राजेश श्रीवास्तव
इन दिनों प्रदेश में सबसे ज्यादा चर्चा अगर सियासी गलियारों में किसी खबर को लेकर है तो वह है अखिलेश और शिवपाल के एक होने की। यह खबर केवल इतनी तक नहीं है कि शिवपाल ने अपनी पार्टी का विलय समाजवादी पार्टी में कर लिया। यह पहला मौका नहीं है जब अखिलेश ने मौके-बे-मौके अपने चाचा को अपने पाले में खड़ा किया और मतलब निकल जाने के बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। लेकिन इस बार स्थितियां उलट हैं अखिलेश ने डिंपल को जब मैदान में उतारा तभी उन्हें भान हो गया था कि बिना चाचा के डिंपल की जीत मुमकिन नहीं है। इसीलिए उन्होंने खुद चाचा के घर जाकर समझौता किया। उनकी मान-मनौव्वल की। इतना तक तो ठीक था। लेकिन सवाल यह है कि इस पूरे घटनाक्रम को देखो तो पता चलता है कि सब कुछ दांव पर शिवपाल यादव का ही लगा है।
फिर ऐसे में शिवपाल ने आखिर इतना बड़ा त्याग क्यों किया। यह सर्वविदित है कि अब शिवपाल को अखिलेश का साथ देने की कीमत चुकानी पड़ेगी। उनकी सुरक्षा पहले ही कम कर दी गयी है। उनका सरकारी आवास भी खतरे में हैं। जिस रिवर फ्रंट घोटाले की जांच ठंडे बस्ते में डाल कर रखी गयी थी, अब उसकी जांच भी तेज हो गयी है। यही नहीं शिवपाल समेत 14 अधिकारियों को ईडी ने नोटिस भोज कर जांच के लिए तलब भी किया है। हो सकता है अन्य कई मुद्दों से भी शिवपाल को अभी दो-चार होना पड़े। फिर अखिलेश के साथ देने की हिमाकत और दुस्साहस चाचा ने कैसे उठा लिया। जानकार बताते हैं कि दरअसल शिवपाल यादव लंबे समय से अपने परिवार और समाजवादी पार्टी से दूरी बनाकर चल रहे थे। उन्होंने भाजपा के साथ गलबहियां करने की भी कोशिश की। लेकिन भाजपा ने उन्हें तवज्जों नहीं दिया। इतना ही नहीं, शिवपाल के प्रयासों के चलते ही अपर्णा यादव भाजपा में शामिल हुईं लेकिन आज तक उनको सदस्य के अलावा कुछ नहीं मिला। ऐसे में शिवपाल यादव को लगने लगा था कि अब उनका सियासी जीवन संकट में है। खुद अपनी पार्टी बनाकर भी उन्होंने हश्र देख लिया था कि उससे कुछ खास नहीं हो पा रहा था।
पिछले विधानसभा चुनावों में उनका सिंबल भी छीन लिया गया था। ऐसे में उनके सामने खुद और उनके बेटे आदित्य यादव के भविष्य को लेकर पहाड़ सा सवाल दिख रहा था। इसीलिए जब बड़े भाई मुलायम सिंह यादव का निधन हुआ तब उन्होंने पूरे परिवार के अभिभावक की भूमिका निभायी। खुद अखिलेश के साथ कांदो से कांधा मिलाकर खड़े रहे और अखिलेश को पिता की कमी का एहसास नहीं होने दिया। लेकिन उन्होंने इस बार पहले जैसी गलती नहीं की और अपनी ओर से कोई सियासी प्रस्ताव नहीं दिया। और जब अखिलेश यादव ने डिंपल को मैदान में उतारा तब भी कु छ नहीं बोले जब नामांकन हुआ तब भी नहीं शामिल हुए।
लेकिन कोई बयान भी नहीं दिया। करीबी बताते हैं कि शिवपाल खुद चुनाव लड़ने की योजना बना रहे थे। लेकिन जब उनके विश्वस्त लोगों ने बताया कि आप चुनाव लड़ेंगे तो जीत मुश्किल होगी । ऐसे में शिवपाल ने अखिलेश की राह तकी। और जब अखिलेश डिंपल के साथ मुलाकात करने आये तो चाचा शिवपाल ने अपनी शर्तों पर बातें की। बच्चों के सिर पर हें और आशीर्वाद का हाथ तो रखा लेकिन अपनी बात भी रख दी। इसी सब का नतीजा था कि चाचा ने पूरी ताकत लगा दी और डिंपल यादव को रिकार्ड मतों से जीत दिलायी। अखिलेश को भान था कि यह जीत चाचा के प्रयासों का ही नतीजा है। इसलिए अखिलेश ने इस बार वायदे के मुताबिक जीत के तुरंत बाद चाचा शिवपाल को पार्टी में सस्मान वापस कर लिया। चाचा ने बड़ा मन दिखाते हुए तुरंत अपनी पार्टी का अस्तित्व खत्म कर दिया।
अब देखना यह होगा कि चाचा को जिम्मेदारी क्या मिलती है। हालांकि अखिलेश ने यह साफ कर दिया है कि चाचा को बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी। जबकि प्रवक्ता यह कहते घूम रहे हैं कि चाचा को नेताजी की तरह सम्मान मिलेगा। अब देखना यह है कि शिवपाल ने तो अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। भतीजा इसकी क्या कीमत अदा करेगा।