क्या है सोलह संस्कार और क्यों आवश्यक है सब के लिए

जयपुर से राजेंद्र गुप्ता


संस्कार का सामान्य अर्थ है- किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। इसी तरह किसी साधारण मनुष्य को विशेष प्रकार की धार्मिक क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा श्रेष्ठ बनाना ही सुसंस्कृत करना कहा जाता है।

संस्कार के पालन से मिलती है आयु-आरोग्यता। भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन संस्कारों के अनुसार जीवन-यापन करने से मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसमें उपनयन संस्कार की विशेष महत्ता है। इस संस्कार के साथ ही बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य के नियम कायदों का पालन करने से आयु-आरोग्यता और जीवन में सफलता मिलती है। आज अभिभावकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे उपनयन संस्कार के नियमों का पालन करें।

संस्कृत भाषा का शब्द है संस्कार। मन, वचन, कर्म और शरीर को पवित्र करना ही संस्कार है। हमारी सारी प्रवृतियों और चित्तवृत्तियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला संस्कार होता है। संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं। व्यक्तित्व निर्माण में हिन्दू संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है। संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं। मुख्यत: तीन भागों में विभाजित संस्कारों को क्रमबद्ध सोलह संस्कार में विभाजित किया जा सकता है।

ये तीन प्रकार होते हैं- (1) मलापनयन, (2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक।

(1) मलापनयन –उदाहरणार्थ किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुए धूल, मल या गंदगी को पोंछना, हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है।

(2) अतिशयाधान- किसी रंग या पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।

(3) न्यूनांगपूरक- अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके हीन अंगों की पूर्ति की जाती हैं, जिससे वह अनाज रुचिकर और पौष्टिक बन सके। इस तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं।

अत: गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को संस्कार कहा जाता है। हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का बहुत महत्व है। वेद, स्मृति और पुराणों में अनेकों संस्कार बताए गए है किंतु धर्मज्ञों के अनुसार उनमें से मुख्य सोलह संस्कारों में ही सारे संस्कार सिमट जाते हैं अत: इन संस्कारों के नाम है-

(1) गर्भाधान संस्कार,

(2) पुंसवन संस्कार,

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार,

(4) जातकर्म संस्कार,

(5) नामकरण संस्कार,

(6) निष्क्रमण संस्कार,

(7) अन्नप्राशन संस्कार,

(8) मुंडन संस्कार,

(9) कर्णवेधन संस्कार,

(10) विद्यारंभ संस्कार,

(11) उपनयन संस्कार,

(12) वेदारंभ संस्कार,

(13) केशांत संस्कार,

(14) सम्वर्तन संस्कार,

(15) विवाह संस्कार और

(16) अन्त्येष्टि संस्कार।

संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों हैं जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का योग्य सदस्य बनाकर उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करें। संस्कार ही मनुष्य को सभ्यता का हिस्सा बनाए रखते हैं। लेकिन वर्तमान में हिंदुजन उक्त सोलह संस्कार मनमाने तरीके से करके मत भिन्नता का परिचय देते हैं, जो कि वेद विरुद्ध है। वेदों के अलावा गृहसूत्रों में संस्कारों का उल्लेख मिलता है। स्मृति और पुराणों में इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। वेदज्ञों अनुसार गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य को विशिष्ट विधि व मंत्रों से करने को संस्कार कहा जाता है। यह इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति जब शरीर त्याग करे तो सद्गति को प्राप्त हो।

कर्म के संस्कार- हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं। ये संस्कार ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे संचित कर्म कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है।

अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। उक्त संस्कारों के अलावा भी अनेकों संस्कार है जो हमारी दिनचर्या और जीवन के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से जुड़े हुए हैं, जिन्हें जानना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य माना गया है और जिससे जीवन के रोग और शोक मिट जाते हैं तथा शांति और समृद्धि का रास्ता खुलता है। यह संस्कार ऐसे हैं जिसको निभाने से हम परम्परागत व्यक्ति नहीं कहलाते बल्कि यह हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं।

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