प्रधानमंत्री की ढइया तक तो पहुंचे, छू न सके : पं. नारायणदत्त तिवारी!

के. विक्रम राव

आज जयंती और पुण्यतिथि (18 अक्टूबर 2023) साथ है। पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, समाजवादी चिंतक और अर्थशास्त्री पंडित नारायणदत्त तिवारीजी की। दो साल बाद जन्म शताब्दी होगी। देश के सभी सोशलिस्टों और नेहरू-कांग्रेसियों को धूमधाम से इसे मनाना चाहिए। तिवारीजी भारत के दसवें प्रधानमंत्री (21 जून 1996) बन सकते थे। मगर लॉटरी खुली पीवी नरसिम्हा राव की। वे तब तक अपनी किताबें और बिस्तर समेटकर दिल्ली से हैदराबाद जा रहे थे। नियति का रुख कुछ भिन्न था। नैनीताल से तिवारीजी लोकसभा चुनाव हार गए। यूपी के प्रथम कांग्रेसी मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत की भाजपायी पतोहू श्रीमती इला (कृष्णचंद्र) पंत जीत गईं। हालांकि तिवारीजी राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री आदि कई बार रहे। उनके अनगिनत प्रशंसकों, मुझे जोड़कर, को अतीव मानसिक यातना हुई। पर वाह रे, नारायणदत्तजी ! वे विचारक थे जिन्हें यूनानी दार्शनिक बॉयस (सुकरात के साथी) की सारगर्भित उक्ति याद रही : “दुर्भाग्य न सह पाना ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है।” पराजित तिवारीजी ने अपनी चिरपरिचित मुस्कान खिलायी रखी। सात दशकों तक मेरा निजी रिश्ता इस सोशलिस्ट पुरोधा से बना रहा। आज भिन्न वाकये स्मरण आते हैं। चन्द खट्टे भी। तिवारीजी से मेरा प्रथम दीदार 1956 में हुआ था। तब हम लोग लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ रहे थे। हड़ताली छात्र जुलूस लेकर विधासभा के सामने जमा हुए। पुराने सोशलिस्ट डॉ. सम्पूर्णानन्द राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। तभी सदन छोड़कर एक युवा विधायक हमारी सभा में आया। गहरी आँखे, गाल लाल, टोपी गेहुई, आवाज गूँजती हुई, व्यक्तित्व आकर्षक, प्रभावी और मनभावन था। पता चला नैनीताल जिले के सोशलिस्ट विधायक नारायणदत्त तिवारी हैं। छात्र के नाते फिर समाजवादी हमसफ़र होने पर और बाद में पत्रकार के नाते मेरी इस विलक्षण व्यक्ति से कई बार भेंट हुई। आत्मीयता पनपती गई।

उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनता पार्टी शासन के दौरान विपक्ष की भूमिका में प्रेस दीर्घा से नारायणदत्त तिवारी को देखकर मुझे विपक्षी ब्रिटिश लेबर पार्टी के सांसद एन्युरिन बीवन की याद आती थी, जिसने, संसदीय रपटों के अनुसार, महाबली सर विंस्टन चर्चिल को छका दिया था। बजट पर समीक्षात्मक भाषण तिवारीजी के जैसा मैंने किसी भी विधानसभा में नहीं सुना। हालांकि “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के संवाददाता के नाते मुझे दस से अधिक राज्य विधानसभाओं की रिपोर्टिंग का मौका मिला था। तिवारीजी कि सहजता का एक किस्सा श्रीमती मोहसिना किदवईजी ने मुझे बताया था। एक बार श्री नारायण दत्त तिवारी और मोहसिनाजी के साथ इंदिरा गांधी पहाड़ पर कार से जा रही थीं। इंदिराजी ने पूछा की यदि वे इस पहाड़ पर फंस जाएँ और अरसे तक रुकना पड़े तथा भोजन में केवल एक ही तरकारी उपलब्ध हो, तो वे किसे पसंद करेंगे ? तिवारीजी का उत्तर था, “आलू”। बस आलू एकमात्र वह सब्जी है जो प्रत्येक अन्य भाजी के साथ माकूल बैठता है। तिवारीजी का सबसे बड़ा गुण यही था कि वे हर किसी व्यक्ति अथवा अवसर पर हरेक के अनुकूल ही पड़ते थे। भारतीय राजनीति में शायद ही ऐसा कोई अन्य व्यक्ति हो जो विपरीत परिस्थितियों में भी सहज हो। एक बार जार्ज फर्नान्डिस ने मुझसे पूछा था की आखिर कांग्रेसी तिवारीजी को नापसंद करने में, अथवा उनकी आलोचना करने में इतनी कठिनाई क्यों हो जाती है ? फिर बजाय मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये, जार्ज ने स्वयं कहा : “हर भेंट पर तिवारीजी पहले अभिवादन कर देते हैं। भाई कहकर पुकारते हैं। शब्द सरल और आत्मीय होते हैं। ऐसे व्यक्ति का विरोध हो तो कभी, क्यों, कैसे ? कहा जार्ज ने। यह बयान वजनदार इसलिए है कि जार्ज फर्नान्डिस मूलतः लड़ाकू थे।

दो निजी घटनाएँ मुझे हमेशा याद रहेंगी। तभी 1977 की इमरजेंसी ख़त्म हुई थी। हम लोग भी जेल से रिहा हुए थे। हम पर चला बड़ौदा डायनामाइट का मुकदमा ख़ारिज हो गया था। “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” ने मेरा लखनऊ तबादला किया था। तभी (1978) में चौधरी चरण सिंह ने केन्द्रीय गृहमंत्री के नाते इंदिरा  को कैद किया था। उत्तर प्रदेश के कांग्रेसजन भी गिरफ्तार होकर जेल भर रहे थे। तिवारीजी कैद होकर लखनऊ जेल में रखे गए थे। उनसे मिलने मैं जेल में गया। वहाँ तिवारीजी का बयान लिया। उनमें वही पुराना प्रतिपक्ष का नेता जागृत हो गया था। उन्होंने मेरी भेंट पड़ोस के बैरक में बंद अंधे कैदियों से करायी। जनता पार्टी सरकार ने अपने आर्थिक अधिकारों हेतु संघर्षरत इन नेत्रहीन प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज करवाया था। दृश्य बड़ा मर्मस्पर्शी था। लौटकर मैंने अपने डिस्पैच में लिखा कि “सलाखों से सत्ता पर विराजी जनता पार्टी सरकार बंदियों पर वही सलूक कर रही है जो इंदिरा गांधी सरकार ने हमारे साथ किया था।” सांसद मधु लिमये ने फोन पर पूछा कि वस्तुस्थिति क्या है ? फिर मुझसे जानकारी पाकर मुख्यमंत्री (रामनरेश यादव) जो कभी समाजवादी थे, को सचेत किया।

दूसरी घटना बिजनौर की है। इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) की उत्तर प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार यूनियन का प्रतिनिधि सम्मलेन था। तभी आन्ध्र प्रदेश में एन.टी. रामा राव की नवसृजित तेलुगु देशम पार्टी कांग्रेस को बुरी तरह पराजित कर हैदराबाद में विधानसभा में दो तिहाई बहुमत पा चुकी थी। तिवारीजी केंद्र में मंत्री थे और कांग्रेस हाई कमान के आन्ध्र प्रदेश निर्वाचन में पर्यवेक्षक भी। कांग्रेस पार्टी की पराजय से क्षुब्ध तो थे ही। वे हैदराबाद से दिल्ली लौटे। हमारे राज्य सम्मलेन का 14 जनवरी 1983 (मकर संक्रांति) को उन्हें उद्घाटन करना था। वे नहीं आये। हम सब निराश हो गये, और नाराज भी। मगर उसी रात को सन्देश आया की तिवारीजी दूसरे दिन आएंगे। अपने स्वागत भाषण में मैंने कहा कि अट्ठावन-वर्षीय तिवारी जी की याददाश्त तो पक्की है, अतः उनकी बात पर भरोसा नहीँ होता कि वे हमारे अधिवेशन के प्रथम दिन की तारीख भूल गए होंगे। फिर मैंने कहा : “मगर यह तिवारीजी का नहीं, वरन स्थल-दोष है। क्योंकि यहीं एक राजा अपनी प्रेयसी को अंगूठी पहनाकर अपना शादी का वादा ही भूल गया था।” सन्दर्भ हमारे सभा स्थल के समीप स्थित कण्वऋषि के आश्रम से था जहाँ कभी राजा दुष्यंत आया था| तिवारी जी छूटते ही मुझसे फुसफुसाये, “शकुन्तला कहाँ है” ?

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