राजेश श्रीवास्तव
बिहार चुनाव 2025 के लिए राजनीतिक सरगर्मियां तेज हैं। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव के लिए यह चुनाव बेहद महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने पिता लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत को संभालने के साथ-साथ कई आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें भारतीय जनता पार्टी (BJP) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत से मुकाबला करना, साथ ही पार्टी के भीतर पुराने सहयोगियों को एकजुट रखना शामिल है। 2020 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव की अनुपस्थिति के बावजूद तेजस्वी आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में सफल रहे थे, लेकिन बहुमत से पीछे रह गए। अब 2025 में परिस्थितियां बदल गई हैं। प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक रणनीतिकार भी मैदान में हैं, जो तेजस्वी सहित अन्य प्रमुख नेताओं के लिए नई चुनौती पेश कर रहे हैं। तो फिर दूसरी तरफ मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है अगर वह अपनी अपेक्षित सीटें नहीं बचा पाते हैं तो फिर उनकी सियासी पारी को भी डेंट लग सकेगा।
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लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में मंडल आंदोलन के जरिए बिहार में सामाजिक न्याय की नींव रखी, जिसने पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों को सशक्त किया। उनका मुस्लिम-यादव (एम-वाई, 31%) गठजोड़ आरजेडी का आधार है। लालू ने पंचायतों में ओबीसी आरक्षण और सामाजिक सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। लेकिन चारा घोटाला, जंगलराज और खराब प्रशासन ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया. जेल और स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद, लालू की रणनीति ने 2020 में आरजेडी को 75 सीटें और 23% वोट शेयर दिलाया। उनकी विरासत सामाजिक न्याय, ओबीसी-दलित-मुस्लिम सशक्तिकरण और करिश्माई नेतृत्व है।
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लालू की विरासत का स्पष्ट उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव (35 वर्ष) हैं। जनवरी 2025 में राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उन्हें लालू के बराबर शक्तियां दीं। तेजस्वी ने ‘एमवाई बाप’ फॉर्मूला अपनाकर यादव (14%), मुस्लिम (17%) और कुछ गैर-यादव ओबीसी-दलितों को जोड़ा है। उनके 10 लाख नौकरियों का वादा और नीतीश के खिलाफ युवा अपील 41% लोगों के लिए सीएम पद की पसंद बनाया है, जिसके चलते 2020 में आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बन सकी।
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लेकिन जंगलराज की छवि, गठबंधन में कांग्रेस-वाम के साथ तालमेल और परिवारिक कलह उनकी चुनौतियां हैं। तेजस्वी की ताकत उनकी युवा अपील और लालू की विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की महत्वाकांक्षा है, लेकिन वह लालू के करिश्मे को पूरी तरह दोहरा नहीं पाए हैं। तेजस्वी की उम्र अभी बहुत कम है। उनके पास राजनीति के लिए बहुत वक्त है पर बिहार की राजनीति दिन प्रतिदिन और कठिन हो रही है।
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अगर इस बार तेजस्वी मुख्यमंत्री नहीं बन सके तो अगली बार जनसुराज और बड़ी पार्टी के रूप में चुनाव में मौजूद होगी। दूसरी तरफ कांग्रेस लगातार अपने परंपरागत वोटर्स को साथ लेने के लिए तैयार है। मतलब साफ है कि तेजस्वी के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं की स्थिति है। नेतृत्व कमजोर होने पर पहले परिवार में विघटन होता है फिर पार्टी में। तेज प्रताप यादव और रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी के खिलाफ दम भर दिया है। मीसा भारती भी शायद नाखुश लोगों की श्रेणी ही हैं। ऐसे में बिहार की राजनीति के दो स्तंभ लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपने अस्तित्व के मुहाने पर खड़े हैं। उम्र और स्वास्थ्य ऐसे कारण हैं जो हमेशा एक समान नहीं रहते हैं।
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बिहार विधानसभा चुनावों में इस बार इन दोनों लीजेंड्री लीडर्स की विरासत किसे मिलने वाली यह भी तय होने वाला है। तेजस्वी यादव के लिए तो अभी नहीं तो कभी नहीं जैसी स्थिति है। बिहार की राजनीति में प्रदेश के मुख्यमंत्री व जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री व आरजेडी के मुखिया लालू प्रसाद यादव दो दिग्गज हैं, जिन्होंने दशकों तक राज्य ही नहीं बल्कि देश की राजनीति को आकार दिया है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के दोनों शिष्यों ने एक साथ, एक विचारधारा की राजनीति शुरू की पर आज की तारीख में दोनों दो ध्रुव बन चुके हैं।
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फिलहाल अपनी लंबी राजनीतिक पारी और अपनी उपलब्धियों के चलते ये दोनों दिग्गज अब लीजेंड्री लीडर्स का दर्ज़ा पा चुके हैं। सबसे खास बात यह है कि अभी तक बिहार को इनके लेवल का कोई दूसरा नेता भी नहीं मिला, इनके उत्तराधिकार की बात तो बहुत दूर है। 7.4 करोड़ मतदाता, जिसमें 14 लाख नए वोटर जिसमें 51% महिलाएं शामिल हैं इन नेताओं की विरासत तय करेंगे। नीतीश कुमार के समर्थकों का कहना है कि 2005 में उन्होंने बिहार को लालू-राबड़ी के जंगलराज से निकालकर विकास की राह पर लाया। उनके नेतृत्व में बिहार में प्रगति हुई । 2023 की जाति जनगणना और 75% आरक्षण नीति ने सामाजिक न्याय को नया आयाम दिया।
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लेकिन बार-बार गठबंधन बदलने से उन्हें पलटीबाज की छवि दी। उनकी बीमारी को भी विपक्ष बार बार मुद्दा बना रहा है। जाहिर है कि जेडीयू के लिए यह घड़ी है। नीतीश ने अपने बेटे निशांत कुमार को अभी तक राजनीति से दूर रखा है। अगर निशांत कुमार राजनीति में आते हैं तो कुछ दिनों के लिए जरूर नीतीश कुमार के पुत्र होने के नाम पर उन्हें सपोर्ट मिले, जिस तरह तेजस्वी को मुस्लिम और यादव का सपोर्ट लालू यादव के नाम पर आज तक मिल रहा है। पर..निशांत के सक्रिय नहीं होने पर गैर यादव ओबीसी और ईबीसी जातियों की नेचुरल पसंद बीजेपी बन जाएगी।निशांत यदि सक्रिय हुए, तो कुर्मी-कोइरी आधार बरकरार रह सकता है; अन्यथा, जेडीयू बीजेपी की छाया में सिमट जाएगी। नीतीश ने स्पष्ट किया कि वह 2025 में खुद सीएम फ़ेस हैं, लेकिन उनकी उम्र और स्वास्थ्य आदि उनके उत्तराधिकार की चर्चा को जरूरी बनाते हैं। ऐसे में यह तय है कि बिहार चुनाव परिणाम बिहार के दो सियासी दिग्गजों का भविष्य तय करने वाला है कि किसकी विरासत बचेगी और किसकी चली जायेगी।
