मूलाधिकारी हिन्दू को मिले हक!!

के. विक्रम राव
के. विक्रम राव

बीतते वर्ष (2022) की अहम घटनाओं में बहुसंख्यकों के पुरातन आस्थास्थलों का उल्लेख खास है। सलभर मीडिया में काशी और मथुरा ही काफी जगह घेरते रहे। नए वर्ष में निर्णयात्मक मोड पर आ पहुंचे हैं। केंद्र बिंदु जिस पर न्यायिक निर्देश होगा केवल यही है कि इन दोनों धर्मकेंद्रों में कौन पहले से उपासना करता रहा ? अतः उसी समुदाय के आराधकों को स्वामित्व सौंपा जाए। असली अर्थों में वंचित को ही उसका छीना गया मूलाधिकार लौटाया जाए। इतिहास और कानून की कसौटी पर यही सिद्ध होता है कि राजसत्ता का दुरुपयोग कर राक्षसाकार सैन्य बल के बूते मुगल शासक ने बहुमत में रहे मूल उपासकों के आस्थावाले मौलिक तथा नैसर्गिक अधिकार का हनन किया था। ऐसी पापपूर्ण कृति की अभिवेचना (सेंसर) हो। अर्थात संवेदनशील भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले और हानिकारक संदर्भों को खत्म किया जाए। नतीजन सौहार्द्र पुनः स्थापित किया जा सके। समूचे विषय को अधिक बोधगम्य लहजे में पेश किया जाए। इस परिवेश में एक प्रसंग के उल्लेख से मसला बेहतर समझ आएगा। यह वाकया आजादी के दूसरे दशक का है। एक अंतरर्राष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल भारत यात्रा पर आया था। अधिकतर सदस्य सेक्युलर अवधारणा के थे। उस दौर के सशक्त और कठोर सेक्युलर नेता जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। उन्हीं के आमंत्रण पर वह विदेशी प्रतिनिधिमंडल भारत आया था। नेहरूजी की राय पर ही अतिथि जन को अयोध्या और काशी भ्रमण हेतु ले जाया गया था।

लक्ष्य था कि नवसृजित इस्लामी पाकिस्तान की तुलना में सेक्युलर भारत कितना आधुनिक और विकासोन्मुख है, यही दर्शाया जाए। उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री का महत्वपूर्ण बौद्धिक बयान आया था कि आधुनिक तीर्थस्थल हैं विकास योजनाओं के निर्माण-स्थल जैसे भाखड़ा नांगल बांध, भिलाई और राउरकेला इस्पात कारखाने आदि। इनका भ्रमण तो इस विदेशी प्रतिनिधि मंडल को कराया ही गया। साथ ही प्राचीन नगरों में काशी और अयोध्या भी शामिल किये गए। प्रयास था कि स्वतंत्र और सेक्युलर गणराज्य यूरोप की भांति भारत भी नए नए दौर में प्रवेश कर चुका है। काशी में ज्ञानवापी वाले मस्जिद को देखते ही एक यूरोपीय सदस्य ने पूछा कि आदिदेव शिव के आस्थास्थल पर ही मस्जिद क्यों, पड़ोस मे मुस्लिम-बहुल बजरडीहा क्षेत्र भी तो रहा। औरंगजेब की कट्टरता का जिक्र हुआ। उन्हें याद आया कि एक प्राचीन ईसाई चर्च सोफिया हाजिया इस्तांबुलनगर में निर्मित हुआ था। मगर जब कुस्तुंतनिया पर ऑटोमन इस्लामी साम्राज्य कायम हुआ था तो 1453 में इस चर्च को मस्जिद बना दिया गया था। बाद में मुस्तफा कमाल पाशा ने मस्जिद हटाकर संग्रहालय बनाया जिसे कट्टरवादी राष्ट्रपति एदोर्गन ने हाल ही मे फिर मस्जिद बना डाला। इसके आधार पर एक यूरोपीय प्रतिनिधि ने भारतीय अधिकारी से पूछा था कि वहां स्वाधीन भारत की नेहरू सरकार ने अयोध्या पर हुये इस ऐतिहासिक अत्याचार को खत्म कर पूर्व वाली स्थिति बनाने का प्रयास क्यों नहीं किया?

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स्पष्ट था कि इस्लामी पाकिस्तान की तुलना में सर्वधर्म समभाववाले भारत को राम जन्मभूमि मंदिर को फिर से बाबरी मस्जिद की जगह निर्माण का प्रयास नहीं करना चाहिए। किन्तु प्रतिनिधिमंडल की भावना रही कि एक बार बाबरी मस्जिद के निकट खस्ताग्रस्त रामलला का तंबू के तले चलताऊ देवस्थल देखकर कौन गवारा करेगा कि आजाद भारत में राष्ट्रीय एकीकरण संभव है ? यह तो विध्वंसीकरण है। ऐसा ही प्रसंग काशी यात्रा पर आए विदेशी पर्यटक पूछते रहे थे कि बाबा विश्वनाथ के प्राचीन मंदिर के ठीक बाहर ही अजान सुनकर (ज्ञानवापी मस्जिद) कौन मानेगा कि हिंदू-मुस्लिम भाई भाई हो गए हैं?

अतः नूतन वर्ष में बीतते साल की घटना भुलाई नहीं जा पायेंगी। वरन बुरी स्मृति तीव्रतर ही हो जाएगी। क्यों इस भांति का ऐतिहासिक अनाचार पचहत्तर वर्ष बाद भी दुरुस्त नहीं किया गया ? इस दिशा में हुए एक हिंदू-मुस्लिम संयुक्त प्रयास को फिर याद करना बड़ा उपादेय और समीचीन होगा। सोशलिस्ट नेता डॉ राममनोहर लोहिया तथा पुणे की मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक तथा भारतीय पंथनिरपेक्ष संघ (इंडियन सेक्यूलर सोसाइटी) के संस्थापक और पत्रकार-लेखक मियां हमीद उमर दलवायी ने एक संयुक्त प्रयास किया था। सोशलिस्टों के राष्ट्रीय सेवा दल से हामिद के संपर्क थे।

उन्होंने ही तभी तीन तलाक के खात्मे के लिए जन आंदोलन शुरू किया था। तीन तलाक के विरोध में उन्होंने 18 अप्रैल 1966 में मुंबई में जुलूस निकाला था। तब तक किसी भी भारतीय राजनेता की हिम्मत नहीं हुई थी कि इस्लाम में सुधार की चर्चा हो। हालांकि दो दशक पूर्व हिंदू कोड बिल बनवाकर जवाहरलाल नेहरू ने हिंदुओं के विवाह-परिवार आदि के कानून सुधार दिए थे। डॉ लोहिया के साथ जुड़कर हामिद ने एक मोर्चा गढ़ा था। योजना थी कि अयोध्या, काशी और मथुरा में युवा मुस्लिम सत्याग्रही आंदोलन चलाएंगे कि बादशाह आलमगीर औरंगजेब ने मुगल सेना के बल पर अपनी बहुसंख्यक प्रजा का मौलिक आस्थावाले का अधिकार छीना है। अतिक्रमण किया है। वापस लौटाया जाय। मगर तभी डॉ लोहिया के असमायिक निधन (केवल 57 वर्ष के थे) और फिर सिर्फ 44 वर्ष की उम्र में हामिद की मृत्यु से पूरा सेक्यूलर संघर्ष ही पिछड़ गया।

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