यूपी की ब्यूरोक्रेसी में भी फिट नहीं बैठ रहे कायस्थ, प्रमुख पदों से कर दिये गये गायब
कायस्थ समाज की खामोशी पड़ रही भारी, प्रवक्ता और मंत्री भी हैं खामोश
राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ। कायस्थ समाज स्वभाव से मूलत: शान्तिप्रिय और कानून-व्यवस्था के प्रति संवेदनशील कायस्थ समाज अपनी राजनीतिक, सामाजिक या किसी भी तरह की अन्य मांगों को लेकर कभी कोई उग्र आंदोलन नहीं करता। इतना ही नहीं, सालों से बीजेपी का कोर वोट बैंक होने के बावजूद, अपने राजनीतिक भागीदारी के लिए ना तो पार्टी पर कभी दबाव की कोई रणनीति अपनाई और ना ही कोई राजनीतिक धमकी दी। मगर लगता है शायद यही संवेदनशीलता, शालीनता और शान्तिप्रियता ही इस समाज की उपेक्षा का कारण बन चुकी है।
अपनी इस राजनीतिक दुर्दशा के लिए कायस्थ समाज भी स्वयं जिम्मेदार है। कायस्थों में आज भले ही थोड़ी बहुत एकजुटता देखने को मिल रही हो मगर अब भी इस समाज में एकजुटता की काफी कमी है। जब सभी जातियां अपने को मजबूत करने में लगी थीं, अपनी बिरादरी के लोगों की राजनीतिक हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रही थीं और चुनावों में अपनी बिरादरी के पक्ष में वोट करती थीं भले ही वो किसी भी पार्टी से खड़ा हो। तब राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े कायस्थ समाज बिना किसी राजनीतिक महात्त्वाकांक्षा के बीजेपी को ही वोट देता रहा।
पिछले चुनावों में ऐसे कई मौके आए जब अन्य दलों ने कायस्थ बाहुल्य इलाकों में कायस्थ प्रत्याशी खड़ा किया मगर एकजुटता की कमी के चलते कायस्थ ने अपनी बिरादरी के लोगों को भी समर्थन नहीं दिया। कायस्थों की इसी सोच का बीजेपी ने फायदा भी उठाया। बीजेपी ये अच्छी तरह समझती है कि राष्ट्रवादी सोच रखने वाला कायस्थ समाज उसे छोड़कर कहीं नहीं जाएगा औऱ हकीकत भी यही है कि कायस्थ हमेशा से बीजेपी को ही वोट करता आया है। यही नहीं बीजेपी का ठप्पा लगा होने की वजह से कांग्रेस, बसपा और सपा जैसे राजनीतिक दलों में भी कायस्थों को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती। उन्हें लगता है कि कितना भी कर लो ये जाएंगे बीजेपी के साथ ही।
कायस्थ समाज अब अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहता है। वो यह समझ चुका है कि अगर अब भी वो नहीं चेता तो आने वाले वक्त में राजनीतिक रूप से वो शून्य हो जाएगा। कायस्थ समाज आरक्षण की मार के चलते पहले ही सरकारी नौकरियों से तकरीबन साफ हो चुका है। मगर अब बाकी जातियों की तरह वो भी अपनी बिरादरी के लिए खड़ा हो रहा है। ऐसा नहीं है कि उसकी इस पहली अंगड़ाई में ही सब कुछ हासिल हो जाएगा। इस शुरुआत को अंजाम तक पहुंचने में वक्त लगेगा और वक्त तो आएगा ही।
कायस्थ को ओबीसी बनाने का दांव
ओबीसी सूची से जुड़ा कानून संसद से पास होते ही खेला शुरू हो गया है। केंद्र सरकार ने ओबीसी सूची में बदलाव का अधिकार राज्यों को देने का बिल जिस दिन संसद में पेश किया उसी दिन उत्तर प्रदेश सरकार ने 39 जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करने की तैयारी कर ली। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के मुताबिक उसके पास 7० जातियों के संगठनों ने प्रतिवेदन दिया था, जिसमें से 39 जातियों को चुना गया है और उनको ओबीसी सूची में शामिल करने का सिफारिश राज्य सरकार को भेजी जाएगी। उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्बारा तैयार की गई सूची बहुत दिलचस्प है। इसमें भाजपा के कोर समर्थक माने जाने वाले वैश्य समुदाय की कई जातियां हैं और कायस्थ भी हैं।
सोचें, कायस्थ मुगलों और अंग्रेजों के राज में भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नहीं रहे हैं। इसके बावजूद राज्य सरकार उनको पिछड़ी जाति बना रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसका बड़ा असर पिछड़ा आरक्षण पर होगा। ओबीसी सूची में संशोधन का अधिकार राज्यों को देने के कानून पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा था कि भाजपा यादव और कुर्मी को आरक्षण की सूची से बाहर कर देगी। भले सरकार इन जातियों को या किसी जाति को सूची से बाहर न करे पर वैश्य समुदाय की जातियों और कायस्थ को ओबीसी में शामिल करके आरक्षण में प्रतिस्पर्धा जरूर बढ़ा दी है। यह भी कहा जा रहा है कि रविशंकर प्रसाद को मंत्री पद से हटाने के बाद केंद्र में कोई कायस्थ मंत्री नहीं है इसलिए कायस्थों को इस तरह से खुश करने का दांव चला गया है।
हमारे कायस्थ समाज के लोग आईएएस और आईपीएस समेत अन्य अधिकारी तो बनते हैं, किन्तु सक्रीय राजनीती में कायस्थ वर्ग का हस्तक्षेप अभी बहुत ज्यादा नहीं है। अगर हर परिवार से एक सदस्य भी किसी राजनितिक दल का सदस्य बनता है तो कायस्थ समाज पर हो रहा अन्याय, अत्याचार, शोषण रुक सकता है। कभी कायस्थ समाज भारत मे प्रशासनिक सेवा व राजनीती मे 35 % तक था। परन्तु वर्तमान बेतुका आरक्षण नीति ने 3% तक कर दिया है। अगर कायस्थ समाज एकजुट हो जाये तो उत्तर प्रदेश, बिहार में 1 या 2 सांसद चुन के आते हैं वो 15 से 17 उत्तर प्रदेश में, 5 से 7 बिहार में और देश मे 4० से 5० सांसद चुन के आ सकते है।
2०22 में किसे वोट करेगा कायस्थ
इस बार के चुनावों में कायस्थ समाज किधर जाएगा ? क्या अपनी बिरादरी देखकर कर प्रत्याशी के पाले में जाएगा या फिर अपनी परंपरागत शैली में बीजेपी को ही वोट देगा? ये कुछ सवाल हैं जो इस वक्त उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिज़ा में तैर रहे हैं। सच कहें तो सवाल ये भी नहीं है कि कायस्थ किधर जाएगा ? सवाल ये है कि आखिर बीजेपी का कोर वोट बैंक समझे जाने वाले कायस्थ मतदाताओं को लेकर इस बार इतनी चर्चा और हाय-तौबा क्यों है ? इसकी दो वजहें हैं पहला बीजेपी का कोर वोट बैंक होने के बावजूद पार्टी में राजनीतिक हिस्सेदारी ना मिलने से कायस्थों की नाराज़गी, दूसरा कायस्थों में धीरे-धीरे ही सही मगर राजनीतिक जागरूकता आ रही है। इस बार विस चुनाव में कायस्थ समाज अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहता है।
यूपी की बीजेपी सरकार में कायस्थ मंत्री का हाल
कभी उत्तर प्रदेश सरकार में इकलौते कायस्थ मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह से बात करें तो आपको यह एहसास भी नहीं होगा कि वह कायस्थ समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। दिलचस्प तो यह भी है कि पिछले दिनों उन्होंने बयान भी दिया था कि वह कायस्थों की वजह से मंत्री नहीं हैं। यानि उन्होंने कायस्थ समाज से यह इतराने का भी मौका ले लिया कि वह कायस्थों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भाजपा मीडिया टीम में कायस्थ बेहद शांत, सौम्य
अगर आप भाजपा की मीडिया प्रवक्ताओं से बातचीत करेंगे तो इकलौते कायस्थ प्रवक्ता हरीशचंद्र श्रीवास्तव वहां मिलेंगे। बेहद शांत, सौम्य, सरल, । साफगोई से अपनी बात रखने वाले। वह पहले मीडिया प्रभारी थे लेकिन अब उन्हें प्रवक्ता पद से ही संतुष्ट करने की कोशिश की गयी। यही नहीं, अन्य प्रवक्ताओं को आप देखेंगे तो तेज, जोरदार ढंग से अपनी बात रखने वाले, हावी दिखने वाले प्रवक्ता देखेंगे।
यूपी की ब्यूरोके्रसी में किसी अहम पद पर नहीं कायस्थ
एक समय था जब देश ही नहीं उत्तर प्रदेश की ब्यूरोके्रसी में भी कायस्थों की बड़ी संख्या हुआ करती थी। लेकिन इस समय किसी बड़े पद पर या यूं कहें कि किसी विभाग के अपर प्रमुख सचिव पद पर आपको कायस्थ नहीं मिलेगा। डीएम और एसएसपी ढूंढेंगे तो उनकी संख्या भी दोनों को मिलाकर 15 के अंदर ही है। तो क्या कायस्थ अधिकारी इतने नाकारा हो गये हैं या फिर जान-बूझकर दुश्मनी निभायी जा रही है।
पिछलग्गू बनने की तो नहीं मिल रही सजा
कायस्थ मतदाता भाजपा का पिछलग्गू बन गया है। भाजपा के नेता कहते भी हैं कि कायस्थ कहां जायेगा हमारे सिवा, कहीं यह मजबूरी ही हमारे समाज की कमजोरी तो नहीं बन रही, इस पर विचार करना होगा।