बंदउँ अवध पुरी अति पावनि

डॉ दिलीप अग्निहोत्री


चैत्र नवरात्र का अनुष्ठान राम नवमी की आध्यात्मिक चेतना को भी जागृत करता है। इस दिन प्रभु ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था. गोस्वामी जी ने सुन्दर चित्रण किया है-

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौसल्‍या हितकारी।
हरषित महतारी, मुनि मन हारी,अद्भुत रूप बिचारी ।।
लोचन अभिरामा, तनु घनस्‍यामा, निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला,नयन बिसाला,सोभासिंधु खरारी ।।

वस्तुतः मानवीय क्षमता सीमित होती है। वह अपने अगले पल के विषय में नहीं जाता। इसके विपरीत नारायण की कोई सीमा नहीं होती। वह जब मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं, तब भी आदि से अंत तक कुछ भी उनसे छिपा नहीं रहता। वह अनजान बनकर अवतार का निर्वाह करते हैं। भविष्य की घटनाओं को देखते हैं, लेकिन प्रकट नहीं होते देते। इसी की उनकी लीला कहा जाता है। गोस्वामी जी उनके अवतार का सुंदर चित्रण करते है। यह किसी सामान्य शिशु जन्म नहीं है। प्रभु स्वयं अवतरित हुए। प्रकृति ग्रह नक्षत्र सभी पर इसका प्रभाव परिलक्षित है।

कह दुई कर जोरी, अस्‍तुति तोरी, केहि बिधि करूं अनंता।

माया गुन ग्‍यानातीत अमाना, वेद पुरान भनंता ।। करूना सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता। सो मम हित लागी, जन अनुरागी, यउ प्रगट श्रीकंता ।। ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया, रोम रोम प्रति बेद कहै । मम उर सो बासी,यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना, चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै । कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई, जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली, सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा । कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला, यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना, होइ बालक सुरभूपा ।

यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं, ते न परहिं भवकूपा ॥

भारतीय शास्त्रों ने प्रकृति के संक्रमण काल में उपासना का विशेष महत्व बताया है। इससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। नवरात्र इसके अनुकूल होती है। इस अवधि में भक्त जन मां दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है। यदि किसी साधक से यह संभव ना हो सके तो उसका विकल्प स्वामी राम भद्राचार्य बताया। उनका कहना है कि जो पुण्य फल सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती के पाठ से मिलता है वही फल श्रीरामचरितमानस की इन पंक्तियों के भाव सहित पाठ से मिल जाता है-

जय जय जय गिरिराज किशोरी।
जय महेश मुख चंद्र चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता।

जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाव बेद नहिं जाना॥।

भव भव विभव पराभव कारिनि।
बिश्व बिमोहनि स्वबश बिहारिनि॥
पतिदेवता सुतीय महँ,मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि,सहस शारदा शेष।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी।।बरदायनी त्रिपुरारि पियारी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

श्री राम कथा के प्रत्येक प्रसंग आध्यात्मिक ऊर्जा है। भक्ति के धरातल पर पहुंच कर ही इसका अनुभव किया जा सकता है। महर्षि बाल्मीकि और तुलसी दास सामान्य कवि मात्र नहीं थे। ईश्वरीय प्रेरणा से ही इन्होंने रामकथा का गायन किया था। इसलिए इनका काव्य विलक्षण हो गया। साहित्यिक चेतना या ज्ञान से कोई यहां तक पहुंच भी नहीं सकता। रामायण व रामचरित मानस की यह दुर्लभ विशेषता है। प्रभु बालक रूप में है,वह वनवासी रूप में है,वह राक्षसों को भी तारने वाले है। सन्त अतुल कृष्ण कहते है कि प्रभु किसी को मारते नहीं,वह तो तार देते है। भव सागर से पार उतार देते है। प्रभु ने शिशु रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। इसलिए यह स्वयं में अलौकिक बेला थी। गोस्वामी जी लिखते है- जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥ अर्थात चर अचर सहित समस्त लोकों में सुख का संचार हुआ था। श्रीराम कथा के प्रत्येक प्रसंग आध्यात्मिक ऊर्जा है। भक्ति के धरातल पर पहुंच कर ही इसका अनुभव किया जा सकता है। महर्षि बाल्मीकि और तुलसी दास सामान्य कवि मात्र नहीं थे। ईश्वरीय प्रेरणा से ही इन्होंने रामकथा का गायन किया था। इसलिए इनका काव्य विलक्षण हो गया। साहित्यिक चेतना या ज्ञान से कोई यहां तक पहुंच भी नहीं सकता। रामायण व रामचरित मानस की यह दुर्लभ विशेषता है। प्रभु बालक रूप में है,

वह वनवासी रूप में है,वह राक्षसों को भी तारने वाले है। सन्त अतुल कृष्ण कहते है कि प्रभु किसी को मारते नहीं,वह तो तार देते है। भव सागर से पार उतार देते है। प्रभु ने शिशु रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। इसलिए यह स्वयं में अलौकिक बेला थी। गोस्वामी जी लिखते है- जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥ अर्थात चर अचर सहित समस्त लोकों में सुख का संचार हुआ था।

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥

मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥

गोस्वामी जी लिखते है- रामकथा सुन्दर कर तारी, संशय बिहग उड़व निहारी। प्रभु श्री राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अवतार लिया था। श्री रामकथा आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करने वाली है। संत अतुल कृष्ण जी ने बताया कि यह लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। घर में राम विवाह संबन्धी चौपाई का भी नित्य गायन करना चाहिए।जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये।

भुवन चारी दस बूधर भारी,सूकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी।
रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई ,उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई।
मणिगुर पूर नर नारी सुजाती, शूचि अमोल सुंदर सब भाँति।
कही न जाई कछू इति प्रभूति ,जनू इतनी विरंची करतुती।
सब विधि सब पूरलोग सुखारी, रामचन्द्र मुखचंद्र निहारी।

अयोध्या धाम के प्रति भारत ही नहीं अनेक देशों के करोड़ों लोगों की आस्था है। गोस्वामी तुलसी दास ने इसका सुंदर उल्लेख किया है-

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि।

सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥

महर्षि बाल्मीकि ने भी रामकथा पर भावपूर्ण रचना की है। रामायण के माध्यम से उन्होंने यह कथा जन जन तक पहुंचाई थी। जहां प्रभु अवतार लेते है,वह स्थल स्वतः तीर्थ बन जाता है। त्रेता युग से अयोध्या इसी रूप में प्रतिष्ठित  रही। भारत के ऋषियों ने प्रकृति में भव्यता का प्रत्यक्ष अनुभव किया। उसे भव्य मानते हुए प्रणाम किया। चरक संहिता में कहा गया यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ अर्थात जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है। भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है-आकाश, वायु, अग्नि,जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है। स्थूल व सूक्ष्म की दृष्टि से ही अंतर है। प्रकृति तथा पुरुष में समानता है। चरक संहिता में यह भी कहा गया कि-

यावन्तो  हि  लोके  मूर्तिमन्तो  भावविशेषा:।

तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके॥

अर्थात ब्रह्माण्ड में चेतनता है। मनुष्य भी चेतन है। पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। प्रकृति में सन्धिकाल का विशेष महत्व है। वर्ष और दिवस में दो संधिकाल महत्वपूर्ण होते है। दिवस में सूर्योदय व सूर्यास्त के समय संधिकाल कहा जाता है। सूर्योदय के समय अंधकार विलीन होने लगता है,उसके स्थान प्रकाश आता है। सूर्यास्त के समय इसकी विपरीत स्थिति होती है। भारतीय चिंतन में इस संधिकाल में उपासना करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वर्ष में दो संधिकाल होते है। इसमें मौसम का बदलाव होता है। ऋतु के समय संयम से स्वास्थ भी ठीक रहता है। नवरात्र आराधना भी वर्ष में दो बार इन्हीं संधिकाल में आयोजित होती है। यह शक्ति आराधना का पर्व है। इसी के अनुरूप संयम नियम की भी आवश्यकता होती है। पूरे देश में इक्यावन शक्तिपीठ पूरे वातावरण को भक्तिमय बना देते है। मां दुर्गा का प्रथम रूप है शैल पुत्री। पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म होने से इन्हें शैल पुत्री कहा जाता है। नवरात्रि की प्रथम तिथि को शैलपुत्री की पूजा की जाती है।

ब्रह्मचारिणी मां दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। इनकी उपासना से तप,त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की भावना जागृत होती है। मां दुर्गा का तीसरा स्वरूप चंद्रघंटा है। इनकी आराधना तृतीया को की जाती है। चतुर्थी के दिन मांं कुष्मांडा की आराधना की जाती है। नवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मां का छठवां रूप कात्यायनी है। छठे दिन इनकी पूजा।अर्चना की जाती है। नवरात्रि की सप्तमी के दिन मांं काली रात्रि की आराधना का विधान है। देवी का आठवांं रूप मांं गौरी है। इनका अष्टमी के दिन पूजन का विधान है।  मां सिद्धिदात्री की आराधना नवरात्रि की नवमी के दिन किया जाता है। माँ जगदम्बा जो स्वयं वाणीरूपा है। वही वाणी,बुद्धि, विद्या प्रदायिनी भी है। देवी दुर्गा का यह दूसरा रूप भक्तों एवं सिद्धों को अमोघ फल देने वाला है। देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है।

माता ब्रह्मचारिणी की पूजा और साधना करने से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। ऐसा भक्त इसलिए करते हैं ताकि मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें। आज नवरात्र का दूसरा दिन है। नवरात्र के दूसरे दिन माता के ब्रह्मचारिणी स्वरुप की पूजा की जाती है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करने वाली मां ब्रह्मचारिणी। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। यह देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं। मुख पर कठोर तपस्या के कारण तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है। यह स्वरूप श्वेत वस्त्र पहने दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमंडल लिए हुए सुशोभित है। ब्रह्मचारिणी देवी के कई अन्य नाम हैं जैसे तपश्चारिणी,अपर्णा और उमा। कहा जाता है कि देवी ब्रह्मचारिणी अपने पूर्व जन्म में राजा हिमालय के घर पार्वती स्वरूप में थीं। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोप तपस्या की थी। कठोर तप के कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया। मां जगदम्बे की भक्ति के लिए मां ब्रह्मचारिणी का मंत्र का नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए-
या देवी सर्वभू‍तेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

अर्थात- सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे,आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।  मां दुर्गा की तीसरी शक्ति मां चंद्रघंटा के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अद्र्धचंद्रमा सुशोभित है। स्वर्ण के समान इनका दमकता हुआ तेजोमय स्वरूप है। इनके दस हाथ हैं,जिनमें अस्त्र-शस्त्र लिए हुए मां सिंह पर आरूढ़ हैं। मां राक्षसों के विनाश के लिए युद्ध में प्रस्थान करने को उद्यत हैं। मान्यता है कि इनके घंटे की ध्वनि सुनकर दैत्य, राक्षस आदि भाग जाते हैं।.मां के दिव्य स्वरूप का ध्यान आत्मिक रूप से सशक्त बनाता है। नकारात्मक ऊर्जा का निराकरण होता है। सकारात्मक भाव व सद्गुणों का विकास होता है-

पिंडज प्रवरारूढ़ा चंडकोपास्त्रकैर्युता।

प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघंटेति विश्रुता।। 

‘या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नसस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
श्री राम नवमीं से इस नवरात्र की महिमा बढ़ जाती है।
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन, हरण भवभय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख, कर कंज पद कंजारुणं।
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि, नोमि जनक सुतावरं।
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव, दैत्य वंश निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल, चन्द दशरथ नन्दनं।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु, उदारु अङ्ग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर, संग्राम जित खरदूषणं।
इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष मुनि मन रंजनं।
मम् हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खलदल गंजनं।
मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर, सहज सुन्दर सांवरो।
करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय, सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि, मुदित मन मन्दिर चली।

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