सम भाव मे रहने का रहस्य
कर्म,ज्ञान भक्ति योग… क्या है?
गीता मे प्रबंधन
इंसान का जीवन भी बड़ा गूढ़ है,जिसमे भविष्य का बिल्कुल पता नहीं होता,फिर भी भविष्य की योजनाएं गढ़ता है। यह सच है प्लानिंग करनी चाहिए.. वर्तमान की तरह भविष्य की प्लानिंग बने,योजनायें तय हों… बजट निर्धारित हो.. लक्ष्य लेकर चले। पर उसे हासिल करने मे किन किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा,हमें पता नहीं। उनका सामना धैर्य से करना होगा। “सुख दु:खे समे कृत्वा लाभा लाभौ जया जयो।” सम भाव मे रहने का अभ्यास करना होगा। भरसक कोशिश करो पूरे दिल व दिमाग से लक्ष्य पाने की कोशिश करो। परंतु परिणाम पर इतनी आसक्ति न हो कि अनैतिक तरीके से करने लगो या परिणाम विपरीत मिलने पर अपने आपको संभाल न सको और डिप्रेसन मे चले जाओ। तब श्री कृष्ण ने गीता मे कहा “कर्मण्येवा धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कर्मफल हेतुर्भूत् मा ते संगोस्त्वकर्मणि” तेरा कर्म करने मे अधिकार है,फल पाने मे नहीं। अपेक्षित परिणाम न मिलने का अनुमान कर कर्म न करने मे तेरी प्रवृत्ति न हो। फल मै देता हू। जो मिले उसे शिरोधार्य कर ले अगली बार फिर कोशिश कर। कार्य की समीक्षा करते चलो… चूक कहां हुई?
महाभारत युद्ध के पूर्व जहां तक संभव हुआ दौनो पक्ष में समझौते की कोशिश हूई… कृष्ण स्वयं दूत बन कर गए। परंतु बिना युद्ध के समस्या हल होता न देख.. युद्ध स्वीकार किया। भोजन का प्रबंधन जिस राजा को दिया वह उतना ही भोजन बनाता था,जितने सेनानी बच रहते थे। यह भोजन मैनेजमेंट था। श्रीकृष्ण ने मदद भी की और नहीं भी की। अर्जुन के लिए अस्त्र नहीं उठाया… सिर्फ सारथी बने। अपनी नारायणी सेना दुर्योधन को देकर उसे भी संतुष्ट कर दिया।
यह भी सिद्ध हुआ…”बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।” श्रीकृष्ण ने सिर्फ बुद्धि लगाई.. सुदर्शन चक्र नहीं उठाया। सम भाव मे रहने और योगी की भांति कुरुक्षेत्र के समरांगण मे युद्ध करने का अट्ठारह दिनों का संदेश ,आजीवन संसार समरांगण मे युद्ध जैसा ही तो है। भारत का स्वातंत्र्य संग्राम जीतने के लिए सभी बड़े राजनीतिज्ञ गीता की शरण मे गए। क्यों कि गीता जीवन दर्शन है। सिर्फ कौरवों और पांडवों के युद्ध पूर्व का वक्तव्य मात्र नहीं। निष्काम कर्मयोग,ज्ञान योग और इन दोनो की मदद से भक्तियोग साध कर ईश्वर की भी प्राप्ति कर लेना रहस्य मय सिद्धांत है। इसमें सामान्य गृहस्थी हो या विद्वान अथवा संन्यासी सबको दिशा मिल जाती है।