The Kerala Story : मेरी कमीज उसकी कमीज से साफ….

डॉ. ओपी मिश्र


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ को टैक्स फ्री कर दिया है। यकीनन इससे सरकार के खजाने पर तो बोझ बढ़ेगा लेकिन आम आदमी कम पैसे में इस फिल्म को देख सकेगा और आनंद ले सकेगा । ‘द केरला स्टोरी’ की टीम ने बुधवार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके सरकारी आवास 5 कालिदास मार्ग लखनऊ में शिष्टाचार भेंट की। इसके विपरीत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में इस फिल्म के प्रदर्शन में रोक लगा दी है। इसी तरह कुछ और भी राज्य है जिसमें कहीं टैक्स फ्री किया गया है तो कहीं तटस्थ का भाव अपनाया गया है।

पूरे देश में इस फिल्म को लेकर तरह- तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही है। इसी तरह की प्रतिक्रिया कुछ महीने पहले रिलीज हुई फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को लेकर सामने आई थी। जाहिर सी बात है जिस चीज को आप जितना ज्यादा पर्दे में रखेंगे उसको देखने के प्रति लोगों की उत्सुकता उतना ही आगे बढ़ेगी। वैसे जहां तक मैं समझता हूं फिल्म का काम आम आदमी का स्वस्थ मनोरंजन करना तथा समाज के लिए संदेश देना ही होता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि फिल्म निर्माता समाज से ही तथ्य एकत्र करते हैं और फिर मिर्च मसाला लगाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। मुझे आज भी याद है जब अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘बागबान’ रिलीज हुई थी तो कहानी की लेखिका शोभा डे ने कहा था कि यह कहानी मेरे एक दूर के रिश्तेदार की कहानी से प्रभावित है। मतलब साफ है कि चाहे फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ हो या फिर ‘द केरला स्टोरी’ दोनों फिल्मों में चाहे जितना मिर्च -मसाला लगाया गया हो, राजनीति की चासनी में पिरोया गया है। तथा लोगों की भावनाओं को ‘कैश’ करने की कोशिश की गई हो लेकिन पूरी तरह से हकीकत और तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मैंने जो अपने स्तर से सर्वे किया है उसके मुताबिक 2 प्रतिशत मुस्लिम समाज के लोगों ने ‘द केरला स्टोरी’ अब तक देखी है।

यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ को 90 प्रतिशत मुस्लिमों ने देखी थी। कहने का मतलब यह है कि राजनीतिज्ञों ने किस सफाई से कला, संगीत, शिक्षा और स्वास्थ्य तक को जाति, धर्म, वर्ग संप्रदाय, भाषा वामपंथी और दक्षिणपंथी में के बीच में बांट दिया है और हम उनके हाथों की कठपुतली बने चटकारा मारकर मजा ले रहे हैं। मैंने फिल्म पठान को भी देखा बहुत गंभीरता से देखा लेकिन ऐसा कुछ मुझे नहीं मिला जिसने हिंदू समाज की भावनाओं पर कुठारघात किया हो या हिंदू धर्म अथवा राष्ट्रीयता की भावना पर आघात किया हो गया हो। मैं यहां बाद ‘द केरला स्टोरी’ की कर रहा हूं इसको देखने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि फिल्म निर्माताओं ने अति अधिक प्रचार प्रसार तथा बॉक्स ऑफिस पर हिट होने के ख्याल से जिस तरह से ‘पिक्चराइजेशन’ का काम किया है।

उससे लोगों में प्रतिक्रिया होना आवश्यक है और वे हो भी रही है। प्रतिक्रियाओं को लेकर किसी को कोई गुरेज नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि हमें अपनी बात रखने और विचार व्यक्त करने की आजादी है। लेकिन ऐसा भी सोना किस काम का कि कान ही फट जाए। लेकिन राजनीतिक दलों का इस तरह इस में कूदना कतई उचित नहीं है क्योंकि इस पिक्चर में हिंदू और मुसलमानों के बीच एक ऐसी खाई खोदने की सफलता प्राप्त की है जिसे भर पाना फिलहाल दूर की कौड़ी और शायद सत्ता लोलुप राजनीतिक दल यही चाहते भी हैं। वैसे ‘द केरला स्टोरी’ की कहानी पूर्णतयः तथ्यों पर आधारित है क्योंकि फिल्म के समाप्त होते होते कुछ साक्षात्कार दिखाए गए हैं जो घटनाक्रम की पुष्टि करते हैं? इन पंक्तियों का लेखक ना कोई राजनेता है और ना ही फिल्म ‘क्रिटिक’। लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने के नाते इतना जरूर कहूंगा कि अपने धर्म और अपने संप्रदाय, अपनी भाषा अपनी जाति की तारीफ में कसीदे पढ़ना आपका हक हो सकता है। लेकिन अपने धर्म की तुलना में दूसरे धर्म का अपमान करना उसे नीचा दिखाना तथा यह कहना कि जो ‘सो कॉल्ड’ भगवान राम अपनी पत्नी की रक्षा रावण से नहीं कर सके। वह हिंदू धर्म और हिंदू समाज की रक्षा कैसे करेंगे? यहां मैं यह बात स्पष्ट कर दूं कि उक्त कहीं बात फिल्म का ‘डायलॉग’ है। किसी मुस्लिम नेता, धार्मिक नेता या मौलवी का एथेन्टिक बयान नहीं। फिर भी इस तरह के डायलॉग से बचा जाना चाहिए क्योंकि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां सभी धर्मावलंबियों को बराबर की आजादी है। मुझे इस लेख को समाप्त करते-करते एक डायलॉग याद आ रहा है- सारे मुसलमान और आतंकवादी नहीं होते। इसके जवाब में कहा जाता है- तो फिर सारे आतंकवादी मुसलमान ही क्यों? अब विश्लेषण आप करिए।

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