दो टूक : सिस्टम ही कुछ ऐसा है, कोई मरता है तो मरने दें!

राजेश श्रीवास्तव


ओडिशा ट्रेन हादसे में अब तक करीब ढाई सौ लोगों के मारे जाने की खबर मिल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौके पर पहुंचे हैं । हादसे में मारे गये लोगों की पहचान तो छोड़िये अभी राहत व बचाव कार्य 24 घंटे बाद भी पूरा नहीं हो पाया है। शनिवार को प्रधानमंत्री के पहुंचने के बाद तस्वीरें धड़ाधड़ आने लगीं लेकिन कोई यह नहीं पूछ रहा है कि ये हादसे आखिर क्यों नहीं रोके जा सकते । विपक्ष सवाल उठा रहा है कि आखिर कवच क्यों नहीं लगाया गया। तो जानकार यह भी कह रहे हैं कि कवच होता तो भी हादसा नहीं रोका जा सकता था। सवाल उठ रहे हैं रेलवे के कवच प्रोजेक्ट को लेकर, जिसे रेलवे ने जीरो एक्सीडेंट टार्गेट हासिल करने के लिए लॉन्च किया था। हालांकि, रेलवे की कवच टेक्नोलॉजी को सभी ट्रैक पर अभी तक नहीं जोड़ा गया है । रेलवे के प्रवक्ता अमिताभ शर्मा ने जानकारी दी है कि इस रूट पर कवच सिस्टम नहीं लगा था। इसका एक डेमो इस साल की शुरुआत में भी दिखाया गया था, जिसमें आमने-सामने आने पर दो ट्रेनें अपने आप रुक जाती हैं । कुछ लोग सोशल मीडिया पर आरक्षण को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं कि ऐसे विभागों में आरक्षण से भर्ती नहीं होनी चाहिए । योग्यता पर होनी चाहिए। सवाल बहुत हैं और उठेंगे भी। लेकिन हमें समझना होगा कि वह भारतीय रेल जिस पर आम आदमी सबसे ज्यादा सुरक्षित यात्रा का अनुभव करता है, उस पर क्या हम विश्वास कायम नहीं रख सकते । जानकारों की मानें तो इस पूरे रूट पर कवच लगा ही नहीं था।

भारत देश में आमजन को अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए रेल, सड़क मार्ग, हवाई मार्ग, जल मार्ग का प्रयोग करना पड़ता है। यातायात के यही सभी साधन विश्वसनीय भी हैं ,क्योंकि यह सभी केंद्र सरकार के अधीन आते हैं। यदि हम विश्व स्तरीय बात करें तो फिर भी इन्हीं मागोें का उपयोग किया जाता है। यह माना जा सकता है कि जलमार्ग का उपयोग अधिकतर आयात निर्यात के लिए किया जाता है तो ट्रेन का सफर इन सभी में से आमजन के लिए सुगम माना गया है, क्योंकि सबसे आसानी से उपलब्ध होने वाला व्यवस्था साधन रेलवे को ही माना जाता है।

यहाँ हम बात करें तो भारत देश में रेल मार्ग की शुरूआत गुलामी के दिनों में हुई थी। हादसे तब भी होते थे। लेकिन आजाद भारत की बात करें तो अब तक भारत देश में इतने ज्यादा रेल हादसे हो चुके हैं कि यदि हम गौर फरमाएं तो सोचने वाला हर व्यक्ति दांतों तले उंगली दबा सकता है कि आखिर सरकारी विभाग इन हादसों के बाद जागता क्यों नहीं? एक जिम्मेदारी क्यों नहीं तय की जाती? यदि हम यह कहें ‘तो सिस्टम ही कुछ ऐसा है कोई मरता है तो मरने दे’ इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह पंक्तियां रेलवे विभाग पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। हादसे जब भी हुए अधिकतर लोग गरीब मरे क्योंकि अमीर लोग यातायात के इस विश्वसनीय साधन में यात्रा तय करने में कम विश्वास करते हैं। यह माना कि उड़ीसा के बालेश्वर में जो दर्दनाक हादसा हुआ, उसमें से एक मालगाड़ी व दों एक्सप्रेस ट्रेन थी। हादसे के 14 घंटे बीत जाने के बावजूद भी अब तक एनडीआरएफ स्थानीय प्रशासन द्बारा रेस्क्यू अभियान पूरा नहीं हो पाया है। मरने वालों की संख्या भी 244 के पार पहुंच चुकी है। रेलवे विभाग की माने तो यह आंकड़ा अभी और बढ़ सकता है। देश के रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव भी मौके पर पहुंच चुके हैं। पर हुआ क्या? वही जो पहले होता आया है?

सिर्फ जान गंवाने वालों के परिवारों को मुआवजा राशि देने से इन हादसों पर रोक नहीं लग सकती और क्या मुआवजा देने से जिन्दगी वापिस आ जाएगी। इन दर्दनाक हादसों पर रोक लगाने के लिए स्टेशन मास्टर से लेकर रेल मंत्री तक की जिम्मेदारी होनी चाहिए। देश के पूर्व प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री के समय को याद कीजिए। जब वे रेल मंत्री थे तो उनके समय में भी एक बड़ा रेल हादसा हुआ था। इस रेल हादसे की जिम्मेदारी उन्होंने खुद लेते हुए तुरंत अपने पद से 1956 में इस्तीफा तक दे दिया था। यहां उन्होंने अपने पद की गरिमा बचाते हुए इंसानियत दिखाने का कार्य किया था। लेकिन रेल हादसा तब भी नहीं रुका था।
अब यहां हम किसी के भी इस्तीफ़े की बात नहीं कर रहे। बल्कि बात कर रहे हैं, इस देश के बड़े रेल हादसे की टेक्निकली जांच की। टेक्निकल जांच में जिसकी भी लापरवाही मिले, उसे इसकी सजा जरूर मिलनी चाहिए। यह तो पक्का तय है कि इस तरह के हादसे बड़ी लापरवाही की वजह से होते हैं। लेकिन इस लापरवाही का जिम्मेदार कौन है? उसकी जाँच जरूर करनी होगी। सिर्फ यह बात कहने से कि जान गंवाने वालों के प्रति हमारी गहरी संवेदना है, इससे काम नहीं चलने वाला। ओडिशा में एक दिन का राजकीय शोक भी घोषित कर दिया गया। पर अभी तक रेस्क्यू अभियान के साथ-साथ उस केंद्र बिदु पर कोई नहीं पहुंच पाया कि यह हादसा हुआ क्यों?
रेलवे विभाग की चार दशक पहले की सबसे बड़ी घटना भी अपनी उम्र का अर्धशतक पूरा करने वाले लोगों को जरूर याद होगी।

तब छह जून 1981 को बिहार में एक पुल पार करते हुए ट्रेन बागमती नदी में गिर गई थी। इस हादसे में 75० लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। हादसे यहीं नहीं थमे इसके बाद भी चलते रहे और हमारे देश के सत्तासीन सिर्फ संवेदना व्यक्त करते रहे। पर ऐसे हादसों को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब देश के सबसे विश्वसनीय यातायात के साधन से लोगों का विश्वास राजनीति की तरह उठ जाएगा। उड़ीसा के इस हादसे के बाद भी राजनीति का एक नया खेल शुरू होने वाला है। मीडिया में पक्ष-विपक्ष की बयानबाजी होगी और लोगों को इमोशनल करने का काम कर गुमराह किया जाएगा। पर कोई भी ये नहीं बताएगा हादसे का टेक्निकल नतीजा क्या हुआ? इस बात पर गहन मंथन करने की जरूरत है। 1956 में महबूबनगर रेल हादसे में 112 लोगों की मौत हुई थी। हादसा होने पर तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसे तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार नहीं किया। तीन महीने बाद ही अरियालूर रेल दुर्घटना में 114 लोग मारे गए। उन्होंने फिर इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस्तीफा स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि यह एक नजीर बने। इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं। पर हादसे क्यों हुए इस ओर तब भी गौर नहीं किया गया। अब इस मामले में सियासत शुरू हो गयी है लेकिन यह वक्त सियासत का नहीं संजीदा होकर यह सोचने का है कि हादसे कैसे रोके जायें।

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