अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां

कल रात दिल्ली में एक बार फिर मानवता शर्मशार हो गयी। शर्मनाक रहा कि सरे आम एक युवती को संभवतः मित्रता तोड़ने के कारण उसके कथित पुरुष मित्र ने पहले चाकुओं के 16 बार वार कर और फिर पत्थर से सिर कुचल कर मार डाला। इससे ज्यादा लज्जाजनक यह रहा कि सरे राह हुए इस जघन्य हत्याकांड के दौरान कई लोग पास से गुजरते दिखाई दिए, लेकिन किसी ने भी वारदात को रोकने अथवा अपराधी को पकड़ने का कोई प्रयास नहीं किया और अपनी राह अनजान की तरह गुजरते रहे, मानो उनकी आंखों ने कुछ देखने और कानों ने कुछ भी सुनने से इंकार कर दिया हो।हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ कवि स्व. दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां आज के हालात को बयान करने के लिए काफी है –
“इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात।

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां।।”

आज मीडिया, सोशल मीडिया और सीसीटीवी के दौर मे ऐसी घटनाओं को लेकर एक दो दिन टीवी और सोशल मीडिया पर बहस होगी, विपक्ष सरकार पर आरोप लगाने और सरकार कड़ी कार्रवाई का आश्वासन देने की औपचारिकता का निर्वाह करेंगे और फिर सब कुछ सिस्टम के ढर्रे पर छोड़ कर भूल जाएंगे, इसी तरह की अगली कोई वारदात होने तक।फिर किसी ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना होने पर हाय-तौबा का वही क्रम कुछ दिनों के लिए फिर शुरू हो जाता है।
पुलिस सेवा में कोई साढ़े तीन दशक बिताने के बाद मेरा मानना है समाज की यह प्रवृत्ति कोई आज की नई नहीं है। दशकों से ऐसा ही होता आ रहा है । दर्जनों मामलों में से दो मामले मुझे आज भी विचलित करते हैं, जिनका संक्षेप में उल्लेख कर रहा हूं –

1. 1989 मे मैं सीओ सिटी, बुलंदशहर था। विजिलेंस मे तैनात एक इंस्पेक्टर सपत्नीक रिक्शे पर पोते को लेकर डाक्टर के पास जा रहे थे। मुख्य काला आम चौराहा से कुछ दूरी पर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। पुलिस तत्काल मौके पर पंहुच गयी। शहर की हरसंभव नाकाबंदी की गयी। लेकिन पूछताछ मे आसपास के दूकानदारों, ठेले खोमचे वालों और रिक्शा चालक को भी मानों कुछ भी नहीं दिखाई दिया। कोई यह भी बतलाने को तैयार नहीं था कि हत्यारे किस दिशा की ओर भागे थे अथवा वह बाईक पर थे कि स्कूटर पर। काफी देर बाद जब दिवंगत के परिजन आए और उन्होंने स्वयं को घटनास्थल पर साक्षी के रूप में प्लांट कर हत्यारों को भली भांति देखने व पहचानने की बात अंकित कर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई, तब विवेचना की कार्रवाई शुरू हुई।

2. इसी तरह 1994 मे सीओ सिटी फर्स्ट मेरठ की तैनाती के दौरान शहर के अभिजात्य क्षेत्र में स्थित बाजार के भीतर पराग दूध के वितरक की सरे शाम गोली मारकर हत्या कर दी गई। यहां भी हालात वही। बाजार में उनके आसपास के दूकानदार व वहां काम कर रहे कर्मचारियों मे घटना के समय मानो धृतराष्ट्र की आत्मा प्रवेश कर गयी हो। यही नहीं, यह भारत में पुलिस और न्याय व्यवस्था के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी भी आपराधिक कृत्य में, चाहे वह हत्या जैसा गंभीर अपराध हो, अथवा राह चलती किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ का मामला हो, समाज के जिम्मेदार नागरिक ऐसे गुजर जाने हैं, मानो उस समय के लिए ईश्वर ने उनके आंख कान छीन लिए हों। ऐसे में थोपे गये कृत्रिम गवाह अदालत में कितनी देर बहस के आगे टिक पाएंगे। और न्यायालयों की मजबूरी ऐसे ही साक्षियों के आधार पर निर्णय सुनाने की रह जाती है। विज्ञान के प्राध्यापक रहे शायर सुरेंद्र सिंहल ने इन्हीं स्थितियों का जिक्र अपने एक शेर मे किया है –

“सवाल ये तो नहीं है, उसने देखा क्या।
सवाल ये है गवाही मे वो कहेगा क्या।।”

हां! समाज के यही गणमान्य नागरिक भीड़ के रूप में भूख मिटाने के लिए एक रोटी चुराने वाले को मार पीट कर अधमरा करने के शौर्य से पीछे नहीं हटते।और अब तो पुलिस भी यदा-कदा कुपित भीड़ का शिकार हो जाती है।

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