डॉ दिलीप अग्निहोत्री
भारतीय दर्शन में भक्ति योग ज्ञान योग और कर्म योग तीनों की महत्ता है। इन में किसी भी मार्ग पर चलते हुए मोक्ष तक की यात्रा को पूरा किया जा सकता है। द्वापर युग की कृष्ण लीला में भक्ति ज्ञान और कर्म के सुन्दर प्रसंग दिखाई देते हैं। प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का संदेश दिया। श्रीकृष्ण के साथ सर्वाधिक समय तक रहने वाले उद्धव जी ज्ञान योग के प्रतीक है। जबकि गोपियां भक्ति योग के अलावा कुछ नहीं जानती हैं। उनकी भक्ति में प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण है। संत अतुल कृष्ण ने गोपियों को भक्ति मार्ग का विलक्षण प्रतीक बताया। प्रभु रस के सागर है। रास में सम्मलित होने वाले परम भाग्यशाली होते हैं। गोपियां महा भाग्यशाली थीं । प्रभु के साथ हजारों गोपियां नृत्य करती हैं। सभी को लगता हैं की श्रीकृष्ण उनके साथ हैं। गोपियों को अहंकार हुआ कि कृष्ण उनके साथ हैं। यह अहंकार हुआ, ओमकार वहाँ नहीं रहते। प्रभु श्रीकृष्ण और राधा जी अन्तर्ध्यान हो गए। गोपियां व्याकुल हो जाती हैं। श्रीकृष्ण को पुकारती हैं-
कन्हैया तुम्हें देखना है
जहाँ तुम छीपे हो उधर देखना है
अगर तुम हो दिनों की आहों को सुनते हो
तो हमे अपनी आ हों का असर देखना है!!
उबारा था जिस हांथ ने जीव गज को
उसी हांथ का अब हूंनर
देखना हैं।
अहंकार आह में परिवर्तित हो गया। गोपियों ने रोते हुए उन्नीस श्लोक गाए।
आंसुओं से मन का गुबार निकल जाता है-
अच्युतम केसवं सत्य भामधावं,
माधवं श्रीधरं राधिका अराधितम,
इंदिरा मन्दिरम चेताना सुन्दरम,
देवकी नंदना नन्दजम सम भजे।
विष्णव जिष्णवे शंखिने चक्रिने,
रुकमनी रागिने जानकी जानए,
वल्लवी वल्लभा यार्चिधा यात्मने,
कंस विध्वंसिने वंसिने ते नमः।
वस्तुतः जब से गोकुल में प्रभु अवतरित हुए तब से यहां लक्ष्मीजी की कृपा है। श्रेय की प्राप्ति होने लगी है। अष्ट और नव सिद्धियां बिना पुरुषार्थ के सुलभ होने लगी है। प्रभु की लीला दैहिक दैविक भौतिक ताप को शांत कर देती है। विचारों की विकृति का निवारण हो जाता है। कथा के श्रवण से अमंगल दूर हो जाते हैं।
गोपियों का अहंकार दूर हो गया। गोपियां भक्ति की श्रेष्ठ प्रतीक है। उद्धव जी ने गोपियों की चरण रज को पवित्र माना।क्योंकि भक्ति में विलाप करती है । प्रेम का वास्तविक अर्थ निकट रहना मात्र नहीं होता। प्रभु श्रीकृष्ण ने कभी यह प्रकट नहीं होने दिया कि गोकुल वृंदावन के लोग उनके प्रिय है। लेकिन वह गोकुल वृंदावन के लोगों की सुरक्षा चाहते थे। उन्हें अनेक दुर्जनों को समाप्त करना था। गोपियों की भक्ति सर्वोच्च है। विरक्ति का तात्पर्य कर्म का परित्याग नहीं है। कर्म करता रहे, लेकिन अपने कर्म प्रभु को समर्पित करता रहे। इसके बाद जो भी फल मिले उसे प्रभु का प्रसाद मान कर ग्रहण करे। सुदामा को प्रभु पर पूर्ण विश्वास है। निर्धनता अभाव से विचलित नहीं होते। प्रभु उनके मित्र है। उनसे भी कुछ नहीं मांगते। सुदामा की पत्नि ने कहा कि उत्तम श्लोक अर्थात प्रभु के दर्शन का भी लाभ मिलता है।