दो टूक : देश की 19 फीसद सीटों पर हो चुके मतदान में गिरते प्रतिशत से भाजपा हलकान

लोकसभा चुनाव के शंखनाद के बाद घोषित सात चरणों के चुनाव का पहला चरण बीता कि सियासत में इन दिनों भूचाल मचा है। बात हो रही है पहले चरण के घटते मतदान की । चर्चा स्वाभाविक है क्योंकि 1०2 सीटों पर चुनाव हुआ है यानि बात करें तो 19 फीसद सीटों पर चुनाव हो गये हैं और उन पर 2०19 के मुकाबले ही नहीं अब तक के सबसे कमतर फीसद सामने आया है। चर्चा ज्यादा इसलिए भी हो रही है क्योंकि यही हाल तब भी हुआ था जब अटल सरकार ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे को लेकर आम चुनाव में गया था और उसे करारी शिकस्त मिली थी। दरअसल इस मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले हमें समीकरण समझना होगा। 2०19 में इन सीटों पर तकरीबन 7० फीसद मतदान हुआ था जो इस बार घटकर तकरीबन 63 फीसद हो गया है, यानि कि 7 फीसद की गिरावट। यह छोटी-मोटी नहीं बड़ी गिरावट है। पिछले बार की तुलना में बिहार में 5 फीसद, राजस्थान में 7 फीसद, मध्य प्रदेश में 8 फीसद, उत्तर प्रदेश में 7 फीसद, उत्तराखंड में 6 फीसद, तमिलनाडु में 3 फीसद, पश्चिम बंगाल में 4 फीसद दर्ज की गयी है।

जबकि अगर सबसे बड़े राज्य उप्र की आठ सीटों की बात करें तो मुजफ्फरनगर में 9 फीसद, कैराना में 7 फीसद, सहारनपुर में 5 फीसद, रामपुर में 8 फीसद, मुरादाबाद में 5 फीसद, पीलीभीत में 5 फीसद, नगीना में 4 फीसद, बिजनौर में 8 फीसद मतदान कम हुआ है।

मतदान में इस गिरावट के कई मायने हो सकते हैं। मसलन, कई इलाकों में भीषण गर्मी, विपक्ष के मतदाताओं को इंडिया गठबंधन के जीतने की उम्मीद न होना, भाजपा कार्यकर्ताओं में अति आत्मविश्वास कि हम तो 4०० पार हो ही रहे हैं, हमें वोट डालने जाने की क्या जरूरत है, कुछ जातियों में भाजपा से खासी बढ़ती नाराजगी या फिर चुनाव पर ही भरोसा खत्म हो जाना। या फिर इसमें से कोई भी कारण न हो, यह तो मेरा आकलन भर है। दरअसल यह विषय मंथन का है कि हिन्दी पट्टी जो राजनीतिक रूप से मुखर मानी जाती है। उसके बाद भी इस पट्टी में वोटिग का प्रतिशत क्यों कम हुआ। यह राजनीतिक दलों के लिए चिता का विषय है। 2०14 में जब चुनाव हो रहा था तब यूपीए सरकार को लेकर बहुत नाराजगी थी। वहीं, 2०19 में पुलवामा हमले के बाद के गुस्से के बाद बालाकोट स्ट्राइक का जो उत्साह था, 197० के युद्ध के बाद हुए 1971 के चुनाव में भी उस तरह का उत्साह देखा गया था। इस बार ऐसा कोई आक्रामक मुद्दा नहीं दिख रहा है। यह बात दोनों पक्षों पर ही लागू होती है। पूर्वोत्तर की बात करें तो वहां आबादी कम है। अब जिस बूथ पर सौ वोटर हैं वहां, अस्सी लोगों ने वोट डाल दिया तो अस्सी प्रतिशत वोटिग हो गई। वहीं, जहां ज्यादा आबादी है वहां के हजार लोगों के बूथ पर सात सौ लोग भी वोट डालेंगे तो मतदान प्रतिशत 7० का ही रहेगा। दूसरा पूर्वोत्तर में उम्मीदवारों का पर्सनल कनेक्ट ज्यादा होता है। इसका कारण भी आबादी है। मतदान प्रतिशत गिरना जीत या हार से ज्यादा लोगों की मतदान के प्रति उदासीनता के कारण है। यह चिता का विषय है।

मतदान प्रतिशत की बात करें तो अलग-अलग जगह अलग माहौल रहा। जैसे पश्चिम बंगाल में दोनों पक्षों ने जमकर मतदान किया। हराने वाली जो शक्तियां हैं वो वोट डालने नहीं निकलेंगी यह मैं नहीं मानता हूं। ये जरूर हो सकता है कि जो जिताने के वोट देने जाने वाला है वो एक बार रुक जाए लेकिन, जो किसी को हराने के वोट देना चाहता है वो वोट देने नहीं जाएगा ऐसा नहीं होगा। उम्मीदवारों के चयन को लेकर भाजपा समेत सभी दलों में असंतोष है। सपा को कई जगह उम्मीदवार बदलने पड़े, कारण कुछ भी हो सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि यह ऐसा नहीं कि पहले चरण में है, आगे ठीक हो जायेगा। इस बार शुरुआत से ही मतदाताओं में चुनाव को लेकर कोई रुझान नहीं दिया। प्रचार ठंडा है । मतदाता चर्चा नहीं कर रहा। वो खामोशी ओढ़े है। अगर आप शुरू से देख्ोंगे तो पता चलेगा कि इस बार जो नये मतदाता पंजीकरण कराते हैं उनका आकड़ा भी गिरकर केवल 38 फीसद रह गया यानि नये लोग भी चुनाव में वोट डालने के लिए उत्सुक नहीं दिखे। और मतदान तो युवा ही करता है । इस कम मतदान को अगर देखा जाये तो नुकसान साफ तौर पर सत्तारूढ़ दल का होता हुआ दिखायी दे रहा है क्योंकि जो विरोधी होता है वह तो वोट डालने जरूर निकलेगा कि कहीं भाजपा जीत न जाये। लेकिन भाजपा को वोटर इतना इस बार आश्वस्त है कि हम तो 4०० पार आ ही रहे हैं, हमें क्या करना। हम क्यों जायें, कहीं इसने तो आंकड़ा नहीं गिराया। दूसरी बात यह है कि अगर यही बात विपक्षी मतदाताओं पर लागू करें तो भी तर्क है कि विरोधी दल के मतदाता भी मानते हैं कि कुछ भी कर लो, मोदी तो 4०० पार आ ही रहे हैं, क्या करने जायें वोट देने, गठबंधन तो जीतेगा नहीं। ऐसा भी संभव है। यानि कारण कुछ भी हो सकता है।

लेकिन दस सालों के शासन को देख्ों तो इस बार सत्तारूढ़ दल भाजपा भी कोई बड़ा मुद्दा देने में नाकामयाब रही है। दूसरी तरफ किसी भी सीट पर प्रत्याशी नहीं लड़ रहा, हर सीट पर मोदी ही लड़ रहे हैं। इसीलिए आपनेे देखा होगा कि पहली बार लोकसभा चुनाव में भी स्थानीय मुद्दे हावी होते दिखायी दे रहे हैं। विपक्ष के नेता और प्रत्याशी तक मतदाताओं तक पहुंच बनाने में सफल नहीं रहे। चुनाव प्रणाली पर भी जनता को अब विश्वास नहीं रहा, कुछ वर्ग यह भी सोचता है कि वोट किसी को भी दो जीतेंगे तो मोदी ही, ऐसे लोग वोट देने ही नहीं जाते। जबकि मुस्लिम वर्ग तो 1०० फीसद वोट करता है यानि कि जो मतदातन प्रतिशत गिरा है उसका नुकसान देख्ों तो भाजपा को ही होता हुआ दिख रहा है।

राजेश श्रीवास्तव

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