मंदिर इस देश की आत्मा है और अनहद नाद

के के उपाध्याय

मंदिर का एक वर्तुल है। उसके अपने आविष्ट क्षेत्र का। जो बहुत जीवंत है। उस जीवंत वर्तुल का पूरे गांव के लिए उपयोग था। और उसने परिणाम लाए थे। हजारों-हजारों साल तक के गांव की जो निर्दोषता और पवित्रता थी। उसके लिए गांव कम जिम्मेवार था। उस गांव का मंदिर आविष्ट था। वही ज्यादा जिम्मेवार था। तो जिस गांव में मंदिर नहीं था, उससे दीन गांव नहीं था। कितना ही गरीब गांव हो, मंदिर तो उसका होना ही था। मंदिर के बिना तो सब अस्तव्यस्त था। हजारों वर्ष तक गांव ने एक तरह की पवित्रता कायम रखी थी। उस पवित्रता के बड़े अदृश्य स्रोत थे। और पूरब की संस्कृति को तोड़ने के लिए जो सबसे बड़ा काम हो सकता था वह मंदिर के आविष्ट रूप को तोड़ देना था। मंदिर का आविष्ट रूप टूट जाए तो पूरब की पूरी संस्कृति का जो आत्मस्रोत है वह बिखर जाता है।

इसलिए मंदिर पर भारी संदेह है। और जो भी पढ़ा-लिखा हुआ थोड़ा, जिसे मंदिर के जीवंत रूप का कोई अनुभव नहीं रहा और जिसने केवल शब्द और तर्क सीखे स्कूल और कालेज में, जिसके पास सिर्फ बुद्धि रही और हृदयगत कोई द्वार न रहा, उसे मंदिर के पास जाकर कुछ दिखाई नहीं पड़ा। उसने कहा, कुछ भी नहीं है। धीरे-धीरे वह मंदिर का अर्थ टूटता चला गया। भारत पुनः कभी भारत नहीं हो सकता जब तक उसका मंदिर जीवंत न हो जाए–कभी पुनः भारत नहीं हो सकता। उसकी सारी कीमिया, सारी अल्केमी ही मंदिर में थी, जहां से उसने सब कुछ लिया था। चाहे बीमार हुआ हो तो मंदिर भाग कर गया था, चाहे दुखी हुआ हो तो मंदिर भाग कर गया था, चाहे सुखी हुआ हो तो मंदिर धन्यवाद देने गया था। घर में खुशी आई हो तो मंदिर में प्रसाद चढ़ा आया था; घर में तकलीफ आई हो तो मंदिर में निवेदन कर आया था। सब कुछ उसका मंदिर था। सारी आशाएं, सारी आकांक्षाएं, सारी अभीप्साएं उसके मंदिर के आस-पास थीं। खुद कितना ही दीन रहा हो, मंदिर को उसने सोने और हीरे-जवाहरातों से सजा रखा था।

आज जब हम सिर्फ सोचने बैठते हैं तो यह बिल्कुल पागलपन मालूम पड़ता है कि आदमी भूखा मर रहा है–यह मंदिर को हटाओ, एक अस्पताल बना दो। एक स्कूल खोल दो। इसमें शरणार्थी ही ठहरा दो। इस मंदिर का कुछ उपयोग कर लो। क्योंकि मंदिर का उपयोग हमें पता नहीं है, इसलिए वह बिल्कुल निरुपयोगी मालूम हो रहा है, उसमें कुछ भी तो नहीं है। और मंदिर में क्या जरूरत है सोने की, और मंदिर में क्या जरूरत है हीरों की, जब कि लोग भूखे मर रहे हैं! लेकिन भूखे मरने वाले लोगों ने ही मंदिर में हीरा और सोना बहुत दिन से लगा रखा था। उसके कुछ कारण थे। जो भी उनके पास श्रेष्ठ था वह मंदिर में रख आए थे। क्योंकि जो भी उन्होंने श्रेष्ठ जाना था वह मंदिर से ही जाना था। इसके उत्तर में उनके पास कुछ देने को नहीं था। न सोना कुछ उत्तर था, न हीरे कोई उत्तर थे। लेकिन जो मिला था मंदिर से, उसका हम कुछ और भी तो वहां नहीं दे सकते थे, वहां कुछ धन्यवाद देने को भी नहीं था। तो जो भी था वह हम वहां रख आए थे। अकारण नहीं था वह। लाखों साल तक अकारण कुछ नहीं चलता। इस मंदिर के बाहर ये तो उसके आविष्ट रूप के अदृश्य परिणाम थे, जो चौबीस घंटे तरंगायित होते रहते थे। उसके चेतन परिणाम भी थे। उसके चेतन परिणाम बहुत सीधे-साफ थे।

आदमी को निरंतर विस्मरण है। वह सब जो महान है, विस्मृत हो जाता है; और जो सब क्षुद्र है, चौबीस घंटे याद आता है। परमात्मा को याद रखना पड़ता है, वासना को याद रखना नहीं पड़ता, वह याद आती है। गड्ढे में उतर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती, पहाड़ चढ़ने में कठिनाई होती है। तो मंदिर गांव के बीच में निर्मित करते थे कि दिन में दस बार आते-जाते मंदिर किसी और एक आकांक्षा को भी जगाए रखे। और ध्यान रहे, हममें से बहुत कम ऐसे हैं जिनकी आकांक्षा सहज आंतरिक रूप से जगती है। हममें से बहुतों की आकांक्षाएं तो सिर्फ चीजों को देख कर ही जगती हैं।

अगर हवाई जहाज नहीं था दुनिया में तो आपको हवाई जहाज में उड़ने की कोई आकांक्षा नहीं जगती थी। हां, किसी राइट ब्रदर को जगती थी। वह एकाध आदमी है जो हवाई जहाज बनाता है। उसको जगती है उड़ने की आकांक्षा। तो हवाई जहाज बनाता है। लेकिन आपको कभी नहीं जगती। आप हवाई जहाज देखते हैं तो जगती है। हमें चीजें दिखाई पड़ती हैं तो हमारे भीतर उन्हें पाने की आकांक्षा जगती है। तो परमात्मा का कहीं न कहीं कोई साकार रूप, जो हमें दिखाई पड़ सके, जो हम अंधों के मन में कहीं प्रवेश कर सके, जो कि निराकार के लिए आतुर नहीं हो सकते। जो हो सकते हैं उनके लिए तो कोई सवाल ही नहीं है। इसलिए जो हो सकते थे उन्होंने कई लिहाज से मंदिर को नुकसान पहुंचा दिया। उसमें भूल हुई। जो हो सकते थे निराकार से आविष्ट, उन्होंने कहाः बेकार है, हटा दो।

मैं खुद ही निरंतर कहा हूं कि बेकार है, हटा दो। लेकिन धीरे-धीरे मुझे ख्याल में आया कि यह जो मैं कह रहा हूं, और यह मंदिर हट गया, तो जिनको आकार से कुछ स्मरण नहीं आया उनको निराकार से आ सकेगा? तो कई बार कठिनाई हुई है। महावीर अगर अपनी हैसियत से बोलेंगे तो कहेंगे हटा दो। क्योंकि महावीर को कोई जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन कभी आपका ख्याल आ जाए तो इसे रोक लेना पड़ेगा। इसे रोक लेना पड़ेगा। यह आपके लिए चौबीस घंटे आकांक्षा का एक नया स्रोत बना रहता है। एक और द्वार भी है जीवन में–दुकान और घर ही नहीं, धन और स्त्री ही नहीं–एक और द्वार भी है जीवन में, जो न बाजार का हिस्सा है, न वासना का हिस्सा है; न धन मिलता है वहां, न यश मिलता है वहां, न काम-तृप्ति होती है वहां। एक जगह और भी है, एक जगह और भी है–यह गांव में ही नहीं है, जीवन में एक जगह और है–इसके लिए धीरे-धीरे यह मंदिर रोज आपको याद दिलाता है। और ऐसे क्षण हैं जब बाजार से भी आप ऊब जाते हैं। और ऐसे क्षण हैं जब घर से भी ऊब जाते हैं। तब मंदिर का द्वार खुला है। ऐसे क्षण में तत्काल आप मंदिर में सरक जाते हैं। मंदिर सदा तैयार है।

जहां मंदिर गिर गया वहां फिर बड़ी कठिनाई है, विकल्प नहीं है। घर से ऊब जाएं तो होटल हो सकता है, रेस्तरां हो सकता है। बाजार से ऊब जाएं। पर जाएं कहां? कोई अलग डायमेंशन, कोई अलग आयाम नहीं है। बस वही है, वहीं के वहीं घूमते रहते हैं। मंदिर एक बिल्कुल अलग डायमेंशन है जहां लेन-देन की दुनिया नहीं है। इसलिए जिन्होंने मंदिर को लेन-देन की दुनिया बनाया, उन्होंने मंदिर को गिराया। जिन्होंने मंदिर को बाजार बनाया, उन्होंने मंदिर को नष्ट किया। जिन्होंने मंदिर को भी दुकान बना लिया, उन्होंने मंदिर को नष्ट कर दिया। मंदिर लेन-देन की दुनिया नहीं है। सिर्फ एक विश्राम है। एक विराम है, जहां आप सब तरफ से थके-मांदे चुपचाप वहां सिर छिपा सकते हैं।

और वहां की कोई शर्त नहीं है कि आप इस शर्त से आओ। इतना धन हो तो आओ, इतना ज्ञान हो तो आओ, कि इतनी प्रतिष्ठा हो तो आओ, कि ऐसे कपड़े पहन कर आओ, कि मत आओ। वहां की कोई शर्त नहीं है। आप जैसे हो, मंदिर आपको स्वीकार कर लेगा। कहीं कोई जगह है, जैसे आप हो वैसे ही आप स्वीकृत हो जाओगे, ऐसा भी शरण-स्थल है। और आपकी जिंदगी में हर वक्त ऐसे मौके आएंगे जब कि जो जिंदगी है तथाकथित, उससे आप ऊबे होंगे, उस क्षण प्रार्थना का दरवाजा खुला है! और एक दफे भी वह दरवाजा आपके भीतर भी खुल जाए तो फिर दुकान में भी खुला रहेगा, मकान में भी खुला रहेगा। वह तत्काल निरंतर पास होना चाहिए, जब आप चाहो वहां पहुंच सको। मंदिर मनन है । स्मरण है । प्राणवायु है । मंदिर स्मृति का द्वार है । मंदिर तर्क वितर्क नहीं है । यह मन का गीत है । संगीत है । हवा का झोंका है । इसे मत रोको। मन के अंदर का राग है । यही विराग है । नाद है । अनहद नाद है । यह नाद गूंजने दें । घंटे घड़ियाल बजने दें …….।

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