प्रोत्साहन बंद होने से निजी स्कूलों की मनमानी पर लगेगा अंकुश

  • शिक्षा के लिए निजी स्कूल-कॉलेजों पर से सरकार को निर्भरता करनी होगी कम और बढ़ाना होगा शिक्षा का बजट
  • शिक्षा तंत्र होगा मजबूत तो अभिभावक अपने बच्चों को भेजेंगे सरकारी स्कूलों में
  • विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से भारतीय विश्वविद्यालयों में बढ़ेगी प्रतिस्पर्धा

अनुपम सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
अनुपम सिंह

लखनऊ। बच्चों की मंहगी हुई पढ़ाई-लिखाई के बोझ के तले आज के दौर का हर अभिभावक दबा हुआ है। उनकी आमदनी का अधिकांश हिस्सा स्कूलों की फीस भरने और बच्चों की कापी किताब खरीदने में चला जाता है। फिर भी वह अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए इस उम्मीद में रहते हैं, बच्चा-पढ़ लिखकर कुछ बन जायेगा तो उनका जीवन सफल हो जाएगा। मंहगी पढ़ाई-लिखाई के लिए अभिभावक सरकारों को भी कोसते हैं,कि सरकार इन स्कूलों की मनमानी पर अंकुश नहीं लगाती है। मगर अभिभावक यह नहीं समझते कि हमारी सरकार विवश है। उसकी अपनी मजबूरी है। सरकारी शिक्षा तंत्र को मजबूत न कर पाने की विवशता के चलते सरकार निजी स्कूलों और विश्वविद्यालयों को शिक्षा के क्षेत्र में भागीदारी के लिए आमंत्रित करती है। तभी तो नई शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित किया गया है।

यहां बता दें कि जब अपना देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था, तब हमारे देश की सिर्फ 18 प्रतिशत आबादी ही पढ़ी-लिखी थी। सरकार के पास इतने संसाधन नहीं थे, कि वह भारतीयों को पढ़ा-लिखा सके। बच्चों को स्कूल भेज सकें। इसके बाद सरकार ने लोगों को शिक्षित करने के लिए निजी क्षेत्र के लोगों को आमंत्रित किया और पूरी सुविधा प्रदान की। देखते ही देखते कुछ दशकों में निजी क्षेत्र के स्कूल-कॉलजों की दखलंदाजी इतनी अधिक बढ़ी, कि वह सरकारी शिक्षा तंत्र पर हावी हो गये और शिक्षा जगत ने पूरी तरह से एक उद्योग का रूप ले लिया। वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की स्थिति दिन-प्रतिदिन दयनीय होती गई और अभिभावकों के दिमाग में यह बात घर कर गई, कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केवल निजी स्कूल-कॉलेजों अथवा निजी शिक्षण संस्थानों में मिल सकता है और अभिभावकों ने निजी स्कूलों की ओर रुख कर लिया। भारतीय राष्ट्रीय सर्वेक्षण की 2021 एक रिपोर्ट की मानें तो आज देश में साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत हो गई है। इसमे 84.7 प्रतिशत पुरुष तो 70.3 प्रतिशत महिलायें है। आजादी के समय देश में लगभग 20 विश्वविद्यालय और 404 कॉलेज थे। वहीं आज के दौर में 1043 विश्वविद्यालय और लगभग 42 हजार 303 डिग्री कॉलेज हैं। देश में 1948 में केवल 30 मेडिकल कॉलेज थे, जबकि यह संख्या बढ़कर लगभग 541 हो गई है।

वहीं आजादी के दौरान देश में कुल 36 इंजीनियरिंग कॉलेज थे, इसमें हर साल सिर्फ 2500 छात्र ही पढ़ पाते थे। आज देश में करीब ढाई हजार इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इसके अलावा लगभग 1400 पॉलीटेक्निक, 200 आर्किटेक्टर और प्लानिंग कॉलेज हैं अर्थात कुल मिलाकर लगभग 4100 इंजीनियरिंग कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं। इसके अलावा देश में 20 IIM , एम्स और 23 IIT हैं। मगर आंकड़ों पर गौर करें तो इनमे से निजी कॉलजों और विश्वविद्यालयों की तादाद अधिक है। हम जानते हैं, दुनिया की कुल आबादी का 18 फीसदी हिस्सा केवल भारत में रहता है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाला भारत अपना देश है। इतनी बड़ी आबादी वाले अभिभावकों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवा पाना अकेले सरकार के बूते की बात नहीं है। निजी क्षेत्र के स्कूल-कॉलेजों की भागीदारी भी जरूरी है। मगर सरकार जिस तरह से आंख बंद कर निजी स्कूल-कॉलेजों को प्रोत्साहन दे रही है। इससे निजी स्कूल-कॉलेजों की मनमानी बढ़ना लाजमी है।

हालांकि वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए भारत सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शिक्षा मंत्रालय के स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के लिए 68,804.85 करोड़ रुपये और उच्च शिक्षा विभाग को 44,094.62 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया है, जो कम है। इसलिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध करवाना सरकार के लिए चुनौती बना हुआ है। सरकार अपने स्कूल-कॉलेजों को भी पीपी मोड पर संचालित करने के लिए निजी संस्थानों को आमंत्रित कर रही है। वहीं नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भी आमंत्रित किया है, जो यहां पर कैंपस खोल सकेंगे, जिसका लाभ उन विद्यार्थियों को मिलने की उम्मीद है,जो भारत के निजी विश्वविद्यालयों में एडमिशन न लेकर गुणवत्तापरख और कम खर्च वाली शिक्षा के लिए युक्रेन जैसे देशों की ओर रुख करते हैं। यही वजह है कि सरकारें निजी शिक्षण संस्थानों के आगे नतमस्तक हैं और देश के अभिभावक परेशान हैं। इसलिए अभिभावकों को पढ़ाई-लिखाई की मंहगाई की मार से बचाने के लिए सरकार को शिक्षा का बजट बढ़ाना होगा। शिक्षा के लिए निजी शिक्षण संस्थानों पर से सरकार को निर्भरता कम करनी होगी। सरकारी शिक्षा तंत्र को मजबूत करना होगा। निजी संस्थानों के लिए प्रोत्साहन बंद करना होगा। तभी अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेज सकेंगे और सभी को सामान शिक्षा मिल सकेगी।


नोट :  अनुपम सिंह, वरिष्ठ पत्रकार लखनऊ।आप पिछले दो दशक से अधिक समय तक पत्रकारिता जगत में सक्रिय हैं। आप ने दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और अमर उजाला समाचार पत्र में 20 वर्षों से अधिक समय तक लेखन संबंधी कार्य किया है। मोबाइल नंबर-9450060095, 9411185444


 

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