डॉ. वैदिक की विलक्षण पत्रकारिता

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री


विख्यात पत्रकार डॉ वेद प्रताप वैदिक से बहुत कुछ सीखने समझने का अवसर मिला। कम शब्दों में किसी विषय के व्यापक विशेषण में उन्हें महारथ हासिल थी। शब्दों के अनुशासन पर सहज स्वाभाविक अमल करते थे। उनके लेख और पत्रकारिता सम्बन्धी रिपोर्ट गागर में सागर की भांति होती थी। तीन चार सौ शब्दों में ही वह किसी विषय का सम्पूर्ण विश्लेषण करने में सिद्धहस्त थे।उनकी अनेक रिपोर्टों को शोध पत्र की श्रेणी में स्थान मिला। उन्होने अपने लेखन को दुरूह ,जटिल नहीं बनाया। विद्वता का प्रदर्शन नहीं किया। लेखन में सहजता थी। बोधगम्य भाषा शैली। यही कारण था कि उनके विचार समाज के सभी वर्गों तक पहुँच जाते थे। इसमें सत्ता शीर्ष के लोगों से लेकर ज़न सामन्य तक शामिल थे। उनका लेखन पुस्तकालय और अकादमिक संगोष्ठी तक सीमित नहीं रहा।

वह विद्वान थे। उनका अध्ययन चिंतन मनन और लेखन आजीवन चलता रहा। निधन से कुछ घण्टे पहले ही उन्होंने पाकिस्तान की दशा पर लेख लिखा था। वहाँ के विदेश मंत्री विलावल भुट्टो को आईना दिखाने का कार्य किया था। कश्मीर पर बिलावल भुट्टो की निराशा, शीर्षक वाला उनका लेख मंगलवार की सुबह देश के अनेक अखबारों में प्रकाशित हुआ था। फिर उनके निधन का समाचार आया। इसके पहले पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव, राहुल गांधी के बयान चीन ,ईरान सऊदी अरब की दोस्ती जैसे विषयों पर उन्होंने सामयिक और बेबाक लेख लिखे थे। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अफगान अंतरराष्ट्रीय मामलों में अध्ययन के साथ वैदिक जी ने मॉस्को में इंस्टीट्यूट ऑफ पीपल ऑफ एशिया और लंदन के स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से भी पढ़ाई की थी।

उन्होंने पचास से अधिक देशों की यात्रा ही नहीं की, उन देशों के समाज और राजनीति पर उनका गहरा अध्ययन था। डॉ. वेदप्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसंबर 1944 को इंदौर में हुआ था। वह रूसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत के जानकार थे। वैदिक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की थी। वे भारत के ऐसे पहले विद्वान थे, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा था। मातृभाषा हिंदी के सम्मान के आजीवन पक्षधर रहे। गंभीर विषयों की व्याख्या भी वह सरल शब्दों में करते थे। वह लिखते हैं कि जब मैं पहली बार चीन गया तो चीन के विद्वान और नेता मुझे ‘इंदुरैन’ ‘इंदुरैन’ बोलते थे। यों तो भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त या भारत या भरतखंड ही है। मैंने वेदों, दर्शनशास्त्रों, उपनिषदों, आरण्यकों, रामायण, महाभारत या गीता में कहीं भी हिंदू शब्द कभी नहीं देखा।

इस शब्द का प्रयोग तुर्की, पठानों और मुगलों ने पहले-पहल किया। वे सिंधु नदी पार करके भारत आए थे, इसलिए उन्होंने इस सिंधु-पर क्षेत्र को हिंदू कह दिया। भारतीयों ने विदेशियों या मुसलमानों द्वारा दिए गए इस शब्द को स्वीकार कर लिया, क्या यह हमारी उदारता नहीं है। ऐसे में विदेशी मजहबों के मानने वालों को अपना कहने में हमें एतराज क्यों होना चाहिए। दुनिया में पाकिस्तान ही एक मात्र देश है, जो मजहब के आधार पर बना है। पाकिस्तान की ज्यादातर परेशानियों का कारण भी यही है। भारत का निर्माण या अस्तित्व किसी धर्म, संप्रदाय, मजहब, वंशवाद या जाति के आधार पर नहीं हुआ है। गांधीजी इसे ही सर्वधर्म समभाव कहते थे। इसे आधार बनाएं तो फिर राष्ट्रवादिता से कोई भी अछूता नहीं रह सकता। डॉ वैदिक ने बादशाह खान से मुलाकात का उल्लेख किया। इसमें पचास  साल पहले उन्होने  काबुल में कहा था कि मैं पाकिस्तानी तो पिछले करीब बीस साल से हूं, मुसलमान तो मैं हजार साल से हूं, बौद्ध तो मैं ढाई हजार साल से हूं और आर्य-पठान तो पता नहीं, कितने हजारों वर्षों से हूं। यदि इस तथ्य को सभी भारतीय स्वीकार करें तो सोचिए, हमारा राष्ट्रवाद कितना सुदृढ़ होगा। डॉ. वैदिक हिन्दी के प्रबल समर्थक थे।

जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपना शोधपत्र हिन्दी में जमा किया। इसके लिए उन्हें जेएनयू प्रशासन से संघर्ष करना पड़ा। विश्वविद्यालय चाहता था कि वह अपना शोधपत्र अंग्रेजी में लिखकर जमा करें। लेकिन डॉ वैदिक नहीं माने और इसके लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। अंत में जेएनयू प्रशासन को झुकना पड़ा और उनका शोधपत्र हिन्दी में ही जमा हुआ। इस कार्य में उनको पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित अन्य नेताओं ने भी सहयोग दिया था। उनके इसी संघर्ष के बाद देश में उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। उन्होने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष किया।

उन्होंने 1957 में सिर्फ 13 साल की उम्र में हिन्दी के लिए सत्याग्रह किया और पहली बार जेल गए। इसके बाद उन्होंने 1958 से पत्रकारिता की शुरुआत की। डॉ. वैदिक देश के बड़े पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक थे। उन्होंने नवभारत टाइम्स और प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया जैसे मीडिया संस्थानों में काम किया। इसमें रहते हुए उन्होंने हिंदी में भाषा नामक एजेन्सी को स्थापित किया। डॉ. वैदिक को मीडिया और भाषा के क्षेत्र में काम करने के लिए कई सम्मानों से नवाजा गया। जिनमें विश्व हिन्दी सम्मान महात्मा गांधी सम्मान दिनकर शिखर सम्मान, पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण-पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार, हिन्दी अकादमी सम्मान, लोहिया सम्मान, काबुल विश्वविद्यालय पुरस्कार, मीडिया इंडिया सम्मान, लाला लाजपतराय सम्मान आदि शामिल हैं।

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