शैलपुत्रीं यशस्विनींम्

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

दुर्गा का प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री है। नवदुर्गा के प्रथम दिन इनकी आराधना होती है। नव दुर्गा के प्रथम दिन की उपासना में साधक स्वयं को मूलाधार चक्रमें स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारम्भ होता है।

देवी का मंत्र-

”वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनींम्।

शैपुत्रत्री पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री रूप में अवतरित हुई थी। इसीलिए यह शैलपुत्री नाम से प्रतिष्ठित हुई। शैलपुत्री त्रिशूल व कमल से सुशोभित हैं। अपने पूर्वजन्म में यह प्रजापति दक्षपुत्री थी। इन्हें सती कहा गया। उनकी कथा बहुत प्रसिद्ध है। भगवान भोलेनाथ से इनका विवाह हुआ था। दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में भोलेनाथ की अवज्ञा हुई थी। उनको आमंत्रित नहीं किया गया था। सती के कई बार आग्रह को देखते हुए शिव जी ने अनिच्छा के साथ उनको यज्ञ को देखने की अनुमति दी थी। यहां उन्होंने शिव जी की अवहेलना व अपनी उपेक्षा का प्रत्यक्ष अनुभव किया। इससे उनको विषाद हुआ। उन्होंने अपने को यज्ञ की अग्नि में समर्पित कर दिया। शक्ति पीठों की स्थापना भी इसी प्रसंग से जुड़ी है। यही सती अगले जन्म में शैलपुत्री बनीं। इनका विवाह भी शिव जी से हुआ था। हैमवती स्वरूप से इन्होंने देवताओं का गर्व भंजन किया था।

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