लीक पर चले वाजपेयी

के. विक्रम राव
            के. विक्रम राव

भले ही कांग्रेसी आलोचना करें, पर अटलजी के सशक्त राष्ट्र के स्वप्न के सामने बाकी सारी धमकियां नगण्य थीं। इतना तो मानना होगा कि शांतिप्रियता के मसले पर अटलजी अद्वितीय रहे। पूर्णतया अटल रहे। लाहौर बस यात्रा इसी प्रवृत्ति और कामना का प्रतिफल है। पर इस्लामी प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ तक को नहीं पता था कि उनके सेनापति जनरल मोहम्मद परवेज मुशर्रफ भारत-पाकिस्तान मैत्री बस को उलटाने में ओवरटाइम कर रहे थे। और किया भी। दिल्ली लौटते ही एक प्रधानमंत्री ने दूसरे से शिकायत की क्यों की? कैसे पलटा यह दोस्ती का मामला ? फिर तब दौर और चला। परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को बाद में जेल में डाल दिया था। आगरा में अटल-शरीफ बैठक भी कश्मीर के मसले पर टूटी। हालांकि अटलजी चाहते थे कि सीमापार आतंक का हल निकले। नहीं हुआ। मुशर्रफ ने व्यंग के लहजे में कहा भी कि यदि वे स्वयं अटलजी से सहमत हो गये तो उन्हें वापस अपने पैतृक बंगले, नहरवाली गली, दरियागंज, आना पड़ेगा, जिसे छोड़कर वे पाकिस्तान गये थे। हालांकि मुशर्रफ प्रथम पाकिस्तानी पुरोधा थे जो राजघाट पर बापू को श्रद्धासुमन अर्पित कर आगरा गये थे, वार्ता हेतु।

अटलजी की विदेश नीति का एक उल्लेखनीय पक्ष यह भी रहा कि उन्होंने तिब्बत को चीन का भूभाग मान लिया। ऐवज में कम्युनिस्ट चीन ने हिमालयी सिक्किम को भारतीय प्रदेश माना। हालांकि माओ जेडोंग की मान्यता रही सिक्किम चीन की तर्जनी (उंगली) है। तिब्बत तो हथेली और भूटान, अरूणाचल, लद्दाख और नेपाल को बाकी चार कटी उंगलियां हैं। कुछ यादे ताजा कर लें। अटल जी ने 2004 में एक नया अध्याय लिखने का प्रयास किया था। पर जनरल कमर बाजवा ही असली शक्ति थे, सिहांसन के पीछे। बात नहीं बनी। अंजाम में फिर पुलवामा हुआ। प्रतिफल में बालाकोट पर हमला। मोदी राज में ही हुआ। पर शुरूआत अटलजी के समय से ही हो गयी थी। अपनी विदेश नीति की रचना और अनुपालन में अटलजी आधे ही आत्मनिर्णयक रहे। काफी हद तक अपने आदर्श जवाहरलाल नेहरू के विचारों तथा व्यवहार का अनुपालन रहे। उदाहराणार्थ परमपावन दलाई लामा के प्रश्न पर अटलजी चीन से दुराव पालना अथवा मुकाबला या तीव्र टकराव नहीं चाहते थे। शायद इसी का परिणाम था कि तिब्बत पर वे चीन के हिमायती हो गये। विडंबना है कि तिब्बत पर कोई भारतीय अटलजी के नजरिये से सहमत कभी नहीं था। स्वयं उनकी पार्टी भी। डा. राममनोहर लोहिया तो 1949 से पुकारते रहे कि कैलाश के शिव तो भारत के है।

तिब्बत को कैसे भारत चीन को दे दे। शायद अटलजी व्यवहारिक हो गये थे। उस दौर में अटलजी नेता प्रतिपक्ष थे जब सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को अपना उपनिवेश बनाना चाहा था। उन्होंने भविष्यवाणी भी की थी कि: ‘‘अफगानिस्तान सोवियत रूस के लिये वियतनाम जैसा हो जायेगा जिसे अमेरिका को छोड़ना पड़ेगा।‘‘ हुआ भी ठीक ऐसा ही अंततः। सागरपार श्रीलंका पर अटलजी बड़े संवेदनशील रहे। बौद्ध धर्म के प्रेमी होने के कारण। और शायद हजारों तमिलभाषियों के उत्तरी भूभाग में सदियों से बसे रहने के कारण। एक और विवशता थी। उनकी राजग सरकार को जयललिता की अन्नाद्रामुक का लोकसभा में समर्थन प्राप्त था। तमिलभाषीजनता भारत सरकार की विदेश नीति श्रीलंका के मामले में काफी प्रभावित करती रही। ऐसा हुआ भी। अटलजी की सरकार गिरी भी तो जयललिता के कारण। इस परिवेश में इतना तो निश्चयात्मक तौर पर कहा जा सकता है कि अटलजी की विदेश नीति के कमजोर पक्षों को नरेन्द्र मोदी ने सुधारा, पुख्ता कर दिया। इसमें लद्दाख, कश्मीर, श्रीलंका, मालद्वीप और इस्राइल शामिल है। आखिर मोदी दोहराते रहे कि वे अटलजी का सपना पूरा करना चाहते हैं। कितने कारगार होंगे यह तो वक्त बतायेंगा। खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद।

K Vikram Rao
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