- शरणागति ही एक मात्र उपाय
- अहंकार सात्विक भी होना बुरा
- तीनों गुणों से परे होने का स्वभाव बने
- प्रारब्ध भोगे बिना निर्मल नहीं होंगे
जीवन में सुख दुख का आना प्रारब्ध भोग है। भजन से शांति मिलती है। उपासना,पूजा पाठ,सत्संग- वह अभ्यास है,जिससे धर्म करने की प्रवृत्ति बनेगी। सत्संग और स्वाध्याय से वैचारिक परिवर्तन होना चाहिए। यदि भावनात्मक सुधार नहीं हो रहा ,चिंतन व्यापक नहीं होरहा.. दायरा संकुचित बना है,तो प्रयास अधूरा है। दिल से लगिये औपचारिकता में संतुष्ट न होईये। “बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग। मोह गए बिनु राम पद होई न दृढ़ अनुराग।” मोह जाने पर भगवत चरण में अनुराग होगा। इसके पहले नहीं।
एक बार एक संत का चरण दबाने का सौभाग्य मिला। वे एक सिद्ध मपुहारुष थे। बोले जो सेवा कर रहा है,वह सुख देरहा है,अर्थात् मेरा पुण्य लेरहा है। जो मुझे गाली देरहा और अपमानित कर रहा, वह मेरा पाप ले रहा है, जिसका परिणाम उसे दुख मिलेगा साथ ही उसके गाली देने या अपमानित करने से मुझे पीड़ा होती है तो यह हमारा प्रारब्ध भोग हुआ। संत अपने पाप और पुण्य दोनों से मुक्त होंगे तो पवित्र होजाएंगे, तभी न परमात्मा के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे?
जिस तरह साबुन कपड़े की गंदगी दूर करता है, किंतु साबुन का झाग कपड़े में रह जाय तो कपड़ा स्वच्छ नहीं कहलायेगा। उसी तरह पाप हो या पुण्य दोनों बचे रह गए तो परम निर्मल प्रभु के चरणों की शरण कैसे पाएंगे? यह ठीक है तमोगुण बढ़े तो कीर्तन करने लगे तो यह रजोगुण ,तमोगुण को खत्म करेगा। नींद आलस्य जंभाई भाग जाएगी। पर जोर जोर से कीर्तन करने की एक सीमा है। कुछ देर बाद मन शांत होगा तो ईश्वर का चिंतन होगा, ध्यान होगा।
इस तरह सतोगुण बढ़ेगा और रजोगुण का शमन होगा। अंततः सतोगुण भी शान्त होना चाहिए। यह निरहंकारिता और शरणागति से होगा। ध्यान करने का भी अहंकार नहीं होना चाहिए। सूक्ष्म अहंकार भी काम खराब करता है। सत्संगी होने का भी अहंकार बुरा है। पूर्ण समर्पण होने पर ही निरहंकारिता आएगी। यही उत्तम स्थिति है। भगवान के सेवक की पात्रता तभी आएगी।