तालिबान अब पाकिस्तान के खिलाफ भारत के साथ 

 संजय सक्सेना

अफगानिस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते आज जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह इतिहास का बड़ा सबक है। कभी तालिबान को आंख मूंदकर समर्थन देने वाला पाकिस्तान आज उसी तालिबान के खिलाफ मोर्चा खोल चुका है। यह वही पाकिस्तान है जो कभी तालिबान को भारत के खिलाफ भड़काने, आतंक के नये ठिकाने तैयार कराने और पूरे दक्षिण एशिया को अस्थिर करने का अपराध कर चुका है। परंतु समय का चक्र ऐसा घूमा कि अब वही तालिबान पाकिस्तान के गले की हड्डी बन गया है। यह हालात इस बात का प्रमाण हैं कि जो देश आतंक को पालते हैं, एक दिन वही आतंक उन्हें डसने लौट आता है।  जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं की वापसी हुई और अशरफ गनी की निर्वाचित सरकार को तालिबान ने उखाड़ फेंका, उस वक्त पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई थी। राजधानी काबुल में तालिबान की बंदूकें आज़ाद हुए लोगों की आज़ादी छीन रही थीं। उस दौर में कोई देश तालिबान सरकार को वैध नहीं मान रहा था, लेकिन पाकिस्तान सबसे आगे बढ़कर उसकी पैरवी करने लगा। इस्लामाबाद ने तालिबान को न केवल समर्थन दिया बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक वैकल्पिक सत्ता के रूप में स्वीकार कराने की कोशिशें भी कीं। पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने तालिबान की मदद के लिये अपने सीमावर्ती इलाकों को खुला छोड़ दिया, ताकि आतंक के नाम पर अफगानिस्तान की पूरी दिशा पाकिस्तान के हित में झुकी रहे।

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परंतु यह गठबंधन शुरू से ही झूठ और लालच पर टिका था। पाकिस्तान चाहता था कि तालिबान सिर्फ उसके इशारों पर चले, भारत के खिलाफ इस्तेमाल हो और कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाए। लेकिन तालिबान की अपनी सत्ता की जड़ें जमने लगीं तो उसकी प्राथमिकताएं बदल गईं। तालिबान को समझ में आने लगा कि पाकिस्तान उसका इस्तेमाल कर रहा है और उसे वैश्विक पहचान दिलाने के बजाय आतंक का प्रतीक बनाकर रख देना चाहता है। तालिबान ने जब भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना शुरू किया, तभी पाकिस्तान के धैर्य का बांध टूट गया।  हाल के दिनों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर जिस तरह के हमले हुए हैं, वे यही कहानी कह रहे हैं कि अब दोनों देशों के बीच विश्वास खत्म हो चुका है। पाकिस्तान ने तालिबान शासित अफगानिस्तान पर उन ही हथकंडों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है जो वह वर्षों से भारत के खिलाफ करता रहा है। सीमा पर हवाई हमले, ड्रोन घुसपैठ और रॉकेट हमले पाकिस्तानी सोच की उसी बीमार मानसिकता का हिस्सा हैं जो हमेशा अपने पड़ोसी देशों की स्थिरता को चुनौती देती रही है। इस बार अंतर केवल इतना है कि पाकिस्तान की यह बर्बरता अब भारत पर नहीं बल्कि अफगानिस्तान पर गिर रही है।

पाकिस्तान का यह कदम तब आया जब अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान भारत की यात्रा पर आने वाले थे। यह यात्रा तालिबान शासन के लिए ऐतिहासिक मानी जा रही थी क्योंकि भारत और अफगानिस्तान के बीच नए भरोसे की शुरुआत होने जा रही थी। भारत हमेशा से अफगानिस्तान के विकास और स्थायित्व के पक्ष में रहा है। भारत ने कभी आतंक की राजनीति नहीं की, बल्कि अफगान जनता के जीवन स्तर को सुधारने के लिए सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों और मानव संसाधन के विकास पर काम किया। यही वजह है कि तालिबान के कई वर्गों में भारत के प्रति सहानुभूति पैदा हुई है। भारत ने अफगानिस्तान में कोई सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया बल्कि हमेशा स्थायी शांति की वकालत की।  पाकिस्तान को यही बात खटक रही है। उसे डर है कि अगर भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सुधरते हैं तो उसका प्रभाव क्षेत्र समाप्त हो जाएगा। पाकिस्तान अपने धर्म आधारित राजनीतिक खेल में इतना डूबा है कि उसे यह समझ नहीं आता कि पड़ोसियों से दुश्मनी रखकर वह खुद अपने देश को विनाश की ओर धकेल रहा है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति पहले से ही चरमराई हुई है। वहां का समाज चरमपंथी विचारधारा में फंस चुका है और जनता लगातार महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा से जूझ रही है। ऐसे में अफगानिस्तान से टकराव का नया मोर्चा खोलकर पाकिस्तान ने अपनी बर्बादी को और तेज कर दिया है।

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उधर, तालिबान भी अब पाकिस्तान के दोहरे खेल को समझ चुका है। जिस पाकिस्तान ने कभी तालिबान को आश्रय दिया, अब वही उसकी सरकार गिराने की साजिशें रच रहा है। तालिबान नेताओं के खिलाफ पाकिस्तानी प्रचार, सीमा के पास उनके ठिकानों पर बमबारी, और उनके अधिकारियों को निशाना बनाने जैसी हरकतें यह साबित करती हैं कि पाकिस्तान को शांति नहीं, सत्ता और नियंत्रण चाहिए। लेकिन अब तालिबान किसी और के इशारे पर नहीं चलना चाहता। इस मौजूदा हालात में तालिबान ने पहली बार भारत के साथ संवाद कायम करने की इच्छा जताई है, जो पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा झटका है।  भारत इस पूरे परिदृश्य में संतुलित नीति के साथ आगे बढ़ रहा है। भारत जानता है कि स्थायी शांति तभी संभव है जब अफगानिस्तान की धरती आतंक का केंद्र न बने। भारत का रुख साफ है कि वह किसी भी सरकार को तब तक मान्यता नहीं देगा जब तक वह लोकतंत्र, मानवाधिकार और महिलाओं की स्वतंत्रता के प्रति सम्मानजनक रुख न अपनाए। परंतु कूटनीतिक स्तर पर भारत यह भी समझता है कि बातचीत से ही समाधान का रास्ता निकलेगा। इसी सोच के तहत भारत ने तालिबान शासन से न्यूनतम स्तर पर संवाद बनाए रखा है और मानवीय सहायता जारी रखी है।

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दूसरी ओर पाकिस्तान लगातार बेनकाब हो रहा है। अपने ही बनाए तालिबान के खिलाफ जंग छेड़कर उसने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि आतंक को राजनीतिक साधन बनाना एक दिन आत्मघाती साबित होता है। पाकिस्तान की नीतियां अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सवालों के घेरे में हैं। अमेरिका, रूस और चीन तक इस बात को समझने लगे हैं कि दक्षिण एशिया की स्थिरता तभी संभव है जब पाकिस्तान को उसके आतंकी समर्थन की कीमत चुकानी पड़े। भारत इस पूरे मामले पर सतर्क है और उसके कूटनीतिज्ञ अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान की तरफ से अस्थिरता फैलाने के प्रयास जारी रहेंगे। लेकिन भारत की ताकत उसकी नीति, नैतिकता और जनता के विश्वास पर टिकी है, न कि किसी आतंक के बल पर। आज तालिबान और पाकिस्तान का यह झगड़ा भारत के उस रुख को सही साबित कर रहा है जो वर्षों से कहता आया है कि आतंक से कोई दोस्ती नहीं, यह केवल विनाश लाता है। अफगानिस्तान में शांति और विकास का मार्ग तभी प्रशस्त होगा जब वह पाकिस्तान के इस झूठे सहारे से पूरी तरह स्वतंत्र हो जाए। भारत की कोशिश यही रहनी चाहिए कि वह अफगान जनता के साथ विकास, शिक्षा और मानवीय सहयोग के माध्यम से स्थायी संबंध बनाए, ताकि आतंक की राजनीति धीरे-धीरे खत्म हो और दक्षिण एशिया में स्थिरता की नई सुबह उग सके।

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