दो टूक :  मैनुपरी चुनाव में कांटे से कांटा निकालने की तैयारी में भाजपा,अखिलेश के सामने पिता की सियासी विरासत बचाने की चुनौती

राजेश श्रीवास्तव


लखनऊ।  मैनुपरी में मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद खाली हुई सीट पर चुनाव के चलते यह सीट पूरे देश में सबसे ज्यादा चर्चा में आ गयी है। यह सीट केवल एक संसदीय सीट न होकर भाजपा व समाजवादी पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयी है। जहां मुलायम सिंह की पारंपरिक सीट होने के चलते समाजवादी पार्टी के सामने इस सीट को बचाकर रखने की चुनौती है। वहीं भाजपा के सामने इस सीट को सपा से छीन कर एक संदेश देने का पूरा प्रयास होगा ताकि वह यह संदेश दे सके कि पिछड़े वर्ग में उसकी जगह समाजवादी पार्टी से ज्यादा उसकी है। दूसरी मुलायम सिंह की सीट को हासिल कर वह सपा के मूल वोटों पर कब्जा करने की रणनीति पर अमल कर सकती है।

जबकि अखिलेश यादव के लिए यह सीट करो या मरो के समान है। इसीलिए काफी जद्दोजहद के बाद सपा ने इस सीट पर सबसे ताकतवर प्रत्याशी डिंपल यादव को उतारा है क्योंकि वह खुद चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, वह विधायक हैं। इसीलिए उन्होंने दूसरे नंबर का स्थान रखने वाली डिंपल यादव को उन्होंने पिता की सीट पर उतारा है। ताकि श्वसुर की सीट पर बहू का दावा मजबूत हो सके। वह मुलायम सिंह के निधन के बाद उपजी संवेदना को भुना सकें। लेकिन इस सीट के समीकरण को समझेंगे तो पता चलेगा कि यह सीट समाजवादी पार्टी के लिए आसान नहीं है। पहली बात तो यह है कि यह उपचुनाव है और उपचुनाव ज्यादातर सत्तारूढ़ दल ही जीतता है। वह भी तब जब भाजपा जैसा सत्तारूढ़ दल हो। दूसरा मैनुपरी की जनता ने पिछले चुनाव में भी भाजपा को अच्छी-खासी बढ़त दी थी। भाजपा को पिछलो लोकसभा चुनाव में 44 फीसद वोट हासिल हुए थो। मुलायम सिंह बेहद कम एक लाख से भी कम अंतर से जीते थे। यह स्थिति तब थी जब सपा और बसपा मिलकर लड़े थे। खुद मायावती ने नेताजी के लिए प्रचार किया था और कहा था कि बसपा के लोग नेताजी को जितायें। इसी से वहां का समीकरण और सपा की चुनौती को समझा जा सकता है। भाजपा ने इस सीट से मुलायम परिवार की दूसरी बहू अपर्णा यादव पर दांव लगाने का मन बनाया है।

इस आशंका को बल दरअसल एक तस्वीर से मिला है जो मैनपुरी में डिंपल यादव के प्रत्याशी घोषित होने के बाद अपर्णा और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी की मुलाकात की जारी की गयी है। अगर अपर्णा यहां से उतरती हैं तो भाजपा के लिए लड़ाई आसान हो जायेगी । एक तो वह मैनपुरी की जनता को यह संदेश दे पायेगी कि अपर्णा भी मुलायम की बहू ही हैं। दूसरे वह भाजपा और बसपा व कांग्रेस के वोट भी अपर्णा के खाते में ट्रांसफर करा पायेगी। क्योंकि बसपा व कांग्रेस ने मैनपुरी से प्रत्याशी नहीं उतारे हैं, ऐसे में जो प्रत्याशी बसपा व कांग्रेस के वोटों को हासिलकर सकेगा, उसके लिए यह लड़ाई आसान हो सकेगी।

 

सपा का गढ़ कहे जाने वाले मैनपुरी में बसपा ने पूरी दमदारी के साथ कई लोकसभा चुनाव लड़े। पार्टी प्रत्याशी ने जीत भले ही दर्ज नहीं की हो, लेकिन कोर वोट बैंक के दम पर दूसरा नंबर जरूरी हासिल किया। ऐसे में सभी दलों की नजर अब बसपा के कोर वोट बैंक पर है। जिस दल-प्रत्याशी को बसपा का वोट मिलेगा, उसी को चुनावी भंवर में किनारा मिलेगा। ऐसे में टक्कर सीधे तौर पर सपा और भाजपा के बीच ही होगी। मुलायम के गढ़ में वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को टक्कर बहुजन समाज पार्टी ने ही दी थी।  बसपा प्रत्याशी विनय शाक्य ने 2.19 लाख वोट हासिल करके जोरदार टक्कर खुद सपा संरक्षक मुलायम सिह यादव को दी थी। भले ही इस चुनाव में नेताजी को विजय मिली थी, बसपा के कोर वोट बैंक की धाक हर दल ने मानी थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा प्रत्याशी डॉ. संघमित्रा मौर्य ने 1.42 लाख वोट मुलायम के गढ़ में हासिल किए थे। इसके बाद बसपा ने लोकसभा चुनाव मैनपुरी सीट पर नहीं लड़ा। ऐसी स्थिति में मैनुपरी सीट पर होने वाला चुनाव बेहद दिलचस्प होगा।

अगर मैनपुर में सपा जीतती है और भाजपा हारती है तो भाजपा के सामने ऐसी स्थिति नहीं होगी कि वह चेहरा न छिपा सके। यानि उसकी स्थिति इतनी खराब नहीं होगी । क्योंकि वह मुलायम सिंह यादव की परंपरागत सीट है। मैनपुरी की जनता हमेशा नेताजी के साथ रही उसने जब नेताजी को जरूरत पड़ी तो सियासी खाद-पानी मुहैया कराया। लेकिन अगर यह स्थिति उलटती है और भाजपा चुनाव जीती व सपा हार जाये तो अखिलेश यादव के सामने ऐसी स्थिति होगी कि वह चेहरा दिखाने लायक नहीं रहेंगे। क्योकि यह संदेश जायेगा कि नेताजी के क्षोत्र की जनता भी अखिलेश के साथ नहीं है। उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर पकड़ ढीली होगी । डिपंल की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगेगी। क्योंकि उन्होंने कई लोगों को पीछे कर डिंपल को उतारा है। ऐसे में अखिलेश के सामने यह चुनाव करो या मरो वाला है। उनके सामने चुनौती बढ़ाने का काम उनके चाचा शिवपाल यादव भी करने वाले हैं चाहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष। पर इस चुनौती से उबर पाना भी सपा के लिए मुश्किल भरा होगा।

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