रिश्तों की इस नई पहेली की गंभीरता समझिए

अनिल भास्कर


लखनऊ। मानव सभ्यता में सदियों से स्त्री और पुरुष की पूर्णता का सामाजिक संस्कार माने जाने वाले वैवाहिक बंधन का महात्म्य भौतिकवाद के नए क्षितिज पर पहुंचकर किस तरह दरकने लगा है, इसे हाल के दो मामलों के संदर्भ में समझना जरूरी प्रतीत होता है। पिछले दिनों खबर आई कि टीवी जगत की व्यस्त अदाकारा कनिष्का सोनी ने स्वविवाह कर लिया। तब उन्होंने सोशल मीडिया पर इसकी जानकारी साझा करते हुए कहा था कि वह खुद को सबसे ज्यादा प्यार करती हैं और शादी उसी से करनी चाहिए जिसे आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। यह भी कि पुरुषों के साथ उनके अनुभव उन्हें उनपर भरोसा करने की इजाज़त नहीं देते। साथ ही, वह आत्मनिर्भर हैं और अपने सपने पूरे करने के लिए उन्हें किसी और की जरूरत नहीं। लिहाजा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीना चाहती हैं।

कनिष्का के इस हैरतअंगेज खुलासे के तीन दिन बाद ही केरल हाईकोर्ट ने तलाक की एक अर्जी पर सुनवाई करते हुए कहा कि देश में आजकल वैवाहिक संबंध ‘यूज एंड थ्रो’ की नई संस्कृति से प्रभावित दिख रहे हैं। युवा पीढ़ी विवाह बंधन को एक बुराई के रूप में देखने लगी है और स्वच्छंद जीवन की लालसा में इससे बचना चाहती है। हाईकोर्ट की यह टिप्पणी पश्चिम के उन खास समाजशास्त्रियों की राय से मेल खाती है जो स्वविवाह को अपने मन से जीने की आज़ादी का श्रेष्ठ विकल्प बताते हैं।

जिस समाज में स्त्री और पुरूष को हमेशा से एक दूसरे का पूरक माना गया हो, वहां तलाक के बढ़ते मामलों तथा लिव इन के नए चलन के बीच समलिंगी और अब स्वविवाह स्वाभाविक तौर पर अचरज के साथ ही गम्भीर चिंता पैदा करता है। इस चिंता के गर्भ में ये गंभीर प्रश्न भी घुमड़ते हैं कि क्या मानव जीवन की समस्त आवश्यकताएं भौतिक संसाधनों तक सिमट रही हैं? क्या भौतिक विकास ने इंसानों को इतना आत्मनिर्भर बना दिया है कि जीवन के सबसे खूबसूरत रिश्ते भी बेमानी होने लगे हैं? या फिर हम जाने-अनजाने एक ऐसी दुनिया की तरफ बढ़ चले हैं जहां व्यक्तिगत स्वच्छंदता की चाह में अंतरसंबंधों की गुंजाइश ही खत्म होने लगी है?

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आइए इन सवालों का जवाब ढूंढने से पहले रिश्तों की इस नई पहेली की पृष्ठभूमि में चलते हैं। कनिष्का देश की पहली महिला नहीं जिन्होंने यह अजीबोगरीब कदम उठाया हो। उनसे पहले वडोदरा (गुजरात) की क्षमा बिंदु ने इसी साल जून में खुद से शादी रचाकर सनसनी फैला दी थी। तब उन्होंने भी कहा था कि वह खुद को बहुत प्यार करती हैं और स्वविवाह के जरिये दुनिया में आत्मप्रेम की मिसाल कायम करना चाहती हैं। उन्होंने भी जीवन में किसी बंधन से परे व्यक्तिगत स्वच्छंदता को तरजीह देने की दलील पेश की थी। अब हम इसे ध्यानाकर्षण के लिए कुछ विचित्र करने की सनक कहें, दिमागी दिवालियापन, निजता के संकुचन की पराकाष्ठा, पाश्चात्य अनुशरण या पुरुषों के प्रति अनासक्ति की हद, मगर इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझना उतना ही जरूरी है जितना इन दो मामलों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण।

इसे केरल हाईकोर्ट की टिप्पणी के संदर्भ में भी देखने की आवश्यकता है, जिसमें वाइफ (पत्नी) को “वरी इनवाईटेड फ़ॉर एवर” (हमेशा के लिए आमंत्रित मुसीबत) के तौर पर विश्लेषित करते हुए बंधनमुक्त जीवन की तरफ युवाओं के रुझान का इशारा किया गया है। लिव इन रिलेशनशिप को भी हाईकोर्ट ने उसी बंधनमुक्त जीवन की कामना का प्रतिफलन बताया, जिसकी प्रत्याशा में स्वविवाह की शुरुआत सबसे पहले पश्चिमी देशों में हुई। न्यूयॉर्क के एक पेशेवर कलाकार गैब्रिएल पेनबाज़ ने प्यार में धोखा खाने के बाद स्वविवाह का रास्ता चुना। उनके बारे में विस्तार से बताते हुए बीबीसी की अध्ययन रिपोर्ट कहती है कि खुद से शादी करने के बाद पेनबाज़ ने खुद को मजबूत और बेहतर आत्मविश्वास वाला महसूस किया।

इसके बाद उन्होंने इस अवधारणा को लोकप्रिय बनाना शुरू किया और अमेरिका में ही डेढ़ हजार से ज्यादा लोगों को स्वविवाह का विकल्प चुनने में मदद की। पेनबाज़ के अनुसार, ये वे लोग थे जिन्होंने शादी के पारंपरिक बंधन को कष्टकारी और समझौतावादी पाया था। मजे की बात यह कि स्वविवाह के इन सभी मामलों में पारंपरिक रस्में शानदार समारोहों में पूरी की गईं। रिपोर्ट कहती है कि स्वविवाह, जो पश्चिम में सोलोगैमी के तौर पर प्रचलित हो रहा है, धीरे-धीरे एक सेवा उद्योग बन गया है। रिपोर्ट यूखेहपाज़ नाम के एक शख्स का भी उल्लेख करती है जो स्वविवाह के लिए दुल्हन तैयार करने के वास्ते दस हफ्ते का ऑनलाइन पाठ्यक्रम चलाता है। यूखेहपाज़ मानते हैं कि स्वविवाह दुखदायी रिश्तों से ऊबे लोगों के लिए एक उपयुक्त विकल्प है, जिसके बाद वे अपने जीवन को ज्यादा खुशगवार और उत्पादक बना सकते हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉ. बेला डी पाउलो बताती हैं कि पश्चिमी देशों में सोलोगैमी यानी स्वविवाह का चलन ऐसे समय में शुरू हुआ जब वहां अविवाहित या तलाकशुदा लोगों का प्रतिशत बढ़ रहा था। हालांकि यह विकल्प चुनने वालों वे महिलाएं भी शामिल हैं जो अविवाहित थीं और वैवाहिक बंधनों के दुखद अंत को देखते हुए आज़ाद जिंदगी की पक्षधर। डॉ. पाउलो उन लोगों के लिए सहानुभूति व्यक्त करती हैं जो स्वविवाह का विकल्प चुनते हैं। कुल मिलाकर उनका जोर इस बात पर है कि वैवाहिक संबंधों के पीड़ादायी अनुभवों ने स्वविवाह को विकल्प के तौर पर पेश किया, जिसे अब अविवाहित भी बेहतर मानकर अपना रहे हैं। वह कहती हैं, “आपको पूरा करने के लिए आपको किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है। आप खुद से प्यार कर सकते हैं, अपने लिए प्रतिबद्ध हो सकते हैं।

आप तय कर सकते हैं कि आपके लिए महत्वपूर्ण क्या है। आपको इस फैसले का हक है कि आप अपना जीवन किस तरह जीना चाहते हैं।” डॉ. पाउलो के मुताबिक अमेरिका में 40% से अधिक वयस्क  तलाकशुदा/विधवा हैं या अविवाहित। ऐसे लोगों के पास बेहतर क्रयशक्ति और दोस्तों का सुंदर संसार है। वह कहती हैं कि यह 1950 का दशक नहीं है। अविवाहित बिना शादी किए यौन संबंध रख सकते हैं। वे इन संबंधों से उत्पन्न बच्चों की बेहतर परवरिश भी कर सकते हैं। लिहाजा अकेले रहने का विकल्प मौजूदा दौर लिए सबसे उपयुक्त जीवनमार्ग है। सोनोमा स्टेट यूनिवर्सिटी में वीमेन एंड जेंडर स्टडीज के प्रोफेसर और “द न्यू सिंगल वुमन” के लेखक डॉ. ट्रिमबर्गर भी डॉ. पाउलो के विश्लेषण का समर्थन करते हुए कहते हैं उन्होंने एकाकी जीवन के बारे में कई मिथकों को खारिज किया है।

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जैसे कि अकेले रहने वाले अंततः दुखी रहेंगे, उन्हें समाज में सम्मान नहीं मिलेगा, उन्हें प्यार करने वाला कोई नहीं होगा, वे अकेले बूढ़े हो जाएंगे और एक दिन अपने कमरे में मृत पाए जाएंगे। जाहिर है पश्चिमी देशों में बदलती जीवनशैली की समाजशास्त्रीय विवेचनाओं में भौतिक जीवन को जिस तरह मानवीय संवेदनाओं और अंतरसंबंधों पर तरजीह देने की कोशिश हो रही है, वह अब तक हमारी सामाजिक अवधारणाओं में फिट नहीं बैठती। आइए वापस चलते हैं कनिष्का सोनी और क्षमा बिंदू की ओर। दोनों पेशेवर हैं। कनिष्का ढेरों टीवी सीरियलों में काम कर चुकने के बाद फिलहाल हॉलीवुड में बेहतर अवसर तलाश रही हैं, तो क्षमा समाजशास्त्र में स्नातक हैं और वडोदरा की एक निजी कंपनी में एम्प्लॉयमेंट अफसर। कनिष्का ने स्वविवाह के फैसले का जो आधार बताया वह काफी हद तक डॉ. पाउलो के बताए कारणों की ही तस्दीक है। स्वविवाह के बाद उन्होंने इंस्टाग्राम पर लिखा, “खुद से शादी की क्योंकि मैंने अपने सभी सपनों को अपने दम पर हासिल किया है और एकमात्र व्यक्ति जिससे मैं प्यार करती हूं, वह मैं खुद हूं। सभी सवालों के जवाब जो मुझे मिल रहे हैं।

मुझे कभी किसी आदमी की जरूरत नहीं है। मैं अपने गिटार के साथ हमेशा अकेली, एकांत में खुश हूं। ” वैसे इससे पहले वह टुकड़ों में जो कुछ साझा करती रही हैं । उनसे साफ है कि कुछ कड़वे अनुभवों ने पुरुषों के प्रति उनका नज़रिया पूरी तरह विषाक्त कर दिया है, इसलिए वह विवाह बंधन में बंधने के बजाय आज़ाद जिंदगी जीने की पक्षघर हुईं। लेकिन क्षमा  ने अब तक जो खुलासे किए हैं, उनमें कहीं पुरुषों के प्रति नकारात्मकता स्पष्ट नहीं हुई है। वह सिर्फ स्वच्छंदचारिता अभिलाषी हैं और इसलिए आत्मप्रेम के पाश में जकड़ी हुई दिखती हैं। कनिष्का और क्षमा दोनों ने ही अपने स्वविवाह को पूरे रस्मो-रिवाज के साथ समारोहपूर्वक सम्पन्न किया है। बिल्कुल गैब्रिएल पेनबाज़ की तरह। कनिष्का के मामले में पुरुषों के प्रति उनकी अलहदा मानसिकता और उस पर आधारित स्वविवाह के फैसले को समझा जा सकता है।

लेकिन क्षमा बिंदु के मामले में ऐसा कोई साम्य नज़र नहीं आता। तो क्या इसे डॉ. पाउलो की उन दलीलों के संदर्भ में नहीं समझना चाहिए, जिनमें वह स्वविवाह को स्वच्छन्दता और भौतिक विलास के सुअवसर के तौर पर पेश करती हैं? और अगर ऐसा है तो यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय है, जिस पर हमारे समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञानियों को पूरी गम्भीरता से मंथन करना चाहिए। समाज को वे उपाय भी तलाशने होंगे जिनसे युवा पीढ़ी में भौतिकवादी लालसा से इतर मानवीय रिश्तों के लिए गहरी संवेदनाएं पनपे। अंतरसंबंधों के लिए सबसे जरूरी सम्मान, संयम और सहनशीलता जैसे गुणधर्मों की कोपलें फूटे ताकि वे पाश्चात्य अधोचलन की तरफ न भटक चलें। हम भारत हैं, अमेरिका या कोई पश्चिमी सभ्यतावाहक देश नहीं। अभी तक हम वैवाहिक संबंध विच्छेद की लगातार बढ़ती दर (एक हज़ार दंपति में 13) थामने में विफल रहे हैं। साथ ही समलिंगी विवाह के अमान्य बन्धनों की गांठ नहीं खोल पा रहे। अगर गलती से कनिष्का और क्षमा की कतार में युवा जुड़ना शुरू हुए तो यकीनन हम एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक संकट के सामने खड़े होंगे।

 

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