मानवाधिकार कैसा जिसमें दलित उत्पीड़न…इंसाफ कब?

राकेश कुमार राज


अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर पर प्रस्तुत  दलित जिन्हें आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति कहा जाता है भारत की जनसंख्या के लगभग 16 प्रतिशत है। लेकिन भारत के सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता और मूलभूत मानवाधिकार और नागरिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले संविधान को अपनाने के 75 वर्ष बाद भी दलितों के प्रति भेदभाव जारी है जहां देश भर में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, वहीं दलितों के प्रति भेदभाव जारी है। हम मानव एक निश्चित गुणसूत्र संख्या के साथ पैदा होते हैं । हम सब की मूलभूत आवश्यकताएं भी एक सी है। इसलिए मानव के रूप में जन्म लेते ही मानवाधिकार हमें मिल जाने चाहिए फिर चाहे हम किसी भी समाज का हिस्सा क्यों ना हो हम सभी में प्रेम और सम्मान पाने की एक सी लालसा होती है । हम सबकी आंखों में शिक्षा और रोजगार के समान अवसर के स्वप्न भी एक से हैं। हमारी भूख और प्यास एक है फिर भी जन्म से मृत्यु तक लगातार रंग,जाति और धर्म ,लिंग के आधार पर मूलभूत मानवीय गरिमा का हनन किया जाता है।

सवाल यह है कि हम कहां पैदा होंगे, हमारी चमड़ी का रंग कैसा होगा, हम यह तय नहीं करते। हमारे माता-पिता कौन होंगे और लिंग जाति और धर्म क्या होगा। यह सब हम तय नहीं करते लेकिन इनके कारण हमारे मानवाधिकार कम नहीं होते ।यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस विभेद की प्रक्रिया ने वंचितों के मानवाधिकार का गंभीर हनन किया है। इन्हीं वंचितों की श्रेणी में हमारा दलित समाज है। अस्पृश्यता, व्यक्ति और समुचित समुदाय के प्रति हिंसा, महिलाओं के साथ अत्याचार और आमतौर पर भेदभाव व अपमान लगभग अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए रोज की बात है।3 दिसंबर 2022 को कर्नाटक की कोलार में रोड रेंज के बाद दलित युवक की पेड़ से बाध कर पिटाई की गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई। रूप नगर ,अजमेर राजस्थान में दलित ओमप्रकाश रैगर ने फांसी लगाकर सुसाइड किया, सुसाइड नोट में पुलिस और पूर्व सरपंच पर गंभीर आरोप लगाए। 26 जुलाई 2022 को शाजापुर मध्यप्रदेश में 12वीं क्लास की दलित छात्रा को दबंगों ने स्कूल जाने से रोका । 25 नवंबर 2022 को बिहार के अरवल में मां, बेटी को जिंदा जला दिया जाता है। 13 नवंबर 2022 को थुडुकुली, कनार्टक में थेवर जयंती पर पोस्टर फाड़ने पर दलित युवक को जान से मार डाला जाता है।

तमिलनाडु में ही एक दलित छात्रा द्वारा फीस जमा न कर पाने पर 3 दिन स्कूल के बाहर किया गया जिससे छात्रा ने जलील होकर फांसी लगा ली। 6 नवंबर 2022 को दलित युवक को अमरुद के बाग में जाने पर हत्या कर दी गई । जोधपुर में हैंडपंप पर पानी पी लेने पर दलित युवक की हत्या कर दी जाती है। 1 दिसंबर 2022 को अंबेडकरनगर में दो पुलिस वालों ने दलित युवक को पीट-पीटकर मार डाला। जालौर राजस्थान में दलित छात्र की पिटाई की गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई।यह एक उदाहरण मात्र है देखा जाए तो इस प्रकार की कितनी घटनाएं हैं जो कि संज्ञान में नहीं है।उत्तर प्रदेश में 2019 में 11829 दलित उत्पीड़न के मामले 2020 में 12714 मामले आए । बिहार में 2019 में 6544 मामले, 2020 में 7368 मामले आए। यदि सारे राज्यों में दलित उत्पीड़न मामले देखे जाए तो लगभग लाखों मामले होंगे जो संज्ञान में नहीं है।यह सब बताना इसलिए उचित समझा कि उपरोक्त घटनाएं दलितों के साथ हो रहे गैर वाजिब व्यवहार को स्पष्टता के साथ इंगित करती है । एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि निचली जातियों (दलित और आदिवासी समूह) की महिलाओं को अधिक हिंसा और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाए झेलनी पड़ती है। दलित एवं आदिवासी समूहों के खिलाफ इस तरह की आक्रामक हिंसा के पीछे प्रोत्साहन,धार्मिक रवैया और कुप्रथा से उपजा है,जो सामाजिक वर्गीकृत असमानता को बनाए रखता है ।लेकिन प्रश्न यह है कि कब तक इतना अत्याचार दलितों पर होंगे ?भारत 1947 में राजनीतिक रूप से आजाद हो गया परंतु सामाजिक आजादी कब मिलेगी? दलितों को इंसाफ कब मिलेगा ?

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भारत की जनसंख्या में लगभग अधिकतर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग भूमिहीन मजदूर हैं। अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून के बावजूद इनके मानवाधिकारों का हनन होता आया है और हो रहा है। संविधान द्वारा पाए अधिकार को समाज बड़ी निर्ममता से छीन एवं कुचल रहा है और सत्ता, पुलिस, न्याय व्यवस्था आज भी लगभग चुप ही है। घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए कार्रवाई करनी चाहिए वैसा नहीं कर रहे हैं ।आज भी हरियाणा ,आंध्र प्रदेश, गुजरात ,उड़ीसा, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में अस्पृश्यता का प्रचलन है। जाति एक प्रकार की सामाजिकअधिनायकवाद के रूप में जाति हिंसा और लिंग हिंसा के लिए भी जिम्मेदार है।मानवाधिकारों के संदर्भ में जो भी सरकारी प्रयास हुए है वे लागू करने के स्तर पर एकदम विफल रहे हैं।उत्पीड़न निरोधक कानून के पूर्णतः लागू न होने के चलते अत्याचार बढ़ता ही गया है। आज से नहीं पिछले पांच दशकों से जब से उत्पीड़न विरोधी कानून आए हैं इन कानूनों को इस्तेमाल सही ढंग से नहीं किया गया । एक वजह और भी है और वह है ऊपरी अदालतों तक गांव के शोषित दलित की पहुंच न हो पाना। इसका लाभ भी शोषण करने वालों को मिला है । ऐसा नहीं है कि आज भी दलित समाज के मानवाधिकारों को लेकर जागरूकता नहीं है । 10 वर्ष पहले तक ऐसा नहीं था पर देश भर में में पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय की जो राजनीतिक स्थिति रही है उससे बहुत ज्यादा जागरूकता आई है। इसकी सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव, न तो राज्य विधान सभाओं में है और न ही देश की संसद में है। इसकेअलावा जिन्हें इस दिशा में कुछ जिम्मेदारी सौंपी गई है उन्होंने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया है।दलित जाति में जन्म लेने के कारण विशिष्ट ऐतिहासिक प्रक्रिया द्वारा प्रदत्त भेदभाव, पिछड़ापन और बहिष्कार छुआछूत का व्यवहार और हिंसा हमेशा प्रभुत्वशाली जातियों द्वारा दलितों के खिलाफ सामाजिक नियंत्रण और दमन के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते रहे और आज भी किए जा रहे हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता का संवैधानिक उन्मूलन कर दिया गया है। इसे मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम 1955 एवं 1976 के प्रावधानों के ज़रिए और सशक्त बनाया गया है जिसमें कुछ मुख्य प्रकार के व्यवहारों पर दंड दिए जाने का प्रावधान है ।इसके कमियों को पूरा करने के लिए अनुच्छेद 15 और 16 के तहत सार्वजनिक स्थानों और सार्वजनिक रोजगार तक दलितों की पहुंच में जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है ।ऐसा नहीं है कि राज्य और उसके तंत्र के पास अपराधियों को दंड देने या पीड़ितों को न्याय देने की शक्तियां नहीं है। हमारे गणतंत्र के लागू होने के समय ही इसके लागू करने वालों ने संविधान के अनुच्छेद 17 में छुआछूत को अपराध घोषित किया जिससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों की प्रतिष्ठा और उनके लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षित हो सके। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक्ट 1989 में तो कुछ अपराधों के लिए मृत्युदंड तक दिए जाने की व्यवस्था है लेकिन यह सब कागज पर है और इनमें वैधानिक प्रावधानों को लागू करने की इच्छा शक्ति मर चुकी है। दलितों के साथ हो रही घटनाओं के बावजूद सरकार ने इन पर चुप्पी साध रखी है।

कानून और व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि तथाकथित कानून की रक्षक एजेंसियां अदालतों को भी असहाय बना दिया है। शीर्षस्थ प्रशासनिक अधिकारियों और कानून की रक्षक एजेंसियां को हजारों निर्देश दिए गए हैं जिन पर कोई कार्यवाही नहीं की गई । क्या हम यह कहने के लिए मजबूर होंगे कि दुर्भाग्यशाली भारतीयों जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित है के लिए यह शर्मनाक हादसा और भाग्य की विडंबना ही कही जाएगी कि उन्हें अपने ही देशवासियों के हाथों अमानवीय और बर्बरता पूर्ण व्यवहार झेलना पड़ता है। कभी उनकी औरतों को नंगे सड़कों पर घुमाया जा रहा है और उनके बच्चे जानवरों की तरह मारे जा रहे हैं तो कभी उनकी संपत्ति और घर जला दिए जा रहे हैं। राज्य और उसका तंत्र या तो असहाय मूकदर्शक या निकृष्टतम सक्रिय सहयोगी की भूमिका निभा रहा है। क्या मानवाधिकार दिवस पर यही तक समाज एवं सरकार की सोच है कि इस पर चर्चा- परिचर्चा करके यूं ही समाप्त कर दिया जाएगा। इस पर समाज के लोगों और प्रशासन को सोचना होगा ,एक मजबूत प्रशासनिक कड़ी बनानी होगी जिससे इनकी रक्षा की जा सके ।अब देखना है सरकार इस पर कहां तक विचार करती है?

भारत सरकार को इस पर दोबारा विचार करनी चाहिए और हमें कहना ही होगा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को स्वीकार करना चाहिए कि जाति प्रथा जो सभी अपराध की जननी है अपने आप में एक संस्थान बन गया है ।बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का स्रोत है। समस्त मानव जाति स्वतंत्र पैदा होती है और मानवीय गरिमा और अधिकारों के मामले में सभी समान होते हैं ।सबके पास विवेक और अंत:करण होता है। लिहाजा सब को एक दूसरे के साथ भाईचारे का व्यवहार करना चाहिए। भारत भर में राज्य द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन और उनकी सुनवाई की संभावना गरीबी तय करती है। ऐसी कितने ही मामले हैं जिनमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रुप से दबंग लोगों के साथ मिलकर पुलिस अधिकारी मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते हैं। क्या अब मानवाधिकार दिवस पर सिर्फ यह चर्चा- परिचर्चा तक सीमित है ? चर्चा के उपरांत तालियां बजाने भर से भारत प्रगतिशील समाज नहीं बना सकता और न ही विश्व गुरु बन सकता है अब हम उस दौर में प्रवेश कर गए हैं कि जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता तक की जिम्मेदारी भी निभाने जा रहे हैं। यदि दलितों के प्रति सोच इसी प्रकार रही तो आने वाले समाज को क्या उत्तर देंगे ? क्या हम विश्व गुरु बन पाएंगे? भारत हमेशा से सामाजिक व राजनीतिक रूप से जो विश्व का नेतृत्व किया हैं क्या उस पर प्रश्न चिन्ह तो नहीं लगेगा? अब समय आ गया है कि इस पर विचार किया जाये।

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