कविता : हमारी वंदना करुण हस्त उठता तुम्हारा

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

मैं कैसे कहूँ प्रभु कि मैं हूँ तुम्हारा,
बिना बात की बात का है सहारा,
दिन रात स्मरण करता हूँ तुम्हारा,
दिन रात जपता हूँ नाम मैं तुम्हारा।

शपथ की शपथ हूँ तुम्हें प्रेम करता,
सदा मैं तुम्हीं को ध्यान में हूँ धरता,
साँसे तुम्हारी दी हुई, हैं मेरी अमानत,
शरण में तुम्हारी प्रभु मिलती है जन्नत।

भटकता हुआ मन, न दिखता किनारा,
नैया खिवैया मिलेगा तुमसे ही साहिल,
माया मोह से जैसे सबको है उबारा,
मालिक मेरे, दे दो मुझको सहारा।

किया है तो बस निभाने का शौक़ है

प्रलय भी मचे तो तुम्हारी शरण है,
दुनिया के मालिक तुम्हारे चरण हैं,
मिले सबको तेरे ज्ञानगंगा की गीता,
श्रीकृष्ण सुनायें पार्थ को भगवद्गीता।

दुनिया की चकाचौंध, हम पे न व्यापे,
अपना चरित हम अपने कर्मों से नापें,
दया, धर्म करते सरल जीवन बितायें,
प्रेमाश्रुओं से दुःख दर्द औरों का बाँटे।

लुटाता चलूँ सुख शान्ति धैर्य सबको,
इतनी दो शक्ति, हे परमात्मा मुझको,
सदबुद्धि देना, दुर्मति हर कर हमारी,
मदद की सदा ही नियति हो हमारी।

आदित्य अर्चना में, ये स्वर फूटता है,
हमारी वंदना, करुण हस्त उठता तुम्हारा,
निर्मल हो तन-मन, न हो कोई बिचारा,
आरती और विनती में लगे ध्यान सारा।

 

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