कविता : मनसा, वाचा, कर्मणा एक से होंय

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

बोया पेड़ बबूल तो आम कहाँ से होय
मनसा, वाचा, कर्मणा एकै से न होंय,
चुनाव में पैसा बहै, बाद वसूली होत,
बदलो ऐसे तन्त्र को, इसमें तो है खोट।

राजनीति अब भ्रष्ट, हैं बबूल से काँट,
इन्हें जड़ से काटिये, काँटे दीजै छाँट,
स्वेच्छा सेवा करे जो उसे दो अधिकार,
भ्रष्टतन्त्र ये नष्ट हो,ऐसा हो प्रतिकार।

ना कोई वेतन, ना हो कोई पेन्शन,
जनसेवक बने वह रहे आपने घर,
गाड़ी अपनी ही चालक हो साथ,
सेवानिवृत होय, दो उसे अधिकार।

आयू सीमा हो नहीं,चरित्र निर्मल होय,
सेना सेवानिवृत, वो राजनीति में जाय,
पान, तमाख़ू, सिग्रेट दारू भी हो बंद,
भ्रष्टाचार विहीन हो, नाही हो मतिमंद।

सैनिक सीमा पर रहता टेंट लगाय,
तब सांसद, मंत्री व विधायकों को,
क्यों बड़े बँगलों की सुविधा दी जायें,
ये भी क्यों ना रहैं, वैसे ही टेंट लगाय।

भले ही मदद को नौकर चाकर लोग,
तंबू में ही यह भी लगावें भोजन भोग,
भारत में है ग़रीबी, जनता भूखी सोय,
आदित्य नेता मंत्री तब कैसे खुश होंय।

 

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