पूरे जिले को रुला स्वयं ‘द्वारिका’ की ओर निकल गए ये शुक्लजी

  • अपनों का स्वागत अपने पारम्परिक अंदाज में करने के लिए थे प्रसिद्ध
  • बिना बीमारी ही दुनिया छोड़ स्वर्ग चले गए द्वारिका प्रसाद शुक्ल

बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत बदल गई
एक शख्स सारे ‘नाथनगर’ को वीरान कर गया

मशहूर शायर खालिद शरीफ की दो लाइनें उन आंखों को नम करने के लिए काफी हैं, जिन्होंने अपनों को खोया है। वो भी ऐसा ‘अपना’ जो समाज में ‘टाइगर’ की तरह था। आपके बगल में बिल्कुल आपके ‘गार्जियन’ की तरह था। परेशानियों में वो शख्स ‘मां-बाप, भाई-बहन’ का रूप धारण कर लेता था। लेकिन आज वो चला गया तो पूरा जिला, तहसील, कस्बा और गांव पूरी तरह से वीरान हो गया। ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो इस दुनिया से रुख़्सत होने के बाद अपने पीछे अपना प्रभावी इतिहास छोड़ जाते हैं और उनकी यादें हमेशा दिलो-दिमाग में घर कर लेती है। दिवंगत द्वारिका प्रसाद शुक्ल का व्यक्तित्व भी कुछ उसी तरह का था। जिन्हें न तो शुगर की बीमारी थी, न ब्लड प्रेशर की। न किसी तरह की कोई मर्ज उनके शरीर में अपना आशियाना बना पाई थी। लेकिन काल का पहिया ऐसा चला कि पूरे गांव को अपने निराले अंदाज में पार्टी (बाटी-चोखा और खीर) देने के बाद वो सोए तो फिर न उठे।

एक दिन पहले अपने बड़े बेटे (रामकृष्ण शुक्ल) का जन्मोत्सव मना रहे थे। खुश ऐसे थे जैसे किसी छोटे बच्चे का जन्मदिवस हो। खुशी में यह भूल गए कि बेटा भी दो बेटों का बाप बन चुका है। लेकिन… वो काली रात। अब कैसे रामकृष्ण अपना जन्मदिन किसी साल मना पाएगा। अब तो हर साल उसका जन्मदिन आंसुओं के सैलाब में बहेगा।

मेरे दिलो-दिमाग में उन्हें लेकर बड़ी यादें हैं। वो थे तो बड़े पिताजी के पुत्र, लेकिन अपने सगे भाई के कम कभी माना नहीं। बचपन में पढ़ाई से लेकर बड़े होने तक हर वक्त जब मुझे परेशानी दिखी वो मेरे साथ खड़े रहे। सिर से पिता का साया उठा तो वो मेरे साथ थे। काल के गाल में बड़े भैया (धीरेंद्र शुक्ल) समा गए तो वो मेरे बगल में थे। इसी मई माह में जब मेरी मां श्रीमती कांति देवी शुक्ला नहीं रहीं तो हर कदम पर भैया (द्वारिका शुक्ल) साथ थे। वो हमेशा कहते थे तुम ‘लखनऊ’ की दुनिया संभालों, यहां की परेशानी मैं देख लूंगा। उम्र भी कुछ ज्यादा नहीं हुई थी। कुल जमा 60 साल के थे। अभी जनवरी महीने में रिटायर हुए। सब इंसपेक्टर थे, लेकिन वर्दी में साढ़े छह फिट का जवान देखकर अपराधियों की हलक सूख जाया करती थी।

वो गांव में आज तक किसी से लड़ाई नहीं किए। नंगे पैर पूरे गांव में टहलने की आदत बचपन से थी। कभी गांव में जूता-चप्पल पहनकर नहीं चले। हालांकि यह आदत उन्होंने बड़े भैया और लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर रहे स्व. ओमप्रकाश शुक्ल से सीखी थी। वो भी कभी जूता-चप्पल नहीं पहनते थे। हालांकि उन्हें भी काल ने असमय उठा लिया था। आज जब इनकी अर्थी उठ रही थी, तो ये ‘अभागा’ अपनी स्लीप डिस्क की बीमारी के चलते MRI मशीन में था। डॉक्टरों ने सख्त मना कर रखा है कि लम्बी यात्रा पर नहीं जा सकते। भाग्य की इतनी क्रूरता, जिसने हर कदम आपका साथ दिया, आप उसकी अंतिम यात्रा में भी शामिल नहीं हो सकते। आंखें केवल नम नहीं है, अब आंसू भी सूख गए हैं।

अंतिम यात्रा में रो पड़ा पूरा गांव

क्या होगा उस रुद्र (पोते) का जो हमेशा दादा के साथ रहता था। कैसे समय बिताएंगी भाभी (गीता शुक्ला) जिन्होंने इतना लम्बा इंतजार किया और कहती थीं रिटायरमेंट के बाद हम साथ-साथ पूरा देश, पूरी दुनिया घूमेंगे। केवल एक ही यात्रा कर पाए और उन्हें इंतजार करने को छोड़ खुद अनंत की यात्रा पर निकल गए। छोटे बेटे (चंद्रेश्वर शुक्ल) की अभी शादी भी नहीं हुई है। वहीं छोटा भतीजा (आनंद शुक्ल) भी अविवाहित है। अकेले पूरे घर, परिवार और समाज की जिम्मेदारी निभाने वाले भैया के जाने के बाद इन लोगों का जीवन अब कैसे बीतेगा, यह तो वक्त बताएगा लेकिन वो दो बेटियां (मयंका और अनामिका) बिल्कुल अलग-थलग खुद को महसूस कर रही होंगी। शब्द साथ छोड़ रहे हैं ज्यादा लिखा नहीं जा रहा है… बस इतना ही भैया श्री हरि भगवान विष्णु आपको अपने चरणों में स्थान दें…।

एक अनाम शायर की दो लाइनें जेहन में कौंध रही हैं… बाकी उनकी यादें आपसे बाद में शेयर करूंगा।

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा।
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा।।

लड़खड़ाते शब्दों के साथ बड़े भैया को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि … भौमेंद्र शुक्ल

 

 

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