श्राद्ध में सभी लक्षणों को पूरा करने वाला ब्राह्मण ही है स्वीकार्य, विकल्प से फल प्राप्ति संदिग्ध,

परमानंद पांडे


आमंत्रित किए जाने वाले ब्राह्मणों की योग्यता पर धर्मग्रंथों में विस्तृत विचार किया गया है और उनकी श्रेणियां निर्धारित की गई हैं। गृह्य सूत्रों में बहुत कम योग्यताएं वर्णित हैं, किन्तु स्मृतियों एवं पुराणों में निमंत्रित किए जाने वाले ब्राह्मणों की योग्यताओं में निरंतर वृद्धि होती गई। आश्वलायन गृह्य सूत्र, शांखायन गृह्य सूत्र, हिरण्यकेशि गृह्य सूत्र, बौधायन गृह्य सूत्र ने कहा है कि आमंत्रित ब्राह्मण को वेदज्ञ, अत्यंत संयमी, शुद्ध आचरण वाला तथा पवित्र होना चाहिए और उसे न तो किसी अंग से हीन और न अधिक अंग होना चाहिए।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार, जिसने उन तीन वैदिक मन्त्रों को पढ़ लिया है, जिनमें ‘मधु’ शब्द आता है, जिसने त्रिसुपर्ण पढ़ लिया है, जो त्रिणाचिकेत है, जिसने चारों यज्ञों (अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, पितृमेध) में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों को पढ़ लिया है, जिसने ये चारों यज्ञ कर लिए हैं, जो पांचों अग्नियों को प्रज्वलित रखता है, जो ज्येष्ठ साम जानता है, जो वेदाध्ययन के प्रतिदिन का कर्तव्य करता है, जो वेदज्ञ का पुत्र है और अंगों के साथ सम्पूर्ण वेद पढ़ा सकता है और जो श्रोत्रिय है – ये सभी श्राद्ध के समय भोजन करने वालों की पंक्ति को दोषरहित कर देते हैं।

हिरण्यकेशि गृह्य सूत्र, कूर्म पुराण  आदि का कथन है कि श्राद्धकर्ता को ऐसा व्यक्ति आमंत्रित नहीं करना चाहिए, जो विवाह से सम्बन्धी, (जैसे मामा) हो और जो सगोत्र अथवा वेदाध्ययन से सम्बंधित (जैसे गुरु और शिष्य) हो। उन्होंने मित्र तथा श्राद्ध-कर्म से धन की आशा रखने वालों को आमंत्रित नहीं करने की सलाह भी दी है। मनु  की व्यवस्था है कि श्राद्ध-भोजन में मित्र को नहीं बुलाना चाहिए। जो व्यक्ति केवल मित्र बनाने के लिए श्राद्ध करता है और देवार्पण करता है, उसे उस श्राद्ध अथवा अर्पणों का कोई फल नहीं मिलता। मनु ने ऋग्वेद का अनुयायी और उसका सम्पूर्ण अध्ययन कर चुका, यजुर्वेद का अनुयायी और उसकी एक शाखा का अध्ययन कर चुका तथा सामवेद गाने वाला और उसका एक पाठ पढ़ चुका ब्राह्मण श्राद्ध-भोज के योग्य बताते हुए कहा है कि ऐसे ब्राह्मण को श्राद्ध-भोजन कराने वाले के पूर्वज सात पीढ़ियों तक दीर्घ काल के लिए संतुष्टि प्राप्त करते हैं।

मनु  का कथन है कि सर्वोत्तम विधि यह है कि जो ब्राह्मण सभी लक्षणों को पूरा करता हो, उसे ही आमंत्रित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि ऐसे ब्राह्मण को पाना संभव नहीं हो, तो अनुकल्प (उसके बदले कुछ कम लक्षणों वाली विधि) का पालन करना चाहिए। अर्थात कर्ता अपने ही नाना, मामा, बहन के पुत्र, श्वसुर, वेद गुरु, किसी बंधु (यथा मौसी के पुत्र), साले या सगोत्र या कुल पुरोहित अथवा शिष्य को भी बुला सकता है, किन्तु मनु ने सावधान किया है कि प्रथम सर्वोत्तम प्रकार के रहते भी यदि दूसरे उत्तम प्रकार का सहारा लिया जाए, तो पारलौकिक फल की प्राप्ति नहीं होती।

आमंत्रण के योग्य ब्राह्मणों के विषय में लगभग ऎसी ही व्यवस्थाएं कूर्म पुराण, वराह पुराण, मत्स्य पुराण तथा विष्णु पुराण में भी पाई जाती हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने ऎसी स्थिति में सभी गुणों से युक्त, अपने भाई (सोदर्य) तथा शिष्यों को भोजन कराने की अनुमति दी है और बौधायन धर्मसूत्र ने सपिण्डों को भोजन कराने की भी अनुमति दी है।

गौतम के मत से गुणशाली युवा व्यक्ति को वृद्धों पर वरीयता दी जानी चाहिए। कुछ मतों के अनुसार पिता के श्राद्ध-भोज में नवयुवकों तथा पितामह के श्राद्ध में वृद्धों को आमंत्रित किया जाना चाहिए। दूसरी ओर आपस्तम्ब धर्मसूत्र का कथन है कि तुल्य गुण वालों में वृद्धों को तथा वृद्धों में धनार्जन के इच्छुक निर्धनों को वरीयता दी जानी चाहिए।

कुछ ग्रन्थ संन्यासियों अथवा योगियों को आमंत्रित करने पर बल देते हैं। वराह पुराण  में योगी को १०० ब्राह्मणों से उत्तम कहा गया है। सौर पुराण का निष्कर्ष है कि एकाग्र मन से शिव की पूजा करने वाला व्यक्ति श्राद्ध-भोजन के लिए पर्याप्त है।

ब्रह्माण्ड पुराण  ने वरीयता क्रम इस तरह बताया है – सर्वप्रथम यति (संन्यासी), तब चतुर्वेदी और इतिहासज्ञ ब्राह्मण और अंत में उपाध्याय। अनेक धर्मग्रंथों ने श्राद्ध-भोज में आमंत्रित करने से पूर्व ब्राह्मणों के अतीत, जीवन, गुणों एवं दोषों की परीक्षा का निर्देश दिया है और मनु ने परीक्षा के कतिपय नियम भी दिए हैं, किन्तु ब्रह्माण्ड पुराण  का कथन है कि अज्ञात ब्राह्मणों के विषय में छानबीन नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अनेक सिद्ध योगी ब्राह्मण के रूप में विचरण करते रहते हैं। यदि ब्राह्मण के अवगुण बिना किसी कठिनाई के पता चलते हों, तो उसे कदापि आमंत्रित नहीं किया जाना चाहिए।

नृसिंह पुराण ने श्राद्ध के समय अचानक उपस्थित हो गए किसी अतिथि की विद्या एवं चरित्र के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास वर्जित किया है।

मनु ने ९३ ऐसे प्रकार गिनाए हैं, जिन्हें आमंत्रित नहीं किया जाना चाहिए। गौतम  में पचास से भी अधिक ऐसे ब्राह्मणों की श्रेणियां मिलती हैं, जिन्हें आमंत्रित नहीं किया जाना चाहिए।

आमंत्रितों की संख्या

श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों की संख्या के बारे में भी कई मत हैं। आश्वलायन गृह्य सूत्र  का कथन है कि पार्वण-श्राद्ध (किसी पर्व विशेष पर होने वाला), आभ्युदिक श्राद्ध, एकोदिष्ट अथवा काम्य श्राद्ध में संख्या जितनी अधिक हो, उतनी ही फल-प्राप्ति होती है; सभी पितरों के श्राद्ध में केवल एक ब्राह्मण को कभी नहीं बुलाना चाहिए तथा प्रथम को छोड़ कर अन्य श्राद्धों में विकल्प से एक भी आमंत्रित किया जा सकता है और पिता, पितामह तथा प्रपितामह के श्राद्धों में एक, दो या तीन ब्राह्मण आमंत्रित किए जा सकते हैं। शांखायन गृह्य सूत्र  एवं कौषीतकि गृह्य सूत्र में आया है कि ब्राह्मणों को विषम संख्या में और कम से कम तीन को प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया जाना चाहिए।

यदि कोई एक ही ब्राह्मण को आमंत्रित करने में समर्थ हो, तो वशिष्ठ  ने व्यवस्था दी है कि सभी प्रकार के पके हुए भोजन का थोड़ा सा भाग एक पात्र में रख कर उस स्थान पर रख देना चाहिए, जहां वैश्वदेविक ब्राह्मण बैठाया जाता है। इसके उपरान्त उसे एक थाल में रख कर विश्व देवों का आवाहन करना चाहिए और उनके उस स्थान पर उपस्थित होने की कल्पना करते हुए उस भोजन को अग्नि में डाल देना चाहिए। अथवा भिक्षा के रूप में ब्रह्मचारी को दे देना चाहिए। इसके बाद श्राद्ध-कर्म जारी रहना चाहिए। इसके बावज़ूद मनु  का कथन है कि बड़ी संख्या आमंत्रितों के सम्यक सम्मान, उचित स्थान की प्राप्ति, काल, शौच एवं शीलवान ब्राह्मणों के चयन आदि रूपों को नष्ट कर देती है, अतः बड़ी संख्या की कामना नहीं करनी चाहिए।

आमंत्रण की विधि….

श्राद्ध के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित करने के सम्बन्ध में प्राचीन काल से ही नियम प्रतिपादित हुए हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र  का कथन है कि श्राद्ध-कर्ता को एक दिन पूर्व ही ब्राह्मणों से – ‘कल श्राद्ध है, आप आह्वनीय अग्नि के स्थान में उपस्थित होने का अनुग्रह करें,’ कहते हुए निवेदन करना चाहिए। ‘आज श्राद्ध-दिन है’ कहते हुए दूसरा निवेदन किया जाना चाहिए तथा ‘भोजन तैयार है, आइए’ कहते हुए उन्हें तीसरी बार संबोधित करना चाहिए। मनु  ने भी कहा है कि आमंत्रण एक दिन पूर्व अथवा श्राद्ध के दिन दिया जाना चाहिए।

मत्स्य पुराण  एवं पद्म पुराण  ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध-कर्ता को विनीत भाव से ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व या श्राद्ध के दिन प्रातः आमंत्रित करना चाहिए। उसे आमंत्रित होने वाले के दाहिने घुटने को इन शब्दों के साथ स्पर्श करना चाहिए – “आपको मेरे द्वारा निमंत्रण दिया जा रहा है। आपको क्रोध से मुक्त होना चाहिए, तन और मन से शुद्ध होना चाहिए तथा ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए। मैं भी इसी प्रकार आचरण करूंगा। पितर लोग वायव्य रूप में आमंत्रित ब्राह्मणों की सेवा करते हैं।”

बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार, आमंत्रण इस तरह दिया जाना चाहिए – “हे उत्तम मनुष्यो, आप लोगों को अनुग्रह करना चाहिए और श्राद्ध का आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए। प्रजापति स्मृति ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व संध्याकाल में ‘अक्रोधनैः’ श्लोक के साथ आमंत्रित करना चाहिए।

स्कन्द पुराण की विधि यह है – “मेरे पिता आपके शरीर में हैं (अथवा प्रवेश करेंगे), इसी प्रकार मेरे पितामह भी करेंगे, वे (पितामह) अपने पिता के साथ आएं, आपको प्रसन्नता के साथ व्रत (नियमों) का पालन करना चाहिए।”

पितरों के प्रतिनिधि ब्राह्मणों को प्राचीनावीत ढंग से एवं वैश्वदेविकों को यज्ञोपवीत ढंग से जनेऊ धारण कर आमंत्रण देना श्रेयस्कर है। पहले किसे निमंत्रण देना चाहिए, इस प्रश्न पर स्मृतियों में मतभेद है, किन्तु मध्यकाल के ग्रंथों ने विकल्प भी दिए हैं। मनु  ने दैव ब्राह्मणों को वरीयता दी है।

निमंत्रण कर्ता को स्वयं, उसके पुत्र, भाई, शिष्य अथवा ब्राह्मण द्वारा दिया जाना चाहिए, किन्तु दूसरे वर्ग के व्यक्ति द्वारा, स्त्री, बच्चे अथवा दूसरे गोत्र के व्यक्ति द्वारा निमंत्रण नहीं दिया जाना चाहिए और निमंत्रण दूर से भी नहीं दिया जाना चाहिए। प्रचेता ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मण श्राद्ध-कर्ता को निमंत्रण देते समय आमंत्रित होने वाले व्यक्ति का दाहिना घुटना, क्षत्रिय को बायां घुटना, वैश्य को दोनों पैरों का स्पर्श करना चाहिए तथा शूद्र को साष्टांग पैरों पर गिर जाना चाहिए।

कर्ता और आमंत्रितों का आचार…

श्राद्ध-कर्म की अवधि में श्राद्ध-कर्ता और आमंत्रित ब्राह्मणों को कुछ नियमों का पालन आवश्यक रूप से करना पड़ता है। धर्मग्रंथों में इन नियमों का उल्लंघन करने वाले को पापी तथा यातनाएं सहने योग्य कहा गया है।

कात्यायन के श्राद्धसूत्र (श्राद्ध तत्व) में कहा गया है कि दोषरहित कर्ता द्वारा आमंत्रित होने पर ब्राह्मण को अस्वीकार नहीं करना चाहिए और उसे स्वीकृति देने के बाद किसी दूसरे व्यक्ति से असिद्ध (अर्थात बिना पका हुआ) भोजन भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।

मनु एवं कूर्म पुराण का कथन है कि यदि कोई ब्राह्मण देवों एवं पितरों के यज्ञ में आमंत्रित होने के उपरान्त नियम भंग करता है, तो वह पापी है और दूसरे जन्म में घोर नरक की यातनाएं सहते हुए शूकर योनि को प्राप्त होता है। किन्तु अस्वस्थ अथवा अन्य किसी उचित कारण से अनुपस्थित रहने पर दोष नहीं लगता।

स्मृतियों में आमंत्रित ब्राह्मणों एवं श्राद्ध-कर्ता के लिए कड़े नियमों की व्यवस्था की गई है। कुछ नियम तो दोनों के लिए समान हैं। संक्षेप में यह बातें दोनों के लिए त्याज्य हैं – सम्भोग, पुनः भोजन, असत्य भाषण, शीघ्रता, वेदाध्ययन, भारी काम, जुआ, बोझा ढोना, दान देना एवं ग्रहण करना, चोरी, यात्रा, दिन में शयन और झगड़ा।

श्राद्ध-कर्ता यह कार्य नहीं कर सकता – ताम्बूल सेवन, केश कटाना, शरीर में तेल लगाना, दातुन से दांत स्वच्छ करना।

आमंत्रित ब्राह्मणों के लिए अलग से ये बातें भी पालनीय हैं – आमंत्रण स्वीकार कर लेने के पश्चात उपस्थित होना तथा भोजन के लिए बुलाए जाने पर विलम्ब नहीं करना।

श्राद्ध के उचित भोज्य पदार्थ…

श्राद्ध में प्रयुक्त होने वाले पदार्थों के विषय में अति प्राचीन काल से ही विस्तृत नियम हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र  ने तिल, माष (दाल), चावल, यव (जौ), जल, मूल एवं फल और घृत – मिश्रित भोजन पितरों को बहुत काल के लिए संतुष्ट करने वाला बताया है। याज्ञवल्क्य  केवल इतना कहते हैं कि यज्ञ में अर्पित होने वाला (हविष्य) भोजन ही कराना चाहिए।

मनु  ने व्यवस्था दी है कि यतियों द्वारा जंगल में खाया जाने वाला भोजन, गाय का दूध, सोमरस, बिना मसालों से बना आहार एवं पर्वतीय नमक स्वभावतः यज्ञीय भोजन है। गौतम  के मत से पका हुआ चावल, भिक्षा से प्राप्त भोजन, पीसा हुआ यव, भूसी निकाला हुआ अन्न, यवागू या याजक, शाक, दूध, दही, घृत, फल एवं जल हविष्य (यज्ञीय भोजन) हैं।

मार्कण्डेय  ने घूस से प्राप्त, पतित से प्राप्त, पुत्री के विक्रय से प्राप्त, अन्यायपूर्ण ढंग से प्राप्त तथा ‘पिता का श्राद्ध करना है, कुछ धन दीजिए’ कह कर मांगे गए धन से श्राद्ध-भोजन बनाना निषिद्ध किया है।

श्राद्ध में तिल, मुद्ग (मूंग) एवं माष के अतिरिक्त सभी काली वस्तुएं निषिद्ध हैं। मनु  तथा याज्ञवल्क्य  ने गाय के दूध के अतिरिक्त अन्य सभी दूध वर्जित किए हैं, किन्तु भैंस के घृत को सुमन्तु एवं देवल (हेमाद्रि, श्राद्ध,) ने वर्जित नहीं माना है।

मार्कण्डेय, वायु पुराण  एवं विष्णु पुराण  ने दुर्गन्धयुक्त, फेनिल अल्पजल वाली बावली का, बासी, निजी जलाशय और कुएं तथा पशुओं के पीने वाले हौज के जल को श्राद्ध-कर्म में प्रयुक्त करना निषिद्ध ठहराया है।

ब्रह्म पुराण ने आम, बेल, दाड़िम, नारियल, खजूर, सेब श्राद्ध में दिए जाने योग्य बताए हैं, जबकि वायु पुराण  ने लहसुन, गाजर, प्याज के साथ-साथ बुरे स्वाद एवं दुर्गन्ध वाली समस्त वस्तुएं निषिद्ध की हैं। भूमि से निकाला हुआ नमक भी इसमें वर्जित है। स्मृत्यर्थसार  ने बनाया हुआ नमक वर्जित तथा झील अथवा खदान से स्वाभाविक रूप से प्राप्त नमक सेवन योग्य ठहराया है।

विष्णु धर्मसूत्र  के अनुसार उग्र गंधी अथवा गंधहीन पुष्पों, कांटे वाले पौधों की कलियों एवं रक्तिम (लाल) पुष्पों का प्रयोग वर्जित है, जबकि जल में उत्पन्न, कंटक वाले, गंधयुक्त पुष्पों का, चाहे वे लाल ही क्यों न हों, प्रयोग किया जा सकता है।

जीवित्पुत्रिका व्रत: पुत्रों के दीर्घ, सुखमय जीवन के लिए यह व्रत रखती…

वायु पुराण  ने जाया, भंडि, रूपिका (आक) एवं कुरंटक के पुष्प भी वर्जित किए हैं। ब्रह्म पुराण  ने जाती, चम्पक, मल्लिका, आम्रबौर, तुलसी, तगर, केतकी तथा श्वेत, नीलवर्ण एवं लाल आदि कमल पुष्प श्राद्ध में प्रयुक्त होने वाले पुष्प अभिहित किए हैं, जबकि स्मृत्यर्थसार ने तुलसी को तथा कई अन्य ग्रंथों ने लाल पुष्पों (पानी में उत्पन्न के अलावा) को वर्जित वस्तुओं में रखा है।

श्राद्ध में प्रयुक्त होने वाले दर्श (कुश) प्रातःकाल किसी पवित्र स्थल से ब्राह्मण द्वारा ही एकत्र किए जाने चाहिए तथा वह हरे रंग के और गाय के कान के बराबर होने चाहिए। विष्णु धर्मसूत्र  एवं वायु पुराण  ने व्यवस्था दी है कि कुशों के अभाव में कास अथवा दूर्बा का प्रयोग किया जा सकता है। स्कन्द पुराण प्रभास खंड ०७,भाग का कथन है कि पितृकृत्य में कुशा को दोहरा कर ही प्रयोग करना चाहिए।

श्राद्ध-कर्म में सर्वाधिक महत्व तिलों को दिया गया है और जैमिनि गृह्यसूत्र  का कहना है कि श्राद्ध के समय सारे घर में तिल बिखेर दिए जाने चाहिए। प्रजापति स्मृति ने चार प्रकार के तिलों का उल्लेख किया है – शुक्ल, कृष्ण, अतिकृष्ण एवं जर्तिल। इनमें से प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती की तुलना में पितरों को अधिक संतुष्टि देने वाला वर्णित है।

नारद पुराण ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध-कर्ता को आमंत्रित ब्राह्मणों के बीच एवं द्वारों पर ‘अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः’ वाज. मन्त्र के साथ तिल विकीर्ण करने चाहिए। यही मंत्र याज्ञवल्क्य ने भी दिया है, जिसका अर्थ है – ‘असुर और दुष्टात्माएं, जो वेदी पर बैठी रहती हैं,  हत हों एवं भाग जाएं।’

अनुशासन में आया है कि बिना तिलों के श्राद्ध करने से यातु धान एवं दुष्टात्माएं हवि को उठा ले जाती हैं।

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