राजनीतिज्ञों के लिए ‘धर्म’ ढाल बन गया है-

डॉ. ओ0पी0 मिश्र

भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं इसलिए संविधान निर्माताओं ने संपूर्ण भारत के लोगों के बीच भाईचारा बना रहे के ख्याल से ही संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया था। इसका एकमात्र उद्देश्य था कि धर्म से राजनीति को हटा दिया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं सका और आज भी राजनीति में धर्म और संप्रदाय में भेदभाव विद्यमान है। आज के राजनीतिक दल उसमें भाजपा, कांग्रेस के साथ ही सभी शामिल हैं धर्म और संप्रदाय को राजनीतिक सफलता के रूप में मानते और अपनाते हैं। इसे अगर दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय राजनीति में धर्म और सांप्रदायिकता का प्रभाव बढ़ने से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विकास का मार्ग यकीनन अवरुद्ध हुआ है। समाजवादी विचारक डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि धर्म और राजनीति के दायरे अलग अलग है परंतु दोनों की जड़े एक ही हैं। उनके अनुसार धर्म दीर्घकालीन राजनीति है जबकी राजनीति अल्पकालीन धर्म है। डॉक्टर लोहिया के अनुसार धर्म का कार्य भलाई करना और उसकी स्तुति करना है जबकि राजनीति का कार्य बुराई से लड़ना तथा उसकी निंदा करना है। लेकिन इसमें समस्या तब उत्पन्न हो जाती है जब राजनीति बुराई से लड़ने के स्थान पर केवल निंदा करना शुरु करती है। हमारा धर्म उसके धर्म से श्रेष्ठ है ऐसा कहने की सोच और मानसिकता धर्म की राजनीति में ‘घी’ का काम करती है।

नतीजतन जातिवाद, संप्रदायवाद, वर्गवाद तथा भाषावाद की संभावनाएं बढ़ती है तथा टकराव की नौबत आती है। जबकि संविधान ने हमें अपने धर्म के मुताबिक पूजा पाठ करने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च जानेकी आजादी दी है। लेकिन आज धर्म राजनीतिक दलों के लिए ‘ढाल’ बन गया है वे धर्म का उपयोग धर्मांधता बढ़ाने के लिए करने लगे हैं, कट्टरता बढ़ाने के लिए करने लगे हैं और इसमें कमोबेश सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। लेकिन बाजी लगी है भाजपा के हाथ क्योंकि उसने अपनी राजनीति को ही धर्म से जोड़ लिया है। उसका प्रत्येक राजनीतिक कदम धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत होता लिहाजा बहुसंख्यक हिंदू समाज उसे अपना सबसे बड़ा हितैषी मानता है । और यही भाजपा की सबसे बड़ी पूंजी है। उसे या भाजपा की सरकार को जब भी लगता है कि उसकी परफॉर्मेंस को लेकर लोगों में आक्रोश है तो उस आक्रोश को सुलझाने या समझाने के बजाये आक्रोशित लोगों के सामने वह धर्म की ढाल लेकर आ जाता है और लोग (मतदाता) धर्म का स्वाद चखने के चक्कर में अपनी मूलभूत समस्याओं को भूल जाते हैं। चतुर राजनीतिज्ञ उनका इस तरह से ब्रेनवाश करते हैं कि उनको लगता है कि यदि भाजपा सत्ता से दूर हो गई तो धर्म खतरे में पड़ जाएगा।

यही काम गैर भाजपा दल के राजनीतिज्ञ करते हैं और लोगों (मतदाताओं) को विश्वास दिलाते हैं कि यदि भाजपा सत्ता में आ गई तो धर्म खतरे में पड़ जाएगा। कहने का मतलब यह है कि राजनीति और धर्म का घालमेल सभी कर रहे हैं । चाहे अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवाना हो या फिर शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध कानून बना देना हो, या फिर एक मुखी रुद्राक्ष पहन कर मंदिर के गेट पर फोटो खिंचवाना हो, या फिर संगम तट पर तिलक लगाकर नाव में बैठकर चलना हो, या फिर चुनावी सभाओं में हनुमान चालीसा का पाठ करना हो। कुल मिलाकर सभी ने शपथ तो धर्मनिरपेक्ष राज्य की ली लेकिन धर्म को अपना कवच बनाने से कतई परहेज नहीं किया। अभी करीब 15 दिन पहले समाजवादी पार्टी के संस्थापक तथा पूर्व रक्षा मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के निधन को यदि ‘इवेंट’ बनाकर पेश किया गया और सभी वे धार्मिक अनुष्ठान किए गए जो सनातनी हिंदू धर्म के मानने वाले करते हैं। तो वह भी धर्म और राजनीति के घालमेल के लिए ही किए गए ताकि समाज में संदेश जा सके कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। जबकि इससे पहले जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव की माता जी का निधन हुआ था तो सारे कार्यक्रम मुलायम सिंह जी ने तीसरे दिन संपन्न कर दिए थे। जिसके अंतिम दिन का साक्षी मैं स्वयं था।

क्योंकि उस दिन हवन होना था। कहने का मतलब यह है कि धर्म को राजनीति से इतनी आसानी से अलग नहीं किया जा सकता और यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर ना तो कोई जानता है और ना कोई उसे उस जज्बे के साथ पेश कर सकता है। तभी तो वह कहते हैं कि गंगा मैया ने मुझे बुलाया है, भगवान ने मुझे किसी खास मकसद से खास काम के लिए भेजा है। काशी, अयोध्या और महाकाल (उज्जैन) का जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि इन पवित्र धार्मिक स्थानों को अपना पुराना गौरव मिल रहा है। वे यही रुकते नहीं बल्कि आगे कहते हैं अब केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहब को भी सुविधाओं से जोड़ा जा रहा है। जबकि पिछली सरकारों ने अपने नागरिकों को इन स्थानों तक जाने की सुविधाएं देना तक जरूरी नहीं समझा। जिस समय वे इस तरह का भाषण करते हैं तो लोग महंगाई, बेरोजगारी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और मूलभूत समस्याओं को भूल जाते हैं और धर्म की उन्माद में मस्त हो जाते हैं। मैं यहां पूर्व प्रधानमंत्री तथा भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी बाजपेई के एक भाषण के कुछ अंश यहां लिख रहा हूं। यह भाषण उन्होंने 17 फरवरी 1961 को लोकसभा में पूजा स्थलों का दुरुपयोग के संबंध में दिया था। और कहा था कि हमने एक असांप्रदायिक राज्य का निर्माण किया है। इसका स्वाभाविक पर्याय यह है कि राजनीति और संप्रदाय को अलग अलग रखा जाना चाहिए।

वे आगे कहते हैं कि कोई भी दल हो, ‘पूजा’ का कोई भी स्थान हो उसको अपनी राजनीतिक गतिविधियां वहां चलाने की छूट नहीं होनी चाहिए। उनका कहना था कि अतीत काल में स्वतंत्रता के लिए जितने संघर्ष हुए, वे सब धर्म के साथ जुड़े हुए थे लेकिन आज पूजा की पद्धति को और राजनीति को जोड़ने का कोई औचित्य नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेई जी एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि लोकतंत्र को संकट उन लोगों से है जो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी कीमत को बहुत ऊंची और किसी हथकंडे को बहुत नीचा नहीं समझते। भारतीय जनता को सत्ता लोलुप राजनीतिज्ञों के इस खतरनाक खेल को समझना होगा और साम्यवादियों, संप्रदायवादियों तथा अवसरवादियों के घृणित गठबंधन को विफल करने के लिए खड़ा होना होगा। लेकिन आज सत्ताधारी दल के रहनुमा क्या ऐसा कर पाएंगे? क्या वे राजनीति और धर्म को अलग-अलग पलड़ो में रख पाएंगे? शायद नहीं क्योंकि अकेले अयोध्या में लाखों- लाख दीप जलाकर आप हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को अपनी राजनीति से जोड़ सकते हैं लेकिन हर घर में दीप जले, हर झोपड़ी में दिवाली मनाई जाए ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि आपका लक्ष्य वोट और चुनाव के जरिए सत्ता प्राप्त करना है इस काम में प्रत्येक राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से लगा है।

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