लोकसभा की तैयारी या मुस्लिम मतों के ‘आकाओं’ को चिढ़ाने की बारी…

पसमांदा पर क्यों मेहरबान?


छह सूबों के सात विधानसभा उपचुनाव के परिणाम के बाद जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुल्क के पसमांदा मोमिनों के प्रति यकबयक मेहरबान हो चुके हैं। वहीं आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) के नाजि़म-ए-आला (सर्वेसर्वा) असदुद्दीन ओवैसी ने इस मुतल्लिक उन पर तंज भी कसा है। लगे हाथ ओवैसी की पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष व अमौर के विधायक अख्तरुल ईमान ने आगामी चुनाव के मद्देनजर जनता दल यूनाइटेड (JDU) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को ऑफऱ दिया है कि उनका दल एलायंस करने के लिए मुस्तैद है। हालाँकि नीतीश एवं तेजस्वी दोनों ने ही इस प्रस्ताव को नकार दिया है। क्यों? तफ़सील से तफ्तीश करती समीर श्रीवास्तव की रिपोर्ट…


बिहार की अकलियत सियासत उस सूर्य की तरह है, जिसके चारों ओर ग्रह रूपी राजनीतिक पार्टियाँ एक ख़ास दिशा में घुमती रहती है, सिर्फ एक को छोडक़र। वह एक दल है भारतीय जनता पार्टी (BJP)। ग़ौरतलब है कि सूर्य की परिक्रमा बुध, पृथ्वी, मंगल, वृहस्पति, शनि और नेप्च्यून ख़ास अंदाज में घड़ी की सूई की माफिक चक्कर काटते हैं, अर्थात् क्लॉक वाइज़ चलते हैं। इस खगोलीय परिदृश्य की तुलना आज की तारीख में बिहार की राजनीति से की जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां मुस्लिम वोट को लेकर राजद, JDU एवं लोजपा के दोनों गुट, तमाम वामपंथी पार्टियां एवं AIMIM के बीच चील-झपट्टा का खेल जारी है। इसकी ताजा मिसाल है तीन नवंबर 2022 को गोपालगंज में हुआ असेंबली बाई-इलेक्शन। उक्त उपचुनाव में ओवैसी तथा बसपा ने राजद की किश्ती डुबो दी। ओवैसी के कैंडीडेट थे अब्दुस सलाम। बसपा ने इंदिरा यादव को सिम्बल प्रदान कर रखा था, जो कि लालू के साले साधु यादव की पत्नी हैं। सलाम के खाते में 12 हजार 214 मत पड़े थे, जबकि इंदिरा ने आठ हजार 864 वोटों पर कब्जा जमाया था। गोपालगंज में मुसलमानों के करीब 25 हजार मत हैं। अकलियत वोटों में ऐसी सेंधमारी हुई कि तेजस्वी चारों खाने चित हो गए।  साधु और ओवैसी पर आरोपों की बौछारें जबरदस्त चली। उन पर तोहमत मढ़ी गई कि ऐसा खेल उन्होंने BJP के इशारे पर किया है। सियासतदानों ने दबी जुबान से ‘माल-मुद्रा’ के आदान-प्रदान को ही महत्वपूर्ण फैक्टर बताया। बेशक, ओवैसी और साधु ने फील्ड में बैटिंग न की होती तो राजद की शानदार विजय हुई रहती। लेकिन इसी का नाम तो राजनीति है।

मुस्लिम वोट और बिहार की कहानी कम दिलचस्प नहीं है। गोपालगंज बाई-इलेक्शन में चूंकि AIMIM सुल्तान ओवैसी अपना सियासी हुनर दिखा चुके थे। लिहाजा उन्हें लगा कि बिहार में पॉलिटिकल सौदेबाजी यूपीए के घटक दलों के साथ की जा सकती है। सनद रहे कि साल 2020 के विधान सभा चुनाव में AIMIM ने सीमांचल में राजद को क्लीन बोल्ड किया था, जिस कारण उसकी सरकार सत्तासीन नहीं हो सकी थी। यह बात अलग है कि इसी साल उन पांच एमएलए में से चार ने राजद का दामन थाम लिया था। तब सीमांचल की बहादुरगंज, कोचाधामन, जोकीहाट, बायसी और अमौर सीट पर ओवैसी की पार्टी का कब्जा था।

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बहरहाल बीते नौ नवंबर 2022 को AIMIM बिहार के प्रदेश अध्यक्ष और अमौर विधायक अख्तरुल इमान ने यह तुक्का फेंका कि उनकी पार्टी इस सूबे में ‘लाइट माइंडेड दलों’ के संग एलायंस करने को राजी है ताकि फासिस्ट शक्तियों को शिकस्त दी जा सके। स्पष्ट है कि ईमान ने ओवैसी के संकेत पर ही यह पासा चला होगा। फिर क्या था?  तुरंत इस पर JDU के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव व ‘भोंपू’ केसी त्यागी ने काफी तल्ख प्रतिक्रिया व्यक्त की। त्यागी ने कहा ‘AIMIM के साथ गठबंधन करने का सवाल ही नहीं उठता… ‘सेक्यूलरिज्म’ तथा ‘फंडामेंटालिज्म’ में काफी फर्क है… धर्म निपरेक्षता समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए है, जबकि ‘फंडामेंटलिज्म’ सिर्फ एक वर्ग के वास्ते हैं… AIMIM का एक मात्र लक्ष्य BJP के इशारे पर सेक्युलर ताकतों को हराना रहा है… AIMIM को बेनकाब करना, बेपर्द करना जरूरी है।’ त्यागी के सुर में सुर मिलाते हुए राजद के प्रदेश प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव ने टिप्पणी की कि गोपालगंज में राजद की पराजय के पीछे ओवैसी फैक्टर के अलावा कुछ अन्य कारण भी थे। राजद को AIMIM से कुछ लेना-देना नहीं है… हम ध्रुवीकरण की मुखालफत कर रहे हैं।

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वैसे इसमें दो राय नहीं है कि बिहार में ‘रूङ्घ’ समीकरण की नींव मार्च 1990 में पड़ी थी, जब लालू यादव यहां सत्ता के रथ पर सवार हो गए थे। लालू ने हरियाणा के ताऊ देवीलाल के ‘अजगर’ फार्मूला (अ-अहिर, ज-जाट, ग-गुर्जर और र-राजपूत।) की तर्ज पर ‘माई’सोशल इंजीनियरिंग की स्थापना की थी। यहां 12 फीसदी यादव है  तथा 16 से 17 प्रतिशत मुस्लिम हैं। इससे उनकी सियासी गाड़ी फरवरी 2005 तक पटना के राजपथ पर सरपट दौड़ती रही। फिर वह समीकरण नीतीश ने तोड़ा। हालांकि लालू अपने पुराने समीकरण पर अभी भी कायम हैं। कुल मिलाकर बीजेपी आगामी चुनाव के मद्देनजर पसमांदा पर गिद्ध दृष्टि डाले हुए हैं, इससे अन्य दलों में खलबली मची हुई है। इसके बाद ओवैसी ने इस पर कटाक्ष किया। बकौल ओवैसी, अगर उन्हें पसमांदा मुस्लिम से बेपनाह  प्यार है तो सुप्रीम कोर्ट में क्यों आरक्षण के खिलाफ दलीलें सरकार की तरफ से पेश किए जाते हैं। कितनी फिक्र है आपको पसमांदा मुसलमानों की? क्या आपकी नजर में मुसलमान विदेशी हैं।

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बहरहाल BJP जो कि ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सब का प्रयास’ के सूत्र वाक्य को लेकर आगे बढ़ रही है। मगर कहीं हिंदुत्व के रास्ते से थोड़ा भी उतरती है तो उसे लेनी की देनी पड़ सकती है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग कहते हैं कि ‘हम नून रोटी खाएंगे पर लोक सभा में BJP को ही वोट देंगे, क्योंकि यही वह पार्टी है जो पाकिस्तान को सर्जिकल स्ट्राइक सरीखे ऑपरेशन के जरिए औकात में रखने का माद्दा रखती है। ऐसा कहने वालों में शूद्र, वैश्य, ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य पिछड़ा वर्ग शामिल है।

आज़ादी के पहले छिड़ी थी जंग

बिहार के नालंदा में पैदा हुए आसिम बिहारी उर्फ़ अली हुसैन ने इस आंदोलन की शुरुआत कोलकाता से की थी। आंदोलन चलाते-चलाते वह यूपी आ गए और उनका इंतकाल इलाहाबाद में हुआ। आसिम को जन्म शिक्षा के लिए प्रसिद्ध बिहार के नालंदा के एक देशभक्त परिवार में हुआ था। उनके दादा मौलाना अब्दुर्रहमान ने 1857 की क्रांति के झंडे को बुलंद किया था। आसिम को रोजी-रोटी की तलाश में कोलकाता जाना पड़ा और वहीं से उन्होंने अपना संघर्ष शुरू किया। साल 1920 में उन्होंने तांती बाग, कोलकाता में ‘जमीयतुल मोमिनीन’ संगठन बनाया, जिसका पहला अधिवेशन 10 मार्च 1920 को हुआ। अप्रैल 1921 में दिवारी अखबार ‘अलमोमिन ‘ की परंपरा की शुरुआत की।

कांग्रेस वाला 440 वोल्ट करंट BJP को भी न लगे…

गांव देहात में एक कहावत है- ‘चौबे चले छब्बे बनने और दुबे बनकर लौटे’। कहीं यही सूरत-ए-हाल BJP की तो नहीं होने वाली? दरअसल सोशल इंजीनियरिंग साधते-साधते BJP लगता है अपनी हिंदूवादी छवि से उबरने के लिए अब मुस्लिम कार्ड खेलने पर उतर आई है। यह ठीक है कि सभी को मिलाकर चलो, क्योंकि अकलियत भी इस मुल्क के ही नागरिक हैं। उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं होना चाहिए। मगर संकट यह है कि अगर BJP मुसलमान परस्त यानी पसमांदा को लुभाने चली है, तो कहीं दांव उल्टा न पड़ जाए। मोमिन तो BJP से नाखुश रहते ही हैं, कहीं हिंदू भी बिगडक़र इसका खेल खराब न कर दे। यानी न माया मिली न मिली राम वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए, जैसा कि कांग्रेस के साथ हुआ। कांग्रेस ने मुस्लिम पक्ष की ऐसी गोट बिछाई कि अंत में उससे मुसलमान भी छिटकते गए और हिंदू भी दूर हो गए थे। यही कारण है एके एंटनी कमेटी ने साल 2014 में कांग्रेस की हार के बाद अपनी रिपोर्ट दी थी कि मुसलमानों को संतुष्ट करने के चक्कर में कांग्रेस ने हिंदुओं से बैर मोल ले लिया और सियासी रसातल में चलती गई। BJP ने रामपुर तथा बरेली में पसमांदा मजलिस जो दुआ दी है। कहीं उसके कारण हिंदू उसे 440 वोल्ट का करंट न लगा दे।

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पसमांदा का प्रथम मतलब

पसमांदा अपने आप में फ़ारसी अल्फ़ाज़ है। इसका अर्थ ऐसे लोगों से हैं जो पीछे छूट चुके हैं। दबाए गए हैं। सताए हुए हैं। प्रताडि़त किए गए हैं। भारत में पसमांदा आंदोलन 100 साल पुराना है। पिछली 20वीं सदी के दूसरे दशक के दौरान मुस्लिम पसमांदा आंदोलन की बुनियाद यहाँ पड़ी थी। यानी कि पिछड़े मुसलमान ही पसमांदा हैं।

पसमांदा की आबादी

हिंदुस्तान में अकलियतों की कुल आबादी तकऱीबन 17 करोड़ 22 लाख है। इनमें 13 करोड़ 77 लाख पसमांदा हैं। यानी 80 फ़ीसदी के कऱीब उनकी तादाद है। यूपी में लगभग तीन करोड़, बंगाल में एक करोड़ नौ लाख तथा बिहार में एक करोड़ तीन लाख पसमांदा बसे हुए हैं। पसमांदा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल 1998 में अली अनवर अंसारी ने किया था। अंसारी बिहार के ही रहे हैं। कालांतर में अली अनवर अंसारी JDU की सदस्यता ग्रहण की और नीतीख कुमार की मुल्क के उच्च सदन यानी राज्यसभा पहुँच गए थे। अंसारी राजनीति ज्वाइन करने के पहले पत्रकार थे।

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मुस्लिम रिज़र्वेशन वाले राज्य…

हिंदुस्तान के कुछेक प्रदेशों में मोमिनों के लिए वहाँ की हुकूमत ने आरक्षण का प्रावधान कर रखा है। इनमें तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश एवं कर्नाटक शामिल हैं। यानी दक्षिण के पाँचों राज्य में इनका सिक्का चलता है। तमिलनाडु में 3.5 प्रतिशत,  केरल में 12 फ़ीसदी, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में चार प्रतिशत मुसलमान इसका फ़ायदा पा रहे हैं।

पसमांदा की प्रमुख जातियाँ

राइन, जुलाहा (अंसारी), क़ुरैशी (कसाई), सिद्दीक़ी, धुनियाँ (मंसूरी), सैफी, इद्रीसी, अल्वी, सलमानी, वनगुर्जर, हवाराती वग़ैरह।

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