत। 1952 के बिहार विधानसभा के चुनाव में कायस्थों विधायकों की संख्या 40 थी। बिहार के 2010 के विधान सभा चुनाव में यह संख्या घट कर चार और बीते विधानसभा चुनाव में भी यह संख्या सिगल डिजिट से आगे नहीं बढ़ पाई। कायस्थों के पारिवारिक रिश्ते यूपी-बिहार से होते हैं। बीते बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कायस्थ राजनीति को समझते हुए वहां पर एक कायस्थ विधायक नितिन नवीन को मंत्री बना दिया। वोट की राजनीति में संख्या बल में कम होने के बावजूद शिक्षित वर्ग में कायस्थों का अपना महत्व रहा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी कायस्थों का एक बड़ा वर्ग शामिल है।

बीजेपी को छोड़ बिहार-यूपी के दूसरे दलों में भी कायस्थों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिहार में कृष्णवल्लभ सहाय पहले नेता थे, जो 1963 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। कृष्णवल्लभ सहाय के बारे में कहा जाता है कि वह बिहार के सबसे अच्छे प्रशासनिक मुख्यमंत्री थे, लेकिन उसी दौर में राममनोहर लोहिया का गैर कांग्रेसवाद बिहार में तेजी पर था और 1967 के चुनाव में उनकी हार हो गई। बाद में एक और कायस्थ नेता महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने। यह बिहार में कायस्थों का आखिरी बड़ा ओहदा था। कायस्थ वोटर भाजपा से दूर हो रहे है। यह सवाल राजनीतिक गलियारे में इसलिये भी तैर रहा है क्योंकि मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस तथा कायस्थ बाहुल्य प्रयागराज में स्नातक निर्वाचन में पार्टी की हार के संकेत यही कहते हैं। लेकिन इसके बावजूद बीजेपी चिंतन करने को तैयार नहीं है। कायस्थ नाराज है क्योंकि भाजपा में उन्हें पर्याप्त सम्मान एवं पद नहीं मिल रहा है। यह बात भाजपा नेतृत्व को अभी समझ नहीं आ रही है, लेकिन अगर कायस्थ नेताओं को सम्मान नहीं मिला तो इसका असर शहरी तथा कायस्थ बाहुल्य दर्जनों सीटों पर दिख सकता है। अब देखना है कि निकाय चुनाव में क्या होता है।

निकाय चुनाव में लखनऊ, गोरखपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और कानपुर सीट से मेयर पद के लिए कायस्थ प्रत्याशी की उठ रही मांग निकाय चुनाव में कायस्थ प्रत्याशी को महापौर पद का टिकट दिये जाने के लिए कायस्थ प्रत्याशियों की मांग तेज हो गयी है। क्योकि गोरखपुर, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर और इलाहाबाद सहित तमाम यूपी के बड़ों शहरों में कायस्थ समुदाय का अच्छा खासा दबदबा है। कायस्थों की यह संख्या यूपी में किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है। रविवार को लखनऊ में कायस्थ प्रत्याशी के रूप में ज्योत्सना श्रीवास्तव को मेयर पद का प्रत्याशी बनाने की मांग उठी। लेकिन भाजपा इसके प्रति कितनी गंभीर है, यह इसी से पता चलता है कि तीन दर्जन के करीब कायस्थ बुद्धिजीवी अपनी मांग का ज्ञापन देने के लिए लखनऊ के एक भाजपा नेता का इंतजार करते रहे फिर उन्हें ज्ञापन देने कैसरबाग स्थिति कार्यालय तक पहुंचे लेकिन उन्होंने इस बैठक में आना उचित नहीं समझा।

दर्जन भर कायस्थ संगठन,लेकिन सब हाथीं के दांत

दिलचस्प यह भी है कि कायस्थ संगठनों की कमी नहीं है। अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, जिसके छह फाड़ हो चुके हैं। चित्रांश महासभा, कायस्थ संघ अंतर्राष्ट्रीय, चित्रांश वंशज महासभा, राष्ट्रीय कायस्थ संगठन समेत दर्जन भर कायस्थ संगठन हैं। इनमें से कई संगठनों के नेता भी आपको समाज की लड़ाई लड़ते दिखायी पड़ जायेंगी। लेकिन कई बार आपसी सिर-फुटौव्वल सरेआम दिख जाती है। इसी के चलते कोई बड़ा नेता नहीं बन पाया। भाजपा भी जानती है कि इस समाज के लोग बुद्धिमता के चलते एकजुट नहीं हो सकते। इसी का लाभ भाजपा भी उठा रही है।

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