“विश्व डाक दिवस” के अवसर पर: डाकिया डाक लाया

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

डाकिया बाबू ही वो कहलाता था,
इस शब्द से तो हमारी जिंदगी का,
नित-प्रति उठते-बैठते का नाता था,
पोस्टमैन घर का ही एक हिस्सा था।

अब पोस्ट मैन कभी कभी दिखता है,
उसका काम तो मोबाइल ने पूरी तरह
ख़त्म कर दिया है उसे भुलवा दिया है,
उसका इंतज़ार ही ख़त्म कर दिया है।

सबको कभी चिट्ठी का कभी धनादेश,
कभी पार्सलव तार, किसी न किसी
चीज़ की वजह से इंतज़ार होता था,
व रोज़ डाकिये का दीदार होता था।

पत्नी को अपने पति की चिट्ठी का,
माँ को अपने बेटे के मनीआर्डर का,
गाँव से दादी नानी की चिट्ठियों का,
किसी को पेंशन के पैसों के चेक का।

रिश्तेदारों, परिज़नो से जो उम्मीदें थीं,
उनकी डोर डाकिये के हाथ होती थी।
दोपहर साईकिल की घंटी बजती थी,
तो सबकी उसी तरफ़ दौड़ लगती थी।

डाकिया किसी से कम प्यारा नहीं था,
और डाकिये का प्यार भी कम नहीं था,
वह सच्चा गवाह था कितने ही रिश्तों
के टूटने, बिछुड़ने, बनने, पनपने का।

डाकिये की जगह मोबाइल ने ले ली है,
फ़ोन पर समाचार, फ़ोन पे पर पैसा,
आदित्य सब मोबाइल ही कर देता है,
दिलों की तरंगे तक ये पकड़ लेता है।

 

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