
- शिव पार्वती ही हैं जगत के कारण
- सृष्टि का रहस्य- परा और अपरा प्रकृति
- शिव जगत की आत्मा
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
प्रत्येक अणु के परमाणु की नाभिक मे न्यूट्रान रूप मे परमशक्ति शाली होकर उदासीन भाव से समाधिस्थ रहने वाले शिव की सांसारिक सत्ता के कारक हैं। शिव के हृदय मे प्रोटान रूप विष्णु निवास करते हैं।जिसके आकर्षण मे बंधे हुए ब्रह्मा इलेक्ट्रान रूप मे नाभिक के चतुर्दिक भ्रमण करते रहते हैं। विभिन्न आर्बिट मे भ्रमण करते हुए ये नये नये पदार्थों की रचना करते रहते हैं। पार्वती ही वह गुरुत्वा कर्षण है जो प्रत्येक पिंड को अपने आकर्षण मे बांधे हैं वे चाहे ग्रह नक्षत्र हों अथवा परमाणु के बीच प्रोटान-इलेक्ट्रान के बीच का आकर्षण। शिव पार्वती की कृपा से ही और उनकी विलक्षण आभा से संसार की रचना हुई और वे ही सृष्टि के संवरण के कारण है। श्री मद्भगवद्गीता मे परा और अपरा प्रकृति के दो भेद बताये। परा यह संसार है और अपरा हमारी आत्मा है जिसकी सत्ता से समस्त प्रकृति का अस्तित्व है। इस परा प्रकृति के आठ भेद है जिसे क्रमश: भूमि, जल, अग्नि, वायु,आकाश,मन,बुद्धि और अहंकार कहते हैं।
ईश्वर: सर्व भूतेषु हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्व भूतानि यंत्रा रुढ़ा़नि मायया।।
माया की शक्ति से यह परा प्रकृति अपरा प्रकृति के साथ बंधी है। शिव ने अपनी इच्छा शक्ति से श्री विष्णु को पालन और ब्रह्मा को सृजन हेतु नियुक्त किया और स्वयं संहारक बन कर नाभिक मे समाधिस्थ होगए।
नाभिक के विखंडन और संलयन, तांडव व लास्य
शिव की स़हार कारिणी शक्ति नाभिक के विखंडन और संलयन से प्राप्त होती है। शिव ने संहार के साथ ही सृजन का अनवरत चलने वाला सूत्र रचा। जैसे जब कोई बीज मिट्टी मे पड़ कर सड़ता है,उसका अस्तित्व खत्म होता है तो उसके भीतर से अंकुरण फूट पड़ता है। इसी तरह हर संहार के बाद सृजन की प्रक्रिया शुरू होजाती है। शिव का तांडव स़हार का उद्घोष करता है तो पार्वती का लास्य सृजन के ताने बाने बुनता है। शिव पार्वती ही इस सृष्टि के मूल सूत्र है़।
शिव का सांकेतिक स्वरूप है शिव लिंग
शिव अनंत ऊर्जा के कारक है,जिनका दिव्य स्वरूप शिव लिंग मे समाहित है। यही वह ज्योतिर्लिंग है जो पाताल से सत्यलोक के बीच प्रकाशित है किंतु इसके ओर छोर का पता नहीं। यह अनंत शक्ति शाली और अनंत शक्तियों से परिपूर्ण है। इसी लिए वेद स्तुति करता है।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥
हे प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों नष्ट हो जाते हैं।