अधूरे रह गये सपने, और घोड़े पर प्रेस लिखवाकर चलने की हसरत

 अनिल कुमार 


जिंदगी सरल नहीं होती है। सोचो कुछ, होता कुछ और है। चाहो कुछ, मिलता कुछ है। खासकर हम जैसे निम्‍न मध्‍यमवर्गीय लोगों को अधूरे सपनों के साथ ही इहलोक से परलोक प्रस्‍थान कर जाना होता है। इंटरमीडिएट के बाद हम अपने दोस्‍त दिलीप के संग संगम नगरी प्रयागराज में पढ़ना चाहते थे, पर पिताजी ने बाबा भोलेनाथ की नगरी बनारस में पढ़ाई करवाई। इसका जो नुसकान हुआ, उसे बस हमारा दिल जानता है। दिलीप आज बात-बात में बताता रहता है कि रायशुमारी जिले के जो एडीएम हैं, वो हमारे हास्‍टल के सीनियर हैं। लंकापुर के जो डीएम हैं, वह हमारे हास्‍टल का जूनियर है। हियां लूटनगर के जो ये हैं, वो हास्‍टल के वो हैं, हुआं कमीशनपुर का जो वो हैं, हास्‍टल के ये हैं।

अब हम बनारस के जिस यूनिवर्सिटी में पढ़े वहां से निकले लोगों के बारे में अगर हम बताना भी चाहें तो यही बताना पड़ेगा कि मनोहरपुर जिले के जो जाने माने हिस्‍ट्रीशीटर हैं, वह हमारे हास्‍टल के सीनियर हैं। चोरनगर के नेताजी जो भ्रष्‍टाचार में फंसे हैं, वह हमारे हास्‍टल के जूनियर हैं। फलाने कॉलेज में जो इतिहास पढ़ाते हैं, वह हमारे हास्‍टल में बगल के 302 नंबर कमरे में रहते थे। रामनगर चौराहे पर जो बीस लोगों को जुटाकर बकलोली और गलचौरा करते हैं, वह हास्‍टल में हमारे रूम पार्टनर थे। पिताजी अगर हमारा सपना पूरा होने दिये होते तब हम भी हिस्‍ट्रीशीटर सीनियर की जगह फलाने जिले के डीएम को हास्‍टल का सीनियर लिख रहे होते। खैर, निम्‍न मध्‍यमवर्गीय लोगों के सपने पूरे भी कहां होते हैं? एक सपना था कि किसी लड़की को गुंडे छेड़ेंगे तो मैं उसे बचाऊंगा। गुंडों को मारकर भगाऊंगा, फिर जब वो हमसे प्रभावित होगी तब उसके साथ राजदरी के जंगल में जाकर गाना गाऊंगा। एक गाना भी लिख लिया था, संगीतबद्ध भी खुद ही कर दिया था, लेकिन यह सपना भी कभी पूरा नहीं हो पाया। बस अमिताभ बच्‍चन को यह सब करते देखकर संतोष करना पड़ा। सपने टूटते रहे, मैं संतोष करता रहा। मेरे सपने तो टूट ही रहे थे, पिताजी के भी आधे-अधूरे सपने ही पूरे हो रहे थे। पिताजी चाहते थे कि मैं पढ़-लिखकर कुछ काम का आदमी बन जाऊं। मैं बड़ा होकर आदमी तो बन गया लेकिन किसी काम का नहीं बन पाया।

जब तक नस्ल भेद होगा!

मेरा एक और सपना था कि एक अदद् सरकारी नौकरी हो जाये, ऊपरी आमदनी हो, तब गले में एक सोने की मोटी चेन पहनकर, नाइसिल पाऊडर लगाकर, शर्ट के ऊपर के दो बटन खोलकर गांव में टहलूं, क्‍योंकि आप कितने भी बड़े टाटा-बिड़ला-सिंघानिया हो जायें, आपके पास सरकारी नौकरी नहीं है, गले में सोने की चेन नहीं है और शर्ट के ऊपर के दो बटन खोलकर नहीं टहल रहे हैं तो हमारे गांव वालों की नजर में आपकी कोई इज्‍जत नहीं है। मैंने बहुत कोशिश की, चपरासी से लेकर आईएएस तक के फार्म भरे, लेकिन मेरा यह सपना भी अधूरा रह गया। गांव वालों की नजर में दिलीप की इज्‍जत है, क्‍योंकि उसके पास सरकारी नौकरी और सोने की चेन दोनों है।

जब कहीं सफलता नहीं मिली तब हमारे गांव के बनूच्‍चर अली ने कहा कि भाई अब सरकारी नौकरी और सोने की चेन नहीं है तो गांव वालों की नजरों में उठने का एकमात्र उपाय है कि कहीं पत्रकार बन जाओ। सरकारी नौकरी के बाद केवल पत्रकारिता ही ऐसा पेशा है, जिसे गांव वाले थोड़ा सम्‍मान देते हैं। मैं ‘डेली न्‍यूज वेरी फास्‍ट’ के संपादक पीटर मिश्रा से मिला। उन्‍होंने पूछा कहां तक पढ़े हो? मैंने बताया कि बनारस तक पढ़ा हूं। उन्‍होंने पूछा कि इलाहाबाद तक नहीं पढ़े हो? मैंने कहा नहीं, तब उन्‍होंने कहा कि तुम पत्रकारिता में सफल नहीं हो पाओगे। तुमसे बातचीत करके लग रहा है कि तुम्‍हें ढंग से फेंकना भी नहीं आता है। पत्रकारिता तुमसे नहीं हो पायेगा, पत्रकार बनने के कोई गुण तुम में नहीं हैं।

मैंने हार नहीं मानी। उनकी चरणों में लेट गया। बड़े अनमने ढंग से उन्‍होंने कहा कि अच्‍छा उठो और बताओ हमलोगों के राज्‍य में कितने मंडल हैं? मैंने कहा कि खरमंडल, वायुमंडल, सौरमंडल, रानू मंडल, दिलीप मंडल, बीपी मंडल, मुगलसराय मंडल, दानापुर मंडल। जवाब से मिश्रा जी खुश हुए और कहा कि तुम्‍हारा नॉलेज ठीक है, पर तुम पर मुझे थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, पत्रकार बन सकते हो। उन्‍होंने कहा कि पत्रकार बनने के लिये दस हजार रुपये की सिक्‍योरिटी देना होगा। पांच हजार रुपये देकर अखबार की एजेंसी लेनी होगी, और हर महीने विज्ञापन देना होगा। अखबार में तनख्‍वाह देना बेइज्‍जती मानी जाती है, इसलिये हम बेइज्‍जत होने वाला कोई काम नहीं करेंगे। प्रेस कार्ड देंगे, उससे जो कमा लोगे वह तुम्‍हारी तनख्‍वाह होगी।

पैसा-रुपया जमा कर दो दिन में मैं पत्रकार बन गया। बचपन से लेकर जवानी तक यही एकमात्र सपना रहा जो पूरा हुआ। कार्ड मिलते ही घर के बाहर, साइकिल पर बड़े अक्षरों में प्रेस लिखवा लिया। दिन भर अइंठा-अइंठा रहने लगा। अइंठकर चलने की आदत हो गई। कार्ड दिखाकर दो विक्रम वालों को गाली भी दिया। एक सब्‍जी वाले को कार्ड दिखाकर मार भी दिया। पत्रकारिता नस नस में समा गई। मेरे कई पत्रकार दोस्‍त कार पर प्रेस लिखाकर चलते हैं, लेकिन मेरा सपना है कि मैं घोड़ा पर प्रेस लिखाकर चलूं, क्‍योंकि हम जिस जाति से आते हैं, वह फिल्‍मों में फुटपाथ पर घोड़े दौड़ाकर ही गरीब-मजलूमों को कुचलती थी, कार चढ़ाकर नहीं। देखते हैं घोड़ा पर प्रेस लिखाकर चलने का सपना पूरा होता है या अधूरे ख्‍वाब के साथ परलोक गमन करना पड़ता है।

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