आदि पुरुष- जब रावण की लंका को हनुमान जी जला आए थे तो फिर राम ने विभीषण को किस लंका का बनाया राजा?

उमेश तिवारी


लंका तो हनुमान जी जला आए थे, फिर राजतिलक में विभीषण को राम ने किस लंका का राजा बनाया ? जली हुई या मरम्मत कराई हुई? जवाब उतना ही आसान है‌ कि ताप पाकर सोना जलता नहीं, बल्कि उसमें और निखार आता है। इस वक्त लंका का जिक्र इसलिए कि सारी आग लंका पर ही लगी हुई है।आदि पुरुष नाम से एक फिल्म आई है। उसे फिल्मी भाषा में कहा जाए तो उसने हमारी श्रद्धा, आस्था सबकी लंका लगा दी है। दरअसल, राम जन-जन के आदर्श हैं। किसी भी आदर्श को आप लोगों के सामने हल्के रूप में प्रदर्शित नहीं कर सकते।

याद है जब लोग अपने घर से दरी- टाट पट्टी,धान का पुआल,गमछा ले- लेकर मैदान में जाते थे और अपना टाट बिछाकर रामलीला देखा करते थे । जिसके पास कुछ नहीं रहता था खाली जमीन पर बैठ कर रामलीला देखते थे । उन राम लीलाओं में कभी राम के आदर्श रूप के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई। लोग हाथ जोड़कर वहां बैठा करते थे। हाथ जोड़कर ही उठते भी थे।

फिर नब्बे के दशक में रामानन्द सागर एक रामलीला लाए टीवी पर। रामायण था उस महा सीरियल का नाम। लोग मेहमानों से कहा करते थे – हमारे घर आना हो तो सुबह नौ बजे से पहले आना या फिर रामायण खत्म होने के बाद। गलियों, मोहल्लों, सड़कों, गांवों, कस्बों और शहरों में नौ बजे जैसे कर्फ्यू लग जाता था। कहीं, कोई नजर तक नहीं आता था। गांवों की हमारी रामलीला को रामानन्द सागर ने गजब की भव्यता प्रदान की। जो भारत ही नहीं दुनिया भर के लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी रामायण के सभी किरदारों की लोग पूजा करते है। साल 1987 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ टीवी सीरियल रामायण दुनिया में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो बना था।

जिन्होंने कभी रामायण पढ़ी नहीं, समझी नहीं थी, वे भी राम के चरित्र के प्रशंसक हो गए थे। “आदि पुरुष” के निर्माताओं, निर्देशकों, खासकर संवाद लेखकों ने भी रामानन्द सागर जैसी ही अमरता चाही होगी, लेकिन यह उल्टी पड़ गई। क्या सोचकर और क्या मन में रखकर ऐसे संवाद गढ़े होंगे, जो कम से कम हिंदुस्तान में तो कभी भी, किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किए जा सकते। संवाद भी कैसे-कैसे- “कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, लंका लगा देंगे!” आखिर ये क्या है?

जिस धार्मिक सोच वाली राजनीतिक पार्टी की उंगली पकड़कर चलना सीखा, आज वही पार्टी या उसके घटक दलों द्वारा उसी उंगली को पकड़ लेखक के पुतले जलाए जा रहे हैं। आपको कोई भी और किसी भी तरह का प्रश्रय प्राप्त क्यों न हो, आप लोगों की भावना, उनकी आस्था का मजाक नहीं उड़ा सकते। उड़ाओगे तो वही होगा, जो आज हो रहा है। फिर रामायण को आप आज के फिल्मी कल्चर के अनुसार ट्रांसलेट करना ही चाहते थे जो कि आपने किया भी, तो उस पर अडिग रहते ! क्यों बार-बार अपने द्वारा फिल्माए गए दृश्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं? क्यों अपने ही लिखे हुए संवादों को बदल रहे हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और बाजार से मोटा पैसा कूटने के लालच में आपने राम जैसे आदर्श को हल्के रूप में पेश किया और चूंकि अब विवाद बढ़ गया है जो कि शायद आप पहले से ही चाहते थे, तो बार-बार बदलाव किए जा रहे हैं ! ताकि जो एक बार आपकी फिल्म देख चुका है, वो दूसरी बार इसलिए देखने आए कि जो बदलाव करने थे, वे हुए भी हैं या नहीं?यह सच है कि जो कुछ भी लिखा हुआ था या है, उसे फिर से नए रूप में लिखा जाता रहा है। लिखा जाना भी चाहिए क्योंकि यहां आखिरी कुछ नहीं होता। जैसे- कई बार उत्सुकता जागती है कि कबीर ने आखिरी चादर किसके लिए बुनी होगी? यह विभास भी जागता है कि एक योगी की यात्रा में आखिरी चरण कहां पड़े होंगे? यह दुविधा भी घेरती है कि एक अवधूत या रागी का अन्तिम शब्द कीर्तन आखिर किस तम्बूरे पर हुआ होगा?

यह जो उत्सुकता और विभास और दुविधा जो है, अपने अन्तिम छोर, अपनी समाप्ति पर पहुंचकर भी आखिरी कहां हो पाती है? इसलिए बदलाव होना चाहिए। ट्रांसलेशन भी होना चाहिए लेकिन तथ्य या कथ्य के मूल भाव या भावना से छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए, जो कि “आदि पुरुष” के निर्माताओं ने किया है। बदलाव कुछ अच्छे होते हैं, कुछ बुरे । बदलने को तो अब जुबां भी बदलने लग गई है। आसमां भी रंग बदलता रहता है। शब्द भी चमड़ी बदलते फिरते हैं। मीठे पानी के घड़े भी बोतलों में सजने लगे हैं। आदि पुरुष के निर्माताओं के जो संवाद हैं वे अच्छे बदलाव में नहीं गिने जा सकते। अच्छे बदलाव ऐसे होने चाहिए जैसे शर्मीले से, छोटे-छोटे चम्पा के फूल हों, जैसे जाड़े का दिन हो जिसमें उगने से पहले ही सूरज डूबने को होता है ! भूखे, मुस्तैद पंजों की तरह नहीं, जिसमें इच्छाएं अपने दांत पैने करके दहाड़ मार रही हों?

बहरहाल, इस फिल्म वाले अब लोगों की इच्छा के अनुरूप हर तरह से, हर तरफ बदलाव करने को राज़ी हो गए हैं। कहीं इस फिल्म के कारण सिनेमा घरों को ताले लगा दिए गए हैं, कहीं इसके लेखक के पुतले फूंके जा रहे हैं और नेपाल जैसे देश में तो फिल्म ही प्रतिबंधित कर दी गई है। नेपाल वालों का कहना है कि सीताजी का जन्म जिस जनकपुर में हुआ था वो हमारी नेपाली जमीन पर है। भारत में सीता माता का जन्म दिखाना पूरी तरह गलत है!

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