पुण्यतिथि विशेष स्मरणोत्सव : पं सीताराम त्रिपाठी जिनसे सीखते हैं लोग समर्पण

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

जीवन को सत्य की साधना बनाना हर व्यक्ति नहीं जानता लेकिन जो अपने जीवन को साध लेते हैं वे सत्यानुयायी बन जाते हैं। पूज्य पिताजी को जब-जब मैं देखा उन्हें अपने कर्त्तव्य के प्रति सत्यानुयायी ही पाया। वह डाकघर में पोस्ट मास्टर थे। ब्रांच पोस्ट मास्टर (बीपीएम) यानी शाखा डाकपाल। मेरे घर में ही डाकघर था। इसलिए उनकी नौकरी तो घर में ही थी। लेकिन घर में नौकरी को वे कभी घर की नहीं समझे। बल्कि घर में रहकर 24 घंटे की नौकरी करते थे।

भारत में शाखा डाकघर को सरकार बहुत ही सामान्य रूप में लेती है। सरकार को लगता है इन शाखा डाकघर वालों को कोई मेहनत नहीं होती। ये तो घर बैठे सेवा देते हैं, और उसके लिए इन्हें मामूली जो तनख्वाह दी जाती है, वही काफी है। लेकिन मेरी दृष्टि से यह सरकार की बेमानी है। शाखा डाकघर के लोग मेरी दृष्टि से सबसे ज्यादा काम करते हैं। उनके जिम्मे गॉंव का दूरदराज होता है। उन दिनों तो सबकुछ डाकघर पर आश्रित था। क्या धूप, क्या गर्मी और क्या बरसात, सभी महीने में निरंतर मेहनत करके सबको समय पर पत्र, पंजीकृत डाक, पोस्टकार्ड, अन्तर्देशी, लिफाफा, तार, मनी ऑर्डर, बीमा, स्पीड पोस्ट, बैरंग सब सही व्यक्ति तक पहुँचने के पीछे डाकघर के शाखा डाकघर का समर्पण कोई समझ नहीं सकता। मैंने समझा। पूज्य पिताजी के साथ समझा। उनके अवकाश पर होने पर उनकी जगह बतौर पोस्ट मास्टर काम करके समझा।

पिता सुबह उठ नहीं पाते थे कि पंजीकृत चिट्ठी, बीमा व मनीऑर्डर लेने वाले घर पर पहुँच जाते थे। वही उन्हें उठाया देते थे। कहते- पंडित  हम आ गए हैं। देहात के लोग दातून दांत में दबाए और चल देते पंडित जी के घर। उनके लिए देहात की पोस्ट ऑफिस, घर की पोस्ट ऑफिस होती थी। उन्हें 10 बजे यानी ऑफिस टाइम की कोई खबर नहीं होती थी। बस उन्हें सूचना मिल गई तो उनकी ऑफिस तो जब वे पहुँच जाएं, पंडित जी उन्हें उनके मुताबिक मिल जाएं, यही उन्हें पता होता था। पिताजी कभी भी डाकघर पर सूरज की लालिमा के साथ या उसके पहले ही कोई भी आता तो भी उन्हें वे बहुत सम्मान करते थे। चाहते तो कहते 10 बजे आइए। पर उन्हें सुबह सुबह आकर जगाने वालों से, कोई शिकायत नहीं होती थी। सुबह उठकर वे अपने आगंतुक डाक लाभार्थियों को बहुत ही सहजता से अपने घर से अपनी चाय पिलाकर उनके जो भी पैसे या पत्र आए रहते थे, देते और संतुष्ट करके भेजते।

पिता ने कभी भी किसी को निराश नहीं किया। उन्होंने सबको सम्मान दिया। डाकघर के प्रति उनकी जो प्रतिबद्धता थी, वह अद्भुत थी। अप्रतिम थी। अनूठी थी। सुबह 10 बजे तक वह सबको उनके आए पत्र, मनीऑर्डर, बीमा, बैरन और दूसरी आर्टिकल देकर डाक बनाने बैठ जाते। डाक बनाकर फिर जब उनके सहयोगी पोस्टमैन न आते तो डाक लेकर सबऑफिस जाते। इसके पीछे उन्हें न खाने की चिंता, न ही अपनी खेतीबारी की। सबकुछ तो उनका डाकघर था।

उप डाकघर से फ्री होने के बाद भी ऐसा नहीं की घर वापस लौट आते। वह 9 से 10 बजे रात तक रहकर किसका क्या आया है, उसके अनुसार संदेश देते कि फलां को भेज देना। बाज़ार में सभी मिल जाते थे, इसलिए उनको सहूलियत मिल जाती थी, क्षेत्र के कोई न कोई मिल ही जाते थे। किसी का कोई नुकसान न हो। किसी को देरी न हो। यह उनकी चिंताओं में शामिल था। वह अपने सेवाक्षेत्र में रहने वाले लोगों की फिक्र इसलिए करते थे क्योंकि वह कहते थे कि किसी का बेटा, किसी का पति, किसी का भाई, किसी का अपना जब सबकुछ छोड़कर चार पैसा कमाने बाहर गया है तो उसकी कोई भी चीज हमारे यहाँ पहुंचे, तो उसे लाभार्थी तक पहुंचाने में देरी नहीं होनी चाहिए। वह सबकी पीड़ा समझते थे। वह जानते थे की आया हुआ मनीऑर्डर किसी की की फसल बोने या उसकी सिंचाई के लिए आया है। किसी की बेटी की शादी के लिए आया है। किसी महिला की डिलवरी होनी है, इसके लिए आया है। किसी की आँख के ऑपरेशन के लिए आया है। किसी के बच्चों की स्कूल फीस भरने के लिए आया है, वह तुरंत उन्हें मिलने चाहिए। इसके लिए वे दिन-रात एक करते थे। अपने खाने-पीने की चिंता नहीं करते थे। अपने अधीनस्थ पोस्टमैन को कहते थे यह आज ही संबंधित को देकर हमें वापसी दीजिएगा। सब पेड होना चाहिए, यह उनकी हिदायत होती थी। एक सच्चे सेवादायी की क्या परिभाषा हो सकती है, यह पिताजी से सीखने को मिलती है। उनकी निष्ठा, उनके स्वभाव, उनकी सेवा के प्रति समर्पित दृष्टि हमें डाकश्रम व शक्ति से जुड़े लोगों के प्रति जो आज मेरे भीतर आदरभाव पैदा करते हैं, अप्रतिम हैं। जब भी मैं किसी डाककर्मी को देखता हूँ तो उसे प्रणाम करने को मन करता है। सेना में भर्ती नवजवान को आपने देखा होगा। वह बॉर्डर पर होता है। उसके प्रति सहज ही विनम्र भाव आपके मन में जागृत होता है। उसे नमन करने का मन होता है। लेकिन मैंने महसूस किया कि सेना का नवजवान सीमा पर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह जरूर करते हैं। लेकिन डाकिए जो सेना के नवजवानों द्वारा भेजी चिट्ठियाँ व पैसे धूप-छाँव-बरसात सहकर उनके अपनों तक पहुंचाते हैं, उनकी भी सेवा कम नहीं है, वे प्रणम्य हैं।

जब पिता पोस्टमास्टर थे। उन दिनों भी बहुत लोग पढे-लिखे नहीं थे। डाकघर पर आने वाले लोग यह सोचते थे कि पंडित जी से हम अपनी चिट्ठी बँचवा लेंगे। उन्हीं से जवाबी डाक भी भेज देंगे। पिताजी उनकी चिट्ठी देते तो उनकी जवाबी चिट्ठी भी बनाते। इसके लिए अपने समय का वह नुकसान सहते थे पर किसी को दुःख हो, ऐसा वे कभी भी बर्दस्त नहीं करते थे। मामूली तनख्वाह में भरपूर सेवा के लिए समर्पित पिताजी की एक खूबी यह थी कि जिनकी चिट्ठी में यह लिखकर आता कि हम पैसा लगा दिए हैं, उन्हें वह उधर पैसा भी देने के लिए विवश हो जाते थे। एक तो करुण-हृदय, दूसरे किसी के पैसे मांगने पर ना न कह पाने के एवज में पैसे देकर मदद भी उन्हें करनी पड़ती थी। वे सोचते थे कि इसका बीमा या मनीऑर्डर आएगा तो मिल ही जाएगा लेकिन कभी-कभी नालायक संतानें अपने माँ-बाप या पत्नी को यूं ही झूठे लिख भेजते थे कि पैसा लगा दिया हूँ-मनीऑर्डर से जल्दी ही मिल जाएगा, पर वे भेजते नहीँ थे। उनका मनीऑर्डर 3 माह बाद आता था। पैसे फंस जाते थे। पर पिताजी को कितना संतोष था की वे कभी किसी को पैसे दिए हुए मांगते नहीं थे। आज जब सोचता हूँ तो उनके अंतस की गहराई को समझ पाता हूँ कि वे महान आत्मा थे जो सबके दुःख-सुख के साथी बन जाते थे।

भारत सरकार से पिताश्री की एक शिकायत थी कि ग्रामीण डाकघर के लोगों को सरकार पेंशन क्यों नहीं देती? एक लंबी लड़ाई लड़ी है ग्रामीण डाकघर के लोगों ने लेकिन काश! सरकार मान ली होती उनकी मांगें, तो पिताश्री की शिकायत दूर हो जाती। वे सेवानिवृत्त हुए तो उसके बाद भी उन्हें उम्मीद थी की सरकार एक न एक दिन उनको पेंशन देगी लेकिन सरकारें हैं की उनके पास अनावश्यक मदों के लिए खूब पैसे हैं, पर डाकघर के समर्पित ग्रामीण डाक सेवाकर्मियों के लिए कोई धन नहीं है। सरकारें इसलिए हमेशा सबके लिए ठीक नहीं होतीं और उनका निर्णय भी हमेशा ठीक नहीं होता। आज पिताश्री नहीं हैं पर उनके अंदर की पेंशन वाली पीड़ा मुझे दुखी करती हैं।

पिताश्री पंडित सीताराम त्रिपाठी के समपर्ण, सेवा, सहयोग, श्रम, अनाशक्ति भाव, दूसरे की पीड़ा की समझ, कर्मनिष्ठा, परोपकार को आज भी सभी क्षेत्रवासी, डाक विभाग के लोग स्मरण करते हैं। वह डाककर्मियों की सेवाभाव व समर्पण के प्रतीक हैं। उन्होंने कर्म को सर्वोपरि मन। वही उनके लिए सत्य था। उन्होंने अपने दायित्वों को निभाया उससे जो जितना सीख सके, उतना कम होगा, क्योंकि वे कर्म को साधना मानते थे और उसे सहज सत्य मानकर अपने जीवन को जीते थे। भारतीय डाक विभाग और समाज के लिए समर्पित उस महामना को उनके पुण्यतिथि पर शत-शत नमन। उनकी करुणा, शील और सादगी से सेवा की समर्पित साधना है, वैसा सभी जीवन अपना बना लें तो निश्चय ही सदैव सर्वप्रिय होंगे, चाहे वे रहें या न रहें।

लेखक राष्ट्रपति  के पूर्व विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं व पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय में चेयर प्रोफेसर हैं।  

 

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