डॉ धनंजय मणि त्रिपाठी
मेरे पिताजी के पढ़ाए हुए एक शिष्य गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर एवं हेड थे। हमारे ही बगल के गांव के थे और उनकी चर्चा करके पिताजी बहुत गौरवान्वित होते थे। मैने जब इंटरमीडिएट की परीक्षा दी तो गर्मियों की छुट्टियों में पिताजी मुझे अपने साथ लेकर उनके गोरखपुर वाले घर पर गए ताकि मेरे भविष्य के लिए कुछ राय ले सकें। मैं प्रत्येक कक्षा का टॉपर तो नहीं था, लेकिन गांव के औसत बच्चों से बहुत बेहतर छात्र था। अतः यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर से बेहतर कौन बता सकता था, वह भी जब हमारे पिताजी के पढ़ाए हुए शिष्य इतने बड़े पद पर थे। खैर उन दिनों सरदार योगेन्द्र सिंह जी की बस चलती थी गोरखपुर से नौऱगिया तक। हम दोनों लोग बस से पहुंचे गोरखपुर। फिर अपने पिताजी के उस महान शिष्य के घर गए। उनका घर बहुत सुंदर बना था। अंदर पहुंचे तो गुलाब की खुशबू में डूबे कमरे में शानदार कारपेट पर सोफे लगे थे। उस समय तक मेरे गांव में बिजली नही आई थी। बिजली के अदभुत लैंप फ्रिज, कूलर, रेडियो, टेलीविजन आदि – आदि न जाने क्या क्या था। सब कुछ देखकर मैं सम्मोहित था। पर पिताजी के वह शिष्य बहुत ही ज्यादे अहंकारी निकले।
हम दोनों को कारपेट पर जमीन में बिठाया। सोफे पर खुद बैठे रहे। पीने को सिर्फ पानी दिया। चाय तक नहीं पिलाई उन्होंने। मेरे करियर पर राय देने की बात आई तो बोले “गाय खरीद दीजिए पंडीजी इसे, चराएगा” पढ़ने लिखने से कोई फायदा नहीं। फिर सपरिवार कहीं जाना है ये कह कर हम लोगों से मुक्ति पाई। मेरे पिता जी को बहुत अपमानजनक लगा उनका यह व्यवहार, पूरे राह वह कुछ नहीं बोले, शायद आत्मग्लानि की वजह से। मुझे भी बहुत बुरा लगा था। पर मेरे मन मस्तिष्क में उनका अहंकार नहीं उनकी जीवन शैली भर गई। सोचा कि अब पढ़ना है और इनके जैसा ही बनना है। एक शानदार जीवन और सुन्दर सा घर भी बनाना है। उसके बाद तो सबकुछ खुद ही मिल सकता है। लेकिन उसी दिन एक प्रण लिया कि जीवन में चाहे जितनी ऊंचाई पर पहुंच जाऊंगा और उपलब्धियां हासिल हो जाए बस इनकी तरह अहंकारी नही बनना है। ईश्वर की कृपा रही। बीएससी, एमएससी में टॉपर रहा। समय बीतता रहा। यूपीएससी के लिए जान लगाकर पढ़ाई करता था मैं, लेकिन मेरा दुर्भाग्य था कि अंतिम रूप से सलेक्शन नहीं हो पाया। फिर एक दिन आया जब मैं ‘द टाइम्स आफ इंडिया’ में कार्यरत था बतौर सीनियर रिपोर्टर । तब वे रिटायर हो कर गोरखपुर के उसी बेतियाहाता वाले मकान में रह रहे थे।
उन दिनों जिस पार्टी की सरकार थी अखबार प्रबंधन ने मुझे उसी पार्टी का न्यूज कवर करने के लिए जिम्मेदारी सौंपा था। इस नाते पार्टी दफ्तर, नेताओं तथा मुख्यमंत्री जी से मेरी सीधी जान पहचान बन गई थी। उनको किसी तरह मेरे बारे में पता चल गया कि मैं भी गोरखपुर से हूं। मेरे एक रिश्तेदार हैं परोरहा के सुरेश भईया, जो उनके भी रिश्तेदार थे, उनसे उन्होंने मेरा पता लिया, और मेरे रूम पर लखनऊ मिलने पहुंचे । वे पहचान नहीं पाये कि हम उनके गांव के वही पंडी जी के पुत्र हैं जिनको मेरे पिताजी ने पढ़ाया था और कभी मिलवाने के लिए लाये थे। खैर, हम उनसे मिले बड़े प्रेम से और उनका एक अटका हुआ काम भी करवा दिया। बाद में वह जोड़ तोड़ करके देश के ‘सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान’ के अध्यक्ष बन गये । पर शायद उन्हें उतनी पुरानी बात याद न थी। हमने भी याद नहीं दिलाई कि आपने कितना अपमान किया था हमारे पिताजी का । जीवन में रिश्तों को सिर्फ एक सीढ़ी बनाकर जीते रहे। ईश्वर सब देखते है।
आज वह वृद्ध हो गए हैं, लेकिन मोह माया और मोहब्बत अंतिम सांस तक कहां छोड़ पाता है मनुष्य?
पर उन्हें मैं अपनी प्रेरणा मानता हूं क्योंकि उस दिन यदि मैं उनकी जीवनशैली न देखा होता तो शायद मैं लिखने पढ़ने, संघर्ष करने तथा उपर उठने के बारे में जिन्दगी भर कभी सोचता भी नहीं। मेरी सारी प्रगति में उनका अपमान, उनकी लाईफ स्टाइल और उनका भौकाल मेरे लिए प्रथम प्रेरणा रहेगा। मैं ईश्वर को भी धन्यवाद देता हूं कि मेरे जीवन के शुरूआती समय में ही ऐसे तमाम लोगों से मेरी मुठभेड़ हुआ जो मेरे अंदर की चिंगारी को जलाएं रखने में प्रेरित करता रहा। इसलिए कहता हूं कभी भी किसी के प्रोग्रेस को देखकर जलिए नहीं, प्रेरणा लिजिए।
