दो टूक :  इलेक्टोरल बॉन्ड : कहीं रिश्वत खोरी का नया फार्मूला तो नहीं

राजेश श्रीवास्तव

इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बॉन्ड की रकम और भुनाने वाली पार्टियों के आंकड़े सामने आ चुके हैं। करोड़ों रुपये का चुनावी चंदा लेने वाली राजनीतिक पार्टियों के बीच घमासान मचा हुआ है। ऐसे में चर्चा इस बात की भी है कि लोकसभा चुनाव पर चुनावी बॉन्ड के मुद्दे का कितना असर होगा, असर होगा भी या नहीं। इन आंकड़ों पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। हालांकि, किस कंपनी ने किस पार्टी को चंदा दिया यह स्पष्ट नहीं होने के चलते मामला फिर कोर्ट पहुंचा और कोर्ट ने नए सिरे से आदेश जारी किया। इस पर सियासत भी जमकर हो रही है।

हम सभी जानते हैं कि पहले कैसे बैग के बैग पार्टियों के पास पहुंचते थे। कंपनियों को फायदा पहुंचाने का सवाल जहां तक सवाल इसमें कई नाम सामने आ रहे हैं। लेकिन, यह तय करना होगा कि क्या इन कंपनियों को कोई अनुचित फायदा पहुंचाया गया। इसका जवाब तब मिलेगा जब डेटा की मैपिग होगी। ये जरूर है कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने सभी पार्टियों के लिए एक नई मुश्किल खड़ी कर दी। विपक्ष की तरफ से जो आरोप लगाया जा रहा था कि अदाणी या अंबानी समूह की ओर से सत्ताधारी पार्टी को बहुत चंदा दिया गया, अभी जो आंकड़ें आए हैं उसमें ऐसा कुछ नहीं दिखा। फ्यूचर गेमिग जैसी कंपनिया जिस पर ईडी की रेड पड़ी। उससे करोड़ों रुपये जब्त हुए। क्या ऐसी कंपनियों को चंदा देने के लिए अनुमति देनी चाहिए यह भी देखना होगा। इलेक्टोरल बॉन्ड के पीछे एक अवधारणा थी कि इसके जरिए सूटकेस कल्चर को खत्म किया जाए। एक तरफ जनता है और दूसरी तरफ पार्टियां हैं। अब नया निर्देश जो आया है जिसमें यूनिक नंबर दीजिए। जब ये टेबुलर चार्ट बनेगा और चीजें क्लियर होंगी तभी पूरा सच सामने आएगा।

इलेक्टोरल रिफॉर्म जरूर होने चाहिए। कोई कंपनी क्यों चंदा दे रही है जिस पर कई आरोप हैं, या कोई शेल कंपनी है। तो उस पर सवाल भी उठते हैं। यह समझना पड़ेगा कि किस पार्टी को कहां चंदा मिला। क्यों, कब और कहां चंदा मिला जब ये सामने आएगा तब समझ में आएगा उसके पीछे का इरादा क्या था। लोकतंत्र के तरीके और आंदोलन के तरीके में फर्क होता है। आंदोलन में एक आदर्श तरीका होता है। लेकिन, लोकतंत्र में आप लगातार सुधार करते हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड के तंत्र के जरिए आप पारदर्शिता लाना चाहते थे। अगर आप अभी देखें तो विपक्ष बोल रहा है कि जिन्होंने चंदा दिया है वो ये जान लें कि सरकार बदलेगी तो हम भी बताएंगे। लेकिन, मिला तो सबको है। अगर आपको चुनाव में इसका असर देखना था तो आपको सड़कों पर जाना था लोगों के बीच संदेश देना था। तब चुनाव पर इसका असर दिखता। जिन पार्टियों को चुनावी बॉन्ड से समस्या थी उन्हें घोषणा करनी चाहिए थी कि हम इससे चंदा नहीं लेंगे। जो व्यवस्था पहले से चल रही है उससे ही चंदा लेंगे। लेकिन, किसी पार्टी ने ऐसा नहीं किया। पार्टियां चलाने में हमारे देश में कभी भी कोई चुनाव पारदर्शी तरीके लड़ा गया है ये कोई नहीं कह सकता है।

केंद्र सत्ता में है तो जो पार्टी सत्ता में होगी उसे ज्यादा चंदा मिलेगा यह तय है। चंदा देने वालों में जो बड़ा पैसा देने वाले लोग हैं उनमें ऐसे लोग हैं जो समाज सेवक नहीं है। बल्कि, विशुद्ध रूप से व्यापार करने वाले लोग हैं। कहने का मतलब यह है कि जिसने भी चंदा दिया है उसने फायदा उठाने के लिए ही दिया है। उद्योगपति अपना भविष्य भी देखते हैं। इसलिए वो दूसरे दलों को भी चंदा देते हैं। जो पार्टी सत्ता में उसमें अगर उद्योगपतियों को संभावना ज्यादा दिखती है तो उसे ज्यादा चंदा भी देते हैं। ये सभी जानते हैं कि लोकसभा का चुनाव 95 लाख में नहीं लड़ा जाता है। बाकी करोड़ों रुपये कैश में खर्च होते हैं ये कैश आता कहां से है यह भी सभी को पता है। सभी राजनीतिक दलों को यह तय करना होगा कि देश की राजनीति चुनावी आधार पर कैसे बेहतर हो। विपक्ष कोई भी होता है। तो वह सवाल उठाता है। राजनीति दलों द्बारा चंदा लेने के तरीके होते थे। जैसे कोई रैली होती थी तो उसके इंतजाम के लिए पार्टियों व्यापारियों से करा लेती थीं। पहले सब नकदी में होता था।

अन्ना आंदोलन के बाद इसे पारदर्शी करने की बात होने लगी। 2017 में अरुण जेटली इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आए तो यह योजना बड़ी अच्छी लगी थी। सत्ता में जो पार्टियां है सब को मिला केवल सीपीएम को छोड़कर। क्योंकि उन्होंने खुद इससे चंदा नहीं लेने की बात कही थी। जांच इस पर होनी चाहिए कि क्या जिसने चंदा दिया उसे कोई लाभ पहुंचाया गया। विपक्ष के लिए यह एक चुनावी मुद्दा है। विपक्ष इस मुद्दे को कैसे उठायेगा यह देखना होगा। विपक्ष की पार्टियों को भी पैसा मिला है। उनसे भी यह सवाल होगा। सबसे ज्यादा बॉन्ड खरीदने वालों में कई ऐसी कंपनियां शामिल हैं, जिनके ख़िलाफ़ ईडी और इनकम टैक्स विभाग की कार्रवाई हो चुकी है । दिलचस्प ये है कि ये कार्रवाइयां बॉन्ड खरीदे जाने के समय के आसपास हुई हैं । फ्यूचर गेमिग, वेदांता लिमिटेड और मेघा इंजीनियरिग जैसी कंपनियां सबसे ज्यादा बॉन्ड खरीदने वालों में शामिल हैं। मतलब साफ है जिसने दिया उसने कुछ पाने की गरज से दिया और जिसने लिया उसने ये समझ कर लिया कि हमारा अधिकार है। जिस तरह से रिश्वत अफसर यह समझकर लेता है कि मैं इस पद पर हूं तो यह अधिकार है और देने वाला सोचता है कि इतना देकर बच तो गये। कुल मिलाकर बांड एक रिश्वत है।

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