बंकिमचंद्र चटर्जी ने कलम उठाई और लिख दिया – “वंदे मातरम”। वो दौर था जब 1857 की क्रांति को कुचलकर अंग्रेज भारत को फिर से गुलाम बना चुके थे। बंकिम ने मां दुर्गा के रूप में भारत मां की पूजा की। गीत इतना ताकतवर था कि 1905 में बंग-भंग आंदोलन में ये नारा बन गया। अंग्रेज डर गए। स्कूलों में गाना बैन कर दिया, गाने वालों को जेल भेजा। लेकिन जितना दबाया, उतना ही फैला। लाला लाजपत राय, तिलक, अरविंदो, सुभाष – सबकी जुबान पर बस यही था। आजाद हिंद फौज का युद्ध-गीत यही था। गांधीजी ने इसे “राष्ट्रगीत” कहा। टैगोर ने धुन बनाई।
फिर 1947 में आजादी आई। संविधान सभा में सवाल – राष्ट्रगान कौन सा? वंदे मातरम के पक्ष में सबसे जोरदार आवाजें। लेकिन आपत्तियां भी आईं। गीत के आगे के अंतरे में दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती का जिक्र। मौलाना आजाद, कुछ मुस्लिम सदस्यों, सिख-ईसाई नेताओं ने कहा – ये धार्मिक लगता है। सबके लिए गाना मुश्किल होगा। नेहरू ने भी यही राय दी। राजेंद्र प्रसाद ने अंतिम फैसला सुनाया – जन गण मन राष्ट्रगान, वंदे मातरम राष्ट्रगीत। पहले दो अंतरे ही गाए जाएंगे।
2025 में 150वां साल। पीएम मोदी ने लोकसभा में कहा – “50 साल पर गुलामी थी, 100 साल पर आपातकाल था। अब 150 साल पर हमें इसे फिर से गौरव दिलाना है।” योगी सरकार ने यूपी में स्कूलों में अनिवार्य कर दिया। भाजपा कह रही – कांग्रेस ने 1937 में टैगोर की सलाह पर भी पूरा गीत नहीं अपनाया, ये अन्याय था। कांग्रेस जवाब दे रही – टैगोर ने खुद पहले दो अंतरे सुझाए थे। विवाद पुराना है। एक तरफ वो लोग जो कहते हैं – वंदे मातरम आजादी की लौ था, इसे पूरा सम्मान दो। दूसरी तरफ वो जो कहते हैं – धर्मनिरपेक्षता सबसे ऊपर, जबरदस्ती ठीक नहीं। सपा, कांग्रेस कह रही – संविधान ने स्वतंत्रता दी है, गाना या न गाना व्यक्तिगत चुनाव है। भाजपा कह रही – जो भारत माता का नहीं, वो देश का कैसे?
सच ये है कि वंदे मातरम और जन गण मन दोनों भारत की आत्मा हैं। एक मां की पूजा है, दूसरा जनता का गान। दोनों को अपना-अपना सम्मान मिला। 150 साल बाद भी ये गीत जिंदा है, क्योंकि ये सिर्फ शब्द नहीं – वो जज्बा है जिसने गुलामी की जंजीरें तोड़ी थीं। विवाद हो या न हो, हर भारतीय के दिल में “वंदे मातरम” गूंजता है। बस तरीका अलग है।
